महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में कुल सात लोगों को सजा सुनाई गई थी. इनमें से मुख्य आरोपित नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को तो फांसी और बाकी लोगों को उम्रकैद दी गई थी. गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र में हिंदू सभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर पर भी मुकदमा चला था लेकिन उन्हें अदालत ने बरी कर दिया था.


सत्याग्रह पर मौजूद चुनी हुई सामग्री को विज्ञापनरहित अनुभव के साथ हमारी नई वेबसाइट - सत्याग्रह.कॉम - पर भी पढ़ा जा सकता है.


इस मामले में उम्रकैद की सजा पूरी करने वाले तीन आरोपित – मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे और विष्णु करकरे जब 1964 में पुणे लौटे तो उनके जेल से छूटने पर एक कार्यक्मर आयोजित हुआ. यहीं डॉ जीवी केतकर जो तरुण भारत अखबार के संपादक थे, ने एक ऐसा बयान दिया जिसने 16 साल बाद गांधीजी की हत्या के मामले को एक बार फिर चर्चा में ला दिया. बाल गंगाधर तिलक के पोते, डॉ केतकर का कहना था कि गांधीजी की हत्या के छह महीने पहले उन्हें इसकी सूचना मिल गई थी और उन्होंने तत्कालीन बंबई प्रांत के मुख्यमंत्री बीजी खेर को इस बारे में सतर्कता बरतने की सलाह देते हुए सूचना भिजवा दी थी.

डॉ केतकर के इस बयान के बाद तुंरत ही संसद सहित महाराष्ट्र विधानसभा में हंगामा होने लगा. अखबारों में कहा जा रहा था कि गांधीजी की हत्या की सूचना सरकार को पहले से थी तो सुरक्षा पुख्ता क्यों नहीं की गई? इन स्थितियों में केंद्र सरकार ने सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील गोपाल स्वरूप पाठक की अगुवाई में गांधीजी की हत्या के पीछे षड्यंत्र की नए सिरे से जांच के लिए एक आयोग बना दिया. लेकिन कुछ ही दिनों बाद पाठक केंद्रीय मंत्री बन गए. तब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग बनाया गया.

कपूर की अध्यक्षता में इस आयोग ने तीन साल तक मामले की गहन छानबीन की. पहली बार सावरकर के दो सहयोगियों के हलफनामे को भी आयोग ने जांच में शामिल किया. ये हलफनामें अदालत में प्रस्तुत नहीं किए गए थे. तीन साल की जांच के बाद आयोग ने जो जांच रिपोर्ट दी उसमें साफ-साफ कहा गया कि बेशक कोर्ट ने सावरकर को इस मामले में दोषी न ठहराया हो, लेकिन कुछ लोगों के हलफनामे और दूसरे सबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सावरकर और उनके संगठन की गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र में सक्रिय भूमिका थी.