14 फ़रवरी, 2019 को कश्मीर घाटी के दक्षिणी जिले पुलवामा में मिलिटेंट्स ने एक आत्मघाती हमला किया था. इसे अब पूरा देश “पुलवामा हमले” के नाम से याद करता है.

पूरा एक साल बीत गया है तब से. सरसरी नज़र दौड़ाएं तो कुछ नहीं बदला है इस एक साल में. जिस जगह यह पुलवामा हमला हुआ था वहां सड़क पर अभी भी विस्फोट से बना गड्ढा दूर से ही दिख जाता है.

लेकिन सच यह है कि इस एक साल में कश्मीर पूरी तरह से बदल गया है. यह पिछला एक साल कश्मीर के इतिहास में शायद अब तक का सबसे महत्वपूर्ण साल रहा है. पुलवामा हमले के बाद से ऐसी कई चीज़ें हुईं जिनको दशकों नहीं सदियों तक याद रखा जा सकता है.

शुरुआत “पुलवामा हमले” के फौरन बाद ही हो गयी थी.

जमात--इस्लामी पर प्रतिबंध

जहां पुलवामा हमले के बाद देश भर में शोक का माहौल था, कश्मीर में एक अलग ही तरह की अफरा-तफरी थी. इसके फौरन बाद सरकार ने कई तरह के आदेश जारी किये, जिनमें कभी स्कूल बंद करने की बात की जाती तो कभी सरकारी मुलाजिमों को सतर्क रहने को कहा जाता. अस्पतालों को भी तैयार रहने को कहा जा रहा था और पुलिस को भी. इन सब वजहों से कश्मीर में भय का माहौल था. ऐसा पहली बार हुआ था और लोगों की समझ से बाहर था कि यह हो क्या रहा है.

आखिरकार 22 और 23 फरवरी की रात को पुलिस ने जमात-ए-इस्लामी के 100 से ज़्यादा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया और अगले दिन उनकी पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया. यह प्रतिबंध पांच साल का है और उसके कई कार्यकर्ता अभी भी जेल में ही हैं.

कश्मीर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुआ तो कुछ लोगों ने राहत की सांस भी ली, इस उम्मीद के साथ कि शायद अब साल के आने वाले महीने बेहतर हों.

लेकिन साल तो अभी शुरू ही हुआ था.

बालाकोट और जंग का माहौल

पुलवामा हमले में सीआरपीएफ़ के 40 जवान मारे गए थे. देश भर में ग़म और गुस्सा था. इस हमले ने मानो पूरे देश को हिला के रख दिया था. कश्मीर में लोग अभी जमात पर लगे प्रतिबंध और उससे पहले के आदेशों को ही जज्‍ब करने की कोशिश में थे कि तभी ‘बालाकोट’ हो गया.

26 फरवरी की सुबह खबर आई कि भारत की सेना ने पाकिस्तान में घुसकर वहां के बालाकोट इलाक़े में बमबारी की. जहां देश के अखबार और न्यूज़ चैनल यह कह रहे थे कि पाकिस्तान में 300 आतंकी मारे गए हैं, वहीं पाकिस्तान इस बात को नकार रहा था.

अगले दिन पाकिस्तान ने भारतीय सेना का एक विमान गिराकर उसके पायलट विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को पकड़ लिया.

कहने का मक़सद यह है कि इन सारी चीजों से एक जंग का सा माहौल बन गया था और जहां शायद देश के अन्य भागों में इस बात का एहसास उतना न हो रहा हो, कश्मीर में लोगों को लगभग युद्ध होता हुआ नज़र आ रहा था. कारगिल के बाद ऐसा पहली बार हुआ था और आम कश्मीरी सहमा हुआ था. कोई नहीं चाहता था कि युद्ध हो. हर कोई यह कह रहा था कि युद्ध कोई समाधान नहीं है.

