लेखक-निर्देशक – इम्तियाज़ अली
कलाकार – सारा अली खान, कार्तिक आर्यन, रणदीप हुड्डा, आरुषि शर्मा
रेटिंग – 2.5/5

‘लव आज कल’ देखने के बाद दिल करता है कि इम्तियाज़ अली से पूछा जाए कि ‘दोस्त, तुम इम्तियाज़ अली को कहां गुमा आए हो? तुम्हारे अंदर वाला, ऑरिजिनल वाला इम्तियाज़ पिछली दो-तीन फिल्मों से कहां है? क्या तुम उसे ठीक वैसे ही नहीं खोज सकते जैसे तुम्हारी फिल्मों के तमाम किरदार खुद में से खुद को खोज निकालते हैं?’ साथ ही, उनसे यह भी कहा जाए कि ‘हमें पूरा का पूरा इम्तियाज़ चाहिए - लेखक इम्तियाज़, निर्देशक इम्तियाज़ और आशिक-दार्शनिक इम्तियाज़ भी. अगली बार जब आना तो पूरी तरह आना. नहीं तो, बिल्कुल नहीं!’ उन्हीं के लिखे एक संवाद की तर्ज पर कही गई इन बातों को शायद वे बिना किसी संदर्भ-प्रसंग के भी समझ सकेंगे.

जहां तक ऐसा कहने की वजह का सवाल है तो वह कुछ यूं है कि पिछली बार जब दर्शक उनकी फिल्म देखने सिनेमा घर पहुंचे थे तो उनके सामने ‘जब हैरी मेट सेजल’ जैसी औसततरीन रूमानियत रख दी गई थी. इस बार यह उम्मीद लगाई गई थी कि यह फिल्म 2009 वाली ‘लव आज कल’ की तरह प्रेम के नए दर्शन के साथ ढेर सा मनोरंजन तो रच ही लेगी. वह भी तब जब आजकल प्रेम के समीकरण अपने आप में ही इतने इंटरेस्टिंग हो चले हैं. लेकिन एक बार फिर इम्तियाज़ अली ने उतना ही निराश किया है.

खैर, शिकायतों की यह पिटारी छोड़कर फिल्म की कहानी पर आएं तो यह लैला-मजनू मार्का वही प्रेम कहानी है जो इम्तियाज़ अली की पिछली लव आज कल की थी, और लगभग वैसी ही जो उनकी ज्यादातर फिल्मों की होती है. यहां पर भी एक-दूसरे से अनजान लड़का-लड़की आपस में मिलते हैं, उनमें प्यार होता है, ब्रेकअप होता है, फिल्म का इंटरवल होता है और उसके बाद दूसरे हिस्से में, एक-दूसरे के बिना ना जी पाने का रियलाइजेशन लिए, दोनों एक हो जाते हैं. इस मिलने और फिर मिलने के बीच इम्तियाज़ जो रचते हैं, उसे इश्कनामा, ज़िंदगीनामा या सिनेमा में से कोई एक नाम दिया जाता रहा है. ऊपर गिनाई गई सारी बातें नई ‘लव आज कल’ में भी हैं लेकिन मिलने और फिर मिलने के बीच का जादू गायब है.

इस बार, पिछली फिल्म से आगे बढ़कर इम्तियाज़ अली ने 1990 और 2020 के वक्त में लव-कल और लव-आज की कहानियां कही हैं. इन दोनों कहानियों में उन्होंने प्यार और प्रोफेशन के बीच बमुश्किल सध पाने वाले संतुलन को ट्विस्ट बनाया है. पहले से दो परतों में चलने वाली इस पटकथा में यह ट्विस्ट एक और परत की तरह शामिल होता है. यहीं गड़बड़ हो जाती है क्योंकि इन सबको, उनकी सारी बारीकियों के साथ दिखाने के चक्कर में पटकथा अपनी राह खो बैठती है और देखने वाले कहानी के सिरे खोजते रह जाते हैं.

वैसे तो ‘लव आज कल’ में बहुत सारी ऐसी चीज़े हैं जिनसे देखने वाले अपना कनेक्शन जोड़ सकते हैं. मसलन, सोशल मीडिया पर रोज़ दिखने वाले मॉटिवेशनल कोट्स इसमें शामिल किए गए हैं. ये कोट्स फिल्म के संवादों को रचनात्मकता देने में बड़ी भूमिका निभाते हैं और फिट बैठने के साथ सुहाते भी हैं. साथ ही, फिल्म में नए जमाने की डेटिंग के तरीके और पैटर्न को भी पूरी ईमानदारी दिखाया गया है. इसके अलावा, काम के प्रेशर और इस प्रेशर के असर को भी ‘लव आज कल’ पूरी वरीयता देती है. लेकिन कई परतों में चल रही पटकथा के बीच ये सब किसी जिगसॉ पज़ल के टुकड़ों की तरह अपने-अपने ठिकाने ढूंढते से लगते हैं और घिचपिच यानी केऑस पैदा करते हैं.

