दुनिया में विस्थापन की समस्या के पीछे अब हिंसा और युद्ध नहीं बल्कि प्राकृतिक आपदायें बड़ी वजह हैं. संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट - 2020 बताती है कि साल 2018 में जितने लोगों को हिंसा, आतंकवाद और युद्ध के कारण घर छोड़ना पड़ा उससे 64 लाख अधिक लोग आपदाओं के कारण विस्थापित हुये. रिपोर्ट के ये आंकड़े चिंताजनक हैं क्योंकि वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण आने वाले दिनों में आपदाओं की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी होगी.

वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट - 2020 में कहा गया है कि साल 2018 में 148 देशों के कुल 2.8 करोड़ लोग अपने देशों के भीतर विस्थापित हुये. इनमें 1.72 करोड़ (61 फीसदी) लोगों का विस्थापन आपदाओं के कारण हुआ जबकि 1.08 करोड़ (39 फीसदी) हिंसा और आतंकवाद या नस्ली संघर्ष जैसी घटनाओं के कारण अपने घरों से विस्थापित हुये.

जानकार कहते हैं कि भारत के लिये ये आंकड़े खास तौर से चौकन्ना करने वाले हैं. इसकी वजह है कि हमारे देश में आपदाओं की संख्या और तीव्रता लगातार बढ़ रही है. दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायर्नमेंट (सीएसई) की ताज़ा सालाना रिपोर्ट (इंडिया स्टेट ऑफ इन्वायरमेंट - 2020) बताती है कि पिछले दो साल में भारत को कुल 32 बड़ी आपदाओं का सामना करना पड़ा. यानी हर महीने एक से अधिक एक्सट्रीम वेदर की घटना.

“हमें याद रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन का असर लोगों पर विनाशकारी चोट होगी क्योंकि ग़रीब आबादी पहले ही काफी मुश्किलों का सामना कर रही है. बढ़ती हुई असमानता उनके कष्ट को और बढ़ा रही है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था बिखर रही है. मौसम से जुड़ी आपदायें इन तमाम लोगों को विस्थापितों और शरणार्थियों के झुंड में तब्दील कर देंगी” सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं.

वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट - 2020 भी दूसरे शब्दों में यही बताती है जब वह कहती है कि “दक्षिण एशिया में रहने वाले लोगों को धीमे और तेज़ी से हो रहे मौसम बदलाव के प्रभावों और प्राकृतिक आपदाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से विशेष खतरा है.” रिपोर्ट के मुताबिक साल 2018 में दक्षिण एशिया में मौसम के तीव्र बदलावों के कारण 33 लाख लोग विस्थापित हुये. इसका सबसे अधिक प्रभाव भारत, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका पर पड़ा. इनमें से भी भारत में 2018 में कुल 27 लाख लोग बाढ़ और चक्रवाती तूफान की वजह से विस्थापित हुये.

भारत-बांग्लादेश सीमा पर बसा सुंदरवन उन जगहों में है जहां जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं का असर सबसे अधिक है और यह पलायन के रूप में भी दिखा है | फोटो: हृदयेश जोशी

उधर सीएसई की रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2019 में एशिया में कुल 93 आपदायें रिकॉर्ड की गईं जिनमें से केवल नौ ही भारत में हुईं. फिर भी इन आपदाओं के कारण हुईं कुल मौतों में से लगभग आधी (48 प्रतिशत से अधिक) भारत में हुईं. साल 2019 की इन नौ आपदाओं की वजह से कुल 2038 लोगों की मौत हुई जबकि 2018 की 23 आपदाओं में 1396 लोग मरे थे. यह साफ दिखाता है कि भारत में प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता का असर कितना तेज़ी से बढ़ रहा है.

पिछले साल 2019 में जहां जुलाई के अंत तक देश के ज्यादातर हिस्सों में सूखा पड़ा था और लोग पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर रहे थे वहीं अगस्त के बाद बाढ़ ने कई राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया. किसानों के लिये मौसम की प्रलंयकारी मार से जूझना कठिन होता जा रहा है और रोज़गार पर पड़ रहे प्रभाव के कारण शहरी विस्थापन में उनका एक बड़ा हिस्सा है.

“हमने देखा है कि प्राकृतिक आपदाओं का सबसे अधिक प्रभाव आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों पर ही पड़ता है. अगर भारत के नक्शे पर नज़र डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि मराठवाड़ा, विदर्भ, बुंदेलखंड, कालाहांडी, बोलांगीर या कोरापुट जैसी जगहों पर विस्थापन का असर सबसे अधिक दिख रहा है. ये देश के सबसे पिछड़े इलाकों में गिने जाते हैं. ये ज्यादातर गरीब किसान हैं जिनका कर्ज़ पिछले कुछ वक्त में बढ़ा है.” इंडिया स्टेट ऑफ इन्वायरेंन्मेंट - 2020 के संपादकों में से एक रिचर्ड महापात्र बताते हैं.

वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट के सह संपादक और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विनोद खदरिया कहते हैं कि जलवायु के बदलते असर के कारण होने वाला विस्थापन अब अधिक स्पष्ट तौर पर दिख रहा है.

“मौसम में तीव्र बदलाव (एक्सट्रीम वेदर की घटनायें) को लेकर एक अलग तरह की तैयारी और रणनीति अपनाई जानी चाहिये. इसके कारण लोगों को अचानक घर छोड़ना पड़ता है. जब हम आंतरिक विस्थापन की बात करते हैं तो हमें याद रखना होगा कि लोग (देशों की ) सीमाओं के आर-पार भी विस्थापित हो रहे हैं. मुझे लगता है कि ऐसे विस्थापन की तुलना ह्यूमन ट्रैफिकिंग से भी की जा सकती है जहां लोग ज़िन्दा रहने के लिये वैसे ही संघर्ष करते हैं जैसे वे हिंसा और आंतरिक संघर्ष (गृहयुद्ध) जैसे हालात में करते हैं. मैं मानता हूं कि अब क्लाइमेट रिफ्यूज़ी (जलवायु परिवर्तन शरणार्थी) शब्द अधिक प्रचलित हो रहा है क्योंकि लोग देख रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन अब लोगों को अपना देश छोड़कर दूसरे देश में जाने को मजबूर कर रहा है.”