2002 में जब राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता भैरोसिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बनाया गया तो प्रदेश भाजपा के कई नेता, जो खुद को शेखावत के समकक्ष या उनसे ठीक एक पायदान नीचे मानते थे, उनकी बांछें खिल गईं. ऐसा इसलिए क्योंकि साल भर बाद ही राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने थे और शेखावत के बाद वे सभी नेता ख़ुद को मुख्यमंत्री पद का सबसे काबिल उम्मीदवार मानते थे. इन नेताओं में पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा, रघुवीर सिंह कौशल, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी, प्रदेश भाजपा के तत्कालीन कोषाध्यक्ष एवं पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रामदास अग्रवाल, राजस्थान के मौजूदा नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया और भाजपा से बागी हो चुके घनश्याम तिवाड़ी सरीख़े दिग्गज प्रमुखता से शामिल थे.
इन सभी की आपसी खींचतान तब राजस्थान में विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी पर बहुत भारी पड़ने लगी. इससे निपटने के लिए तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष वैंकेया नायडू ने जयपुर में आयोजित एक सम्मेलन में वसुंधरा राजे सिंधिया को पार्टी प्रदेशाध्यक्ष बनाने की घोषणा कर दी. प्रदेश भाजपा के एक वरिष्ठ सूत्र के मुताबिक यह लालकृष्ण आडवाणी गुट की तरफ़ से अटलबिहारी वाजपेयी खेमे के ख़िलाफ़ खेला गया बड़ा दांव था. बड़ी गहमागहमी हुई. आखिर में राजस्थान भाजपा के सभी धुरंधरों को मन मसोस कर रह जाना पड़ा.
वसुंधरा राजे उस समय केंद्र की वाजपेयी सरकार में राज्यमंत्री थीं और राजस्थान में दिग्गजों की फ़ौज के आगे अपने वजूद को लेकर भारी संशय में थीं. इसलिए उन्होंने नई जिम्मेदारी को संभालने से इनकार कर दिया था. दो महीने की मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने पार्टी प्रदेशाध्यक्ष बनना स्वीकार किया. इसके बाद 2003 के विधानसभा चुनाव में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भाजपा सत्ताधारी कांग्रेस को बड़ी शिकस्त देने में कामयाब रही. फिर तो राजस्थान राजे को ऐसा रास आया कि उन्होंने सूबे में ख़ुद को भारतीय जनता पार्टी के पर्याय के तौर पर स्थापित कर लिया. बीते क़रीब दो दशक में राजस्थान भाजपा में ऐसा कोई अन्य क्षत्रप नहीं उभर सका जो उन्हें चुनौती दे सके.
लेकिन 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनावों के बाद स्थिति बहुत बदली सी नज़र आने लगी है. उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद वसुंधरा राजे से नाराज़ माने जाने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जोड़ी ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुला लिया. जानकारों का कहना है कि ऐसा वसुंधरा राजे को राजस्थान की राजनीति से दूर करने के लिए किया गया.
बहरहाल, राजे के कमजोर होने की ख़बरों के बीच विधानसभा चुनाव के मुहाने से काफ़ी दूर खड़े राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के कई प्रमुख नेताओं की सक्रियता अचानक से बढ़ गई है. इनमें पार्टी प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया, सांसद दिया कुमारी, वर्तमान नेता प्रतिपक्ष गुलाब चंद कटारिया, उपनेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, सांसद किरोड़ी लाल मीणा, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व उत्तर प्रदेश प्रभारी ओम प्रकाश माथुर शामिल हैं.
इनमें से यदि सतीश पूनिया की बात करें तो प्रदेशाध्यक्ष बनते ही उनके समर्थकों ने उनके आगामी मुख्यमंत्री होने की घोषणा कर दी थी. जानकार बताते हैं कि पूनिया के हाव-भाव से भी उनकी महत्वाकांक्षा छिपी नहीं है. संगठन के समर्पित सिपाही होने के अलावा भाजपा हाईकमान से करीबी और राजस्थान में सर्वाधिक आबादी वाले जाट समुदाय से ताल्लुक रखने की वजह से मुख्यमंत्री पद के लिए सतीश पूनिया की दावेदारी अपने प्रतिद्वंदी कई नेताओं से इक्कीस नज़र आती है. जबकि इस दौड़ में जो समीकरण दिया कुमारी के पक्ष में नज़र आते हैं, उनका ज़िक्र हम एक पिछली रिपोर्ट में कर चुके हैं.