खैर, पाकिस्तान ने अभिनंदन वर्तमान को छोड़ दिया और युद्ध धीरे-धीरे टलता हुआ दिखाई दिया. लेकिन इस घटना के सिर्फ पांच महीने बाद कश्मीर में हर एक व्यक्ति यह कह रहा था कि भारत पाकिस्तान का युद्ध ही सिर्फ एक समाधान है.

ऐसा क्यों हुआ, वह आगे बताएंगे. फिलहाल क्रम से चलते हुए यह बताते हैं कि आगे क्या हुआ.

जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंध

कुछ दिन बालाकोट के बाद की अफरा-तफरी में गुजरे. कश्मीर का माहौल सामान्य हो ही रहा था कि केन्द्रीय सरकार ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ़) पर भी प्रतिबंध लगा दिया.

यह प्रतिबंध 22 मार्च को लगा था. यासीन मलिक के नेतृत्व वाली जेकेएलएफ़ एक अलगाववादी पार्टी है जो जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर को मिलाकर एक अलग देश बनाना चाहती है.

जेकेएलएफ पर प्रतिबंध लगाने के साथ-साथ यासीन मलिक को भी गिरफ्तार कर लिया गया. यह गिरफ्तारी अभी भी जारी है.

जमात-ए-इस्लामी और फिर जेकेएलएफ़ पर प्रतिबंध कश्मीर में अलगाववाद पर लगाम कसने की दृष्टि से देखा जा रहा था. लेकिन पूरी तस्वीर अभी भी किसी के सामने नहीं थी. यह तस्वीर लोगों को पांच अगस्त को जाकर दिखी.

फिलहाल मार्च खत्म हुआ और अप्रैल कश्मीरी लोगों के लिए एक नयी मुसीबत लेकर सामने खड़ा था.

हाइवे पर असैनिक गाड़ियों पर प्रतिबंध

पुलवामा हमले के अगले दिन जब तबके गृह मंत्री, राजनाथ सिंह, कश्मीर आए थे तो उन्होंने कहा था कि जब वहां कहीं पर सेना का काफिला गुजरेगा तो उस वक्त असैनिक गाड़ियों को रोक लिया जाएगा. इसमें इतनी बड़ी कोई बात नहीं थी क्योंकि यह कश्मीर में अक्सर होता रहा था. लेकिन जो होने वाला था उसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी.

अप्रैल शुरू होते ही तब के राज्यपाल, सत्यापल मलिक, ने आदेश जारी किया कि अगले दो महीने तक हफ्ते में दो दिन कश्मीर में हाइवे पर सिर्फ सेना की गाडियां ही चलेंगी. इस दौरान असैनिक गाड़ियों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था.

पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती और उमर अब्दुल्ला समेत कश्मीर के सारे राजनेता इस फैसले के खिलाफ कश्मीर की सड़कों पर उतर आए, लेकिन सरकार टस से मस नहीं हुई.

इन दो महीनो में हफ्ते के दो दिन एम्ब्युलेन्स भी रोक ली जाती थीं. लोग हैरान-परेशान थे और दुआ यह कर रहे थे कि उनकी मुश्किलें कम होंगी.

जून और जुलाई का महीना शायद आम लोगों के लिए थोड़ी सी राहत लेकर आए थे लेकिन इन दो महीनों में भी नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) कश्मीर के भिन्न भागों में लगातार छापे मार रही थी.

इस दौरान काफी लोग “टेरर फंडिंग” के सिलसिले में गिरफ्तार हुए, जिनमें कश्मीर के कई जाने-माने लोग भी थे.

जुलाई के अंत के एक हफ्ते में कश्मीर में फिर से सरकारी आदेशों ने अफरा-तफरी फैला दी. ये आदेश डरा देने वाले थे. कहीं सरकारी दफ्तरों को “एमर्जेंसी मेडिकल रूम” बनाने की बात हो रही थी तो कहीं रेलवे के अधिकारियों को अपने परिजनों को वापिस घर भेजने की बात की जा रही थी. किसी आदेश में पुलिस वालों को घर न जाने को कहा जा रहा था तो किसी में हस्पतालों से यह पूछा जा रहा था कि वे एक साथ कितने ज़ख़्मियों का इलाज कर सकते हैं.