‘लव आज कल’ की लिखाई में मौजूद तमाम खामियों के बावजूद जिस बात के लिए इसकी खूब-खूब तारीफ की जा सकती है, वह फिल्म को दिया गया फेमिनिस्ट टच है. पिछली फिल्म में जहां प्रेम से भागने या उसके पास लौटने का फैसला नायक करता दिखाई दिया था. वहीं, इस फिल्म में यह सब नायिका के हिस्से में आया है. साथ ही, औरतों को उनके हिस्से की गलतियों और खामियों के साथ रचा जाना भी प्रभावित करता है. इस मामले में ज़ोयी की मां का किरदार खास तौर पर ध्यान खींचता है. यह मां लगातार बेटियों को अपने पैरों पर खड़ा होने की ताकीद करती रहती है. फिल्म में यह किरदार जरा धूसर शेड में रखा गया है. लेकिन हमारी फिल्मों और समाज दोनों को ही, ऐसी ‘डॉमिनेटिंग-इरिटेटिंग’ मांओं की सख्त ज़रूरत है जो शादी करने की बजाय करियर बनाने के लिए बेटियों के पीछे लगी रहें. आप चाहें तो इस एक चीज के लिए भी ‘लव आज कल’ देख सकते हैं.

अभिनय पर आएं तो इस फिल्म के लिए कार्तिक आर्यन से बुरा चयन शायद ही कोई हो सकता था. पूरी फिल्म के दौरान वे लगातार यह कोशिश करते रहते हैं कि उनके एक्सप्रेशन्स ठीक हों लेकिन ज्यादातर बार वे इसमें असफल दिखते हैं. मॉडर्न वीर बनकर तो वे फिर भी बुरे नहीं लगते हैं लेकिन नाइन्टीज वाले एक्सप्रेशनलेस रघु को झेलना मुश्किल हो जाता है. कार्तिक आर्यन से तुलना करें तो सारा अली खान ठीक लगती हैं लेकिन कई मौकों पर उनकी ओवर-द-टॉप एक्टिंग आपको थोड़ा चिढ़ा देती है. कुल तीन फिल्म पुरानी सारा की यह परफॉर्मेंस उनके अब तक के काम में सबसे नीचे रखी जाएगी. अगर इस फिल्म से पहले आपने सारा के कई इंटरव्यूज देखें हों तो आपको सारा और उनके निभाए किरदार में कोई खास फर्क़ नज़र नहीं आएगा. बतौर अभिनेत्री यह उनके लिए घातक साबित हो सकता है क्योंकि बॉलीवुड में ऐसा करना सलमान खान के अलावा शायद ही कोई अफोर्ड कर सकता हो! खुद सारा के पिता सैफ अली खान भी नहीं!

फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका में रणदीप हुड्डा भी हैं. यहां पर एक वही हैं जिनका काम परदे से नज़रें हटाने का मौका नहीं देता है. मुख्य किरदारों के तमाम रोने-धोने के बावजूद आपकी आंखे नम करने का कारनामा केवल रणदीप ही कर पाते हैं. उनका जादू कुछ ऐसा है कि उनके साथ के दृश्यों में सारा भी ज्यादा संभला हुआ काम करती नज़र आती हैं. उनके अलावा, इस फिल्म से डेब्यू करने वाली आरुषि शर्मा, लव-कल वाले पार्ट में नब्बे की दशक की किशोरी बनकर ठीक-ठाक काम करती हैं.

फिल्म की बाकी खासियतों पर आएं तो लोकेशन्स, प्रोडक्शन क्वालिटी और सिनेमैटोग्राफी शानदार है. चूंकि यह इम्तियाज अली की फिल्म है इसलिए इसमें किरदारों का सफर करते दिखना स्वाभाविक था और इनमें से कुछ दृश्य कमाल के हैं. संगीत की बात करें तो यह कुछ ऐसा है कि जब बजता है तब सुहाता है लेकिन बाद में याद नहीं रह पाता. कुल मिलाकर, तितर-बितर कथानक, बुरे अभिनय लेकिन अच्छे संवादों वाली इस फिल्म को देखना न देखना, आप अपनी फुर्सत और सहूलियत पर छोड़ सकते हैं.

मॉडर्न-लव-लिंगो में कहें तो, बराबर खूबियों-खामियों वाली यह फिल्म टिंडर के उस प्रोफाइल की तरह है जिसे देखकर यह समझ नहीं आता कि लेफ्ट स्वाइप करना है या राइट? (जानकारी के लिए यहां पर बताते चलते हैं कि राइट स्वाइप करने का मतलब है, रिक्वेस्ट एक्सेप्टेड.)