वहीं, संघ की पृष्ठभूमि वाले गुलाब चंद कटारिया की गिनती प्रदेश भाजपा के सबसे वरिष्ठ नेताओं में की जाती है. जानकारों के मुताबिक यदि भाजपा शीर्ष नेतृत्व कभी राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के लिए अपने अन्य नेताओं को एकजुट करने में नाकाम रहा तो उस स्थिति को संभालने के लिए कटारिया को ठीक वैसे ही आगे किया जा सकता है, जैसे कि नेता प्रतिपक्ष के चयन के समय उनका नाम बढ़ाया गया. कुछ महीनों पहले प्रदेश में हुए नगर निगम चुनावों में भाजपा सिर्फ़ कटारिया के गृहजिले उदयपुर में ही अपना बोर्ड बना पाई थी जिसके चलते उनकी ख़ूब वाह-वाही हुई. वसुंधरा राजे से गुलाब चंद कटारिया के रिश्ते बनते-बिंगड़ते रहे हैं.
कभी राजे के सबसे विश्वस्त नेताओं में शामिल रहे राजेंद्र राठौड़ भी आज उनके साथ खड़े नहीं दिखते. इन दोनों के रिश्तों में सरकार में रहते हुए (2013-18) ही तल्ख़ी आ गई थी. छात्र राजनीति से निकले हुए राठौड़ राजस्थान के प्रभावशाली राजपूत समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. विपक्ष में रहते हुए वे गहलोत सरकार को कई मुद्दों पर घेरते वक़्त अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे हैं. समय-समय पर राजेंद्र राठौड़ और प्रदेश के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट एक-दूसरे के प्रति नर्म रुख अपनाकर सुर्ख़ियां बटोर चुके हैं.
राठौड़ की तरह गजेंद्र सिंह शेखावत भी राजपूत समुदाय से आते हैं. शेखावत अचानक से ख़़बरों में 2018 में आए थे जब भाजपा हाईकमान द्वारा उन्हें राजस्थान का प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने की चर्चा से जयपुर से दिल्ली तक के राजनैतिक गलियारे गर्म थे. लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया. केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी जल शक्ति मंत्रालय की जिम्मेदारी होने के बावजूद शेखावत का मन राजस्थान की ही राजनीति में रमा दिखता है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के गृह जिले जोधपुर से आने वाले शेखावत पूरे मारवाड़ (जोधपुर संभाग) में अपने लिए एक नई राजनीतिक ज़मीन तैयार करने में जुटे हैं. हाल में वे राजधानी जयपुर में आयोजित कुछ कार्यक्रमों में भी उपस्थित रहकर चर्चाओं में रहे थे.
2008 में राजे से अनबन के बाद भारतीय जनता पार्टी से अलग हो चुके किरोड़ी लाल मीणा ने एक बार फ़िर 2018 में पार्टी का दामन थामा और पारितोषिक के तौर पर राज्यसभा पहुंचने में सफल रहे. बीते साल भर में मीणा ने बेरोजगारों और किसानों के पक्ष में बड़े आंदोलन कर राजस्थान की कांग्रेस सरकार को घेरने की हरसंभव कोशिश की है. बीते दिनों वे सवाईमाधोपुर जिले में सीमेंट फैक्ट्रियां शुरु करवाने और श्रमिकों के बकाया वेतन के भुगतान की मांग को लेकर सैंकड़ों आंदोलनकारियों के साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिलने पहुंचे थे.
लंबे अरसे से राजस्थान की राजनीति से बाहर रहने के बावजूद ओम प्रकाश माथुर प्रदेश में अपनी दमदार उपस्थिति बरकरार रखने में कामयाब माने जाते हैं. बीते कुछ महीनों में प्रदेश के कई दौरे कर माथुर ने यहां संगठन के नेताओं से अपनी मेल-मुलाकात बढ़ा दी है. हाल ही में झारखंड के दिग्गज आदिवासी नेता बाबूलाल मरांडी की भाजपा में वापसी कराने में अहम भूमिका निभाने की वजह से केंद्र में भी उनका क़द बढ़ा है. लेकिन हाल ही में जब गृहमंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में जोधपुर में रैली का आयोजन किया था उसमें राजे के साथ माथुर भी नदारद रहे थे. हालांकि वसुंधरा राजे के साथ भी माथुर के रिश्ते असहज ही माने जाते हैं.
लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद ओम बिड़ला भी भाजपा की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं. वे कोटा से सांसद हैं. उनका सहज स्वभाव और भाजपा हाईकमान से नजदीकी ही उनके पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाती है. वैश्य समुदाय से आने की वजह से बिड़ला को अगले चुनाव में कोई खास फायदा हो पाएगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्हें अपने समुदाय की वजह से राजनीति के अखाड़े में कोई नुकसान भी नहीं होगा. जातिगत राजनीति के प्रभाव में जकड़े राजस्थान में यह बात मायने रखती है.
राजस्थान में राजे की एंट्री के बाद से ही कई वरिष्ठ नेताओं की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी हाशिए पर पहुंच गया था. लेकिन बीते एक साल के दौरान राजस्थान में संघ की भी खासी सक्रियता महसूस की गई है. आरएसएस समर्थक विश्लेषक राकेश सिन्हा ने हाल ही में कहा था कि वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के मद्देनज़र सत्ता में सीधा दखल देना न सिर्फ संघ की मजबूरी है, बल्कि समय की भी ज़रूरत है. शायद यही कारण रहा कि राजस्थान भाजपा में संघनिष्ठ नेताओं को जिला स्तर पर बड़ी जिम्मेदारियां दी गई हैं. प्रदेश के सियासी हलकों में इसे संघ की तरफ़ से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी जवाब के तौर पर देखा जा रहा है. उन्होंने टिप्पणी की थी कि संघ को हिन्दुत्व और सांस्कृतिक संगठन के नाम पर लोगों को भ्रमित करने के बजाय खुलकर राजनीति करनी चाहिए. फिलहाल राजस्थान में संगठन मंत्री चन्द्रशेखर संघ के प्रमुख झंडाबरदार बने हुए हैं.
इस पूरी स्थिति पर वरिष्ठ पत्रकार अवधेश आकोदिया कहते हैं कि ‘अभी से मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद पाले राजस्थान भाजपा के बड़े नेता खेमाबंदी में जुट गए हैं. इससे पार्टी के दूसरी और तीसरी लाइन के नेताओं के लिए पशोपेश की स्थिति पैदा कर दी है. इनमें मौजूदा विधायक, पिछला विधानसभा चुनाव हार चुके नेता और अगले चुनाव में पार्टी टिकट के नए दावेदार शुमार हैं.’ बकौल आकोदिया, ‘इनमें से कुछ ने अपना खेमा चुन लिया है और कुछ ऐहतियातन हर बड़े नेता के यहां हाजरी लगा रहे हैं. लेकिन राजस्थान भाजपा में आज भी सबसे बड़ा गुट पूर्व मुख्यमंत्री राजे का ही है. क्योंकि अधिकतर छोटे-बड़े नेताओं का मानना है कि राष्ट्रीय मुद्दों या नेताओं के सहारे राज्य का चुनाव नहीं जीता सकता और सूबे में राजे के बिना भाजपा अधूरी है. हाल ही में कई राज्यों में भाजपा की सिलसिलेवार हार ने इस गुट को मजबूती दी है.’
आकोदिया आगे जोड़ते हैं, ‘इस खेमाबंदी से भारतीय जनता पार्टी को राजस्थान में बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है. आपसी खींचतान में उलझी सत्ताधारी कांग्रेस से इस कार्यकाल में ऐसी कई ग़लतियां हुईं जिनके लिए भाजपा उसे बड़े स्तर पर घेर सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ जबकि भाजपा की खासियत ही मजबूत विपक्ष होना है. ताजा मामला परिवहन विभाग के अधिकारियों पर एसीबी की कार्यवाही से जुड़ा है. इससे पहले प्रदेश में बिजली दर में बढ़ोतरी पर भी भाजपा की तरफ़ से कोई प्रभावशाली विरोध देखने को नहीं मिला. बीते एक साल में भाजपा ने कुछ आंदोलन किए भी तो वे संगठन के बजाय किसी नेता विशेष के होकर रह गए. राजस्थान में भाजपा के सभी नेता एक जाजम पर सिर्फ़ तब नज़र आए जब बीते दिसंबर केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के नेतृत्व में जयपुर में सीएए के पक्ष में एक रैली आयोजित की गई थी.’
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार राकेश गोस्वामी इससे जुड़े अन्य पहलुओं की तरफ़ हमारा ध्यान ले जाते हुए कहते हैं, ‘ये सही है कि 200 विधायकों के सदन में से 72 सदस्य वाली भाजपा अपेक्षित विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रही है. लेकिन इससे पार्टी को कोई ख़ामियाज़ा उठाना पड़ेगा, कहना जल्दबाजी होगा. कांग्रेस के पास पूर्ण बहुमत है और चुनाव में अभी चार साल का समय है.’ गोस्वामी के शब्दों में, ‘हर पांच साल में सत्ता बदल देने वाले राजस्थान में विपक्षी दलों के उस हद तक निष्क्रिय रहने की रवायत रही है कि उनके अस्तित्व पर संदेह होने लगता है. भाजपा के पिछले कार्यकाल में अशोक गहलोत विधानसभा में नहीं आते थे और अब राजे सदन से अनुपस्थित रहती हैं. शायद ये दोनों ही नेता मानते हैं कि उनके बिना राजस्थान में उनके दलों का निबाह मुश्किल है.’
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