कुल मिलाकर जमात के प्रतिबंध से पहले वाली अफरा-तफरी फिर लौट आई थी और कश्मीर में लोग फिर सहम गए थे. कोई यह अनुमान लगा रहा था कि पाकिस्तान के साथ युद्ध होगा तो कोई यह कि दक्षिण कश्मीर में मिलिटेंट्स के ठिकानों पर बमबारी होगी.

जो हुआ उसका किसी को अंदाज़ा भी नहीं था और कश्मीर को लेकर पिछले 70 सालों में इतना बड़ा कोई फैसला नहीं लिया गया था.

पांच अगस्त को अनुछेद 370 हटा दिया गया

यह घटनाक्रम में सबसे नीचे ज़रूर आई है, लेकिन है यह पिछले साल कश्मीर में घटी सारी घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण. और शायद साल में बाकी हुई घटनाएं इसी की भूमिका लिख रही थीं.

चार अगस्त को ही पूरे जम्मू-कश्मीर में संचार के सारे माध्यम बंद कर दिये गए, यहां तक कि लैंडलाइन फोन्स भी. राज्य में कर्फ्यू लगा दिया गया और हजारों लोग, जिनमें मुख्यधारा के राजनेता भी शामिल थे, बंद कर दिये गए.

पांच अगस्त की सुबह गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में खड़े होकर कुछ मिनट के भाषण में अनुच्छेद 370 हटाने का आदेश जारी कर दिया.

कश्मीर में लोग अचम्भे में थे. किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि ऐसा हुआ है. जम्मू-कश्मीर के दो हिस्से करके उन्हें केंद्र-शासित बना दिया गया था और पूरा कश्मीर घरों के अंदर कैद था.

इसके बाद कई प्रदर्शन हुए, कई लोग मारे भी गए लेकिन केंद्र सरकार का फैसला अटल था. यह वह समय था जब कश्मीर में हर एक व्यक्ति की ज़ुबान से सिर्फ एक ही बात निकाल रही थी कि सिर्फ युद्ध ही समाधान है. स्थानीय लोगों से उस समय बात करने पर इसकी दो सबसे महत्वपूर्ण वजहें सामने आई थीं.

एक तो कश्मीर के आम लोगों को यह लग रहा था कि पाकिस्तान, हिंदुस्तान से मुकाबले के लिए मिलिटेंसी का सहारा ले रहा है और भारत मिलिटेंसी और पाकिस्तान से निपटने के लिए बेहिसाब सेना का. इसमें सबसे ज्यादा आम आदमी ही पिस रहा है. ऐसे में इन लोगों को लग रहा था कि दोनों देश एक बार आपस में निपट लें और उन्हें बता दें कि उन्हें किसके साथ रहना है.

इसके अलावा उस दौरान अपने-अपने घरों में बंद लोगों को यही समझ में नहीं आ रहा था कि वे करें तो क्या करें. ऐसे में इनमें से कुछ को लग रहा था कि और कुछ नहीं तो दोनों देशों में युद्ध ही हो जाए. उस समय कश्मीर में यह कहा भी जा रहा था कि पाकिस्तान, भारत पर हमला कर सकता है.

बहरहाल, दिन बीतते गए और कश्मीर घाटी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी. लेकिन यह कश्मीर वह नहीं है जो पिछले साल 14 फरवरी वाले उस दिन से पहले था जब पुलवामा हमला हुआ था.

इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि हाल ही में, पहले से जेल में बंद, जम्मू-कश्मीर के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत केस दर्ज हुए हैं.

आज 14 फरवरी है. देखना यह है कि आने वाला साल कश्मीर के लिए कैसा होगा!