जब नरेंद्र मोदी सरकार के प्रदर्शन की बात होती है तो उसे सबसे ज्यादा आर्थिक मोर्चे पर घेरा जाता है. आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी जैसे सवालों पर आलोचना होती है तो सरकार उसका आक्रामक बचाव करती है. भारतीय अर्थव्यवस्था के इस साल भी नरम रहने के कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के आकलन के बाद माना जा रहा था कि मोदी सरकार आर्थिक सुधारों के मोर्चे पर तेजी से काम करेगी. लेकिन, मोदी सरकार के हाल में आये बजट में आर्थिक सुधारों को लेकर कोई बहुत तेजी नहीं दिखाई गई. आर्थिक जानकार मानते हैं कि मोदी सरकार अब आर्थिक मामलों में करीब-करीब संरक्षणवादी रूख ले चुकी है. यहां संरक्षणवाद का मतलब है इस तरह की नीतियां बनाना जो आयात को हतोत्साहित करें.

इसके कारणों पर चर्चा और इसके सामाजिक राजनीतिक पक्ष को विश्लेषित करने से पहले भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आर्थिक विचारधारा पर चर्चा कर लेते हैं. आरएसएस की पूरी आर्थिक सोच स्वदेशी के इर्द-गिर्द घूमती है. यानी घरेलू उद्योगों को तरजीह, विदेशी पूंजी और व्यापार से परहेज. राजनीतिक विश्लेषक तंज के तौर पर कहते भी रहे हैं कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जिसकी सामाजिक विचारधारा दक्षिणपंथी है और आर्थिक विचारधार वामपंथी. हालांकि, संघ के विचारक इसके बचाव में कहते रहे हैं कि वह राजकीय संरक्षणवाद के बजाय घरेलू उद्योग और कारोबार को प्रमुखता देता है.

आरएसएस की यह आर्थिक वैचारिकी कांग्रेस के समाजवाद के समांतार चलती रही. चूंकि, पहले सत्ता में आरएसएस का दखल नहीं था, इसलिए स्वदेशी एक सामाजिक अभियान भर था. कांग्रेस अपनी गरीब समर्थक सरकारी समाजवादी नीतियों के की तुलना में आरएसएस की आर्थिक विचारधारा को ‘सेठ और बनिया’ वाली सोच के तौर पर प्रचारित करती रहती थी.

लेकिन, 1991 में उदारीकरण वाली आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अर्थव्यवस्था को लेकर होने वाली बहसें बदलनी लगीं. मोटे तौर पर सरकारी नीतियों में आर्थिक सुधार के कार्यक्रम नजर आने लगे. आर्थिक सुधारों के विरोध के भी तरीके बदलने लगे. पहले जहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का ही विरोध किया जाता था, वहां अब विरोध इस बात का होने लगा कि विदेशी निवेश का प्रतिशत कितना होना चाहिए.

पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते उदारीकरण की शुरुआत की थी, इसलिए कांग्रेस के इसे अस्वीकारने की कोई बात ही नहीं थी. बाद में आई गठबंधन सरकारों में भी आर्थिक सुधार के कार्यक्रम थोड़े-बहुत आगे ही बढ़े.

इसी दौरान आई भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार. आर्थिक जानकार वाजपेयी सरकार का मूल्यांकन तेज आर्थिक सुधार करने वाली सरकार के तौर पर करते हैं. बहुत से आर्थिक विश्लेषक अटल के प्रधानमंत्रित्व काल को भारत में आर्थिक सुधारों के सबसे तेज दौर के तौर पर देखते हैं. इस दौर में भारत के घरेलू बाजार तेजी से खोले गए, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ी और तमाम व्यवस्थागत सुधार हुए.

सवाल उठता है कि गठबंधन सरकारें चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने जब आर्थिक सुधारों के कार्यक्रम तेजी से चलाये तो उनके मुकाबले और मजबूत जनादेश लेकर नरेंद्र मोदी आर्थिक सुधारों को इतनी तवज्जो क्यों नहीं दे रहे हैं? क्या आर्थिक नीति को लेकर उनके विचार पहले की भाजपा सरकार से अलग हैं? या मोदी की भाजपा अपने बलबूते पर लाए जनादेश से आरएसएस की स्वदेशी लॉबी की नीतियों को तरजीह दे रही है. अगर अटल बिहारी वाजपेयी अपने सीमित जनादेश और संघ की स्वदेशी आर्थिक विचारधारा के बावजूद आर्थिक सुधार की राह पर इतनी तेजी से चल सकते थे तो मोदी सरकार वैसा क्यों नहीं कर रही?

इन सवालों के जवाब आसान नहीं है. आर्थिक जानकारों के लिए भी यह एक गुत्थी की तरह है कि मोदी सरकार का रूख आर्थिक मोर्चे पर संरक्षणवादी क्यों है? विश्लेषक इसकी बहुत सी वजहें मानते हैं. इनके मुताबिक, भाजपा जब अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में सत्ता में आई थी, तब परिस्थितियां कुछ अलग थीं. इनके मुताबिक, वाजपेयी ने हमेशा केंद्र की संसदीय राजनीति की थी. उसके अनुभव और संपर्कों के चलते वाजपेयी ने अपनी जो कोर टीम चुनी वह अलग तरीके की थी. आर्थिक जानकारों के मुताबिक ऐसा जिस भी वजह से हुआ हो, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के सलाहाकारों में ऐसे लोग थे, जिनका झुकाव थोड़ा दक्षिणपंथी भले ही रहा हो, लेकिन नीतियों के मोर्च पर उनकी एक स्वतंत्र सोच थी. वाजपेयी के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह जैसे लोग रहे जो किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के बजाय उदार रवैया रखते थे. वाजपेयी की टीम में अरूण शौरी जैसे लोग आर्थिक सुधारों के समर्थक भी रहे. उनके समय में इन मंत्रालयों को खुलकर काम करने की छूट मिली, जिसका असर तब की नीतियों पर भी दिखता है.

आर्थिक जानकार मानते हैं कि इसके उलट नरेंद्र मोदी गुजरात से उभरे और एकाएक राष्ट्रीय पटल पर छा गए. चुनावों में भारी बहुमत से जीत के बाद दिल्ली में उनके सामने सरकार चलाने के लिए टीम बनाने की चुनौती थी. राजनीतिक तौर पर उन्होंने अमित शाह के नेतृत्व में इस काम को सफलतापूर्वक किया था. लेकिन, केंद्र की सरकार के मोर्चे पर ऐसा करना आसान नहीं था.

जानकार मानते हैं कि ऐसे में मोदी सरकार में नौकरशाहों का दबदबा बना. सरकार चलाने के मॉडल में मंत्रियों से ज्यादा नौकरशाहों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में वित्त मंत्री अरुण जेