निर्देशक - बिष्णु देव हल्दर
कलाकार - दिव्येंदु शर्मा, श्वेता बासु प्रसाद, शीतल ठाकुर, आकाश दाभाडे
रेटिंग - 2.5/5
आपातकाल से जुड़ी चर्चाओं में हमेशा ही नसबंदी अभियान का जिक्र आता रहा है. इसमें बताया जाता है कि कैसे सरकारी टारगेट को पूरा करने के लिए बगैर सोचे-समझे जबरन लोगों की नसबंदियां कर दी गई थीं. इसका शिकार होने वालों में कई ऐसे लोग भी शामिल थे जिनकी उस समय शादी तक नहीं हुई थी. ज़ी-फाइव पर उपलब्ध ‘शुक्राणु’ ऐसे ही एक युवा को अपना नायक बनाती है .
‘शुक्राणु’ से पहले इमरजेंसी पर आधारित फिल्मों में, या तो नसबंदी से जुड़ी घटनाओं को एक-दो दृश्यों मे सीमित किया जाता रहा है या फिर यह छिछले हास्य का विषय बनता रहा है. यहां पर खास यह है कि फिल्म इसके आसपास हास्य रचती भी है तो इस बात के लिए थोड़ी संवेदनशीलता बरतती दिखती है कि कैसे इससे जिंदगियां बदलीं या बरबाद हुईं. इसके चलते, यह बात भी याद आती है कि इमरजेंसी के दौरान नसबंदी का शिकार हुए कुछ लोग आज भी दुनिया में हैं जो शायद अपनी-अपनी कहानियां छिपाए बैठे होंगे. भले ही इनकी गिनती न के बराबर हो, लेकिन इनके बारे में यह सोचना आपको अजीब सी अनुभूति से भर देता है कि अगर कभी न्याय देने की बात आए वह इन लोगों को कैसे दिया जा सकेगा! हालांकि शुक्राणु इस बात को गहराई से महसूस करवा पाने में सफल नहीं हो पाती है.
कहानी पर आएं तो शादी से दो दिन पहले जबरन नसबंदी का शिकार होने वाला नायक, शादी के बाद गर्भवती हो जाने वाली उसकी पत्नी और नायक के मैरिटल स्टेटस से अंजान प्रेमिका मिलकर इस कॉमिक कथा का प्रेम त्रिकोण रचते हैं. इन किरदारों को अच्छी तरह स्थापित करने के बाद फिल्म दूसरी समझदारी यह करती है कि अस्सी के दशक के मूल्यों को खुद में शामिल करती है और उन्हीं के मुताबिक फिल्म के ट्विस्ट रचती है. इसके अलावा, उस टाइम पीरियड को भी यहां पर काफी विश्वसनीय तरीके से रिक्रिएट किया गया है. हेयर स्टाइल और कपड़ों के प्रिंट से लेकर घर-सिनेमाहाल, बाइक-स्कूटर तक कई ऐसी चीजें फिल्म में शामिल हैं जो नॉस्टैल्जिया जगाने का काम भी बखूबी करती हैं. इसके चलते, शुक्राणु तब भी अझेल नहीं होने पाती है जब यह अपने प्रेडिक्टेबल कथानक को काफी धीमी रफ्तार से स्क्रीन पर आने देती है.
अभिनय पर आएं तो नायक इंदर की भूमिका में दिव्येंदु शर्मा एट्टीज के उस हीरो की याद दिलाते हैं जो एक खास रंग की यूनिफॉर्म पहनकर, साइकिल कैरियर पर टिफिन बांधकर, हमेशा (दफ्तर नहीं) फैक्ट्री जाया करता था. दिव्येंदु का अस्सी के जमाने की ऐसी घिसी-पिटी तस्वीर दिखाया जाना थोड़ा खटकता है लेकिन वे इस हिस्से को जिस तरह से निभाते हैं, वह इसमें रोचकता डाल देता है. ज्यादातर वक्त वे अपने किरदार में सधा हुआ काम ही करते हैं लेकिन खीझने या दुखी होने वाले कुछ दृश्यों में वे विश्वसनीय नहीं लग पाते हैं. उनके दोस्त की भूमिका में आकाश दाभाडे भी ठीक-ठाक कहा जा सकने वाला अभिनय करते हैं और खुद को मिले मज़ेदार संवादों के चलते कई बार हंसी छूटने की वजह भी बनते हैं.
वहीं, इंदर की पत्नी की भूमिका में श्वेता बासु प्रसाद गुज़रे जमाने की भोली-भाली भारतीय नारी को सुघड़ता से सामने लाती हैं. वे फिल्म में लगातार दर्शनीय बना रहने वाला एकमात्र किरदार हैं और क्लाइमैक्स के कुछ दृश्यों में लाजवाब करने वाला अभिनय करती हैं. इसके अलावा, इंदर की प्रेमिका की भूमिका निभाने वाली शीतल ठाकुर भी बढ़िया काम करती हैं. जबरन सीधेपन का नक़ाब ओढ़ने वाली, चुलबुली लड़की का किरदार निभाते हुए वे अपनी तरफ से उसे कुछ ऐसी बारीकियां देती हैं जिनसे आज की पीढ़ी भी कनेक्ट कर सकती है.
बाकी पक्षों की बात करें तो फिल्म की प्रोडक्शन क्वालिटी ऐसी है कि आपको एट्टीज में होने का यकीन हो जाता है लेकिन सिनेमैटोग्राफी बहुत अच्छी न होने के चलते इसकी खूबसूरती खुलकर बाहर नहीं आ पाती है. लिखाई पर आएं तो इसकी पटकथा तो औसत है लेकिन फिल्म के संवाद, खास कर उनमें इस्तेमाल हुए कुछ खास शब्द और उन्हें बोलने का तरीका उस दौर की पहचान करवाने में सफल होते हैं. इसके अलावा, एक अच्छी बात यह है कि पुराने मिज़ाज वाला इसका सुरीला संगीत ध्यान खींचने में सफल होता है. यहां पर ‘ख्वाब है या हकीकत’ जैसे औसत बोलों वाले गीत को भी अभिजीत भट्टाचार्य की आवाज़ में सुनना खुशी देता है. साथ ही, इस बात का अफसोस करने की याद भी दिलाता है कि वे अब फिल्मों में नहीं गाते हैं.
आज के दौर में, जब आपातकाल अक्सर चर्चा का विषय बना रहता है, ‘शुक्राणु’ अगर शुद्ध राजनीतिक-सामाजिक टिप्पणी करती तो शायद ज्यादा चर्चा बटोरती. लेकिन फिलहाल, यह थोड़ा ज्यादा मानवीय होकर आपकी थोड़ी सी तारीफ की हक़दार बन जाती है. कुल मिलाकर, शुक्राणु मनोरंजन का हैवी डोज तो नहीं दे पाती है लेकिन अगर आपके पास ज़ी5 का सब्सक्रिप्शन है तो इसे देख लेने में कोई बुराई भी नहीं है.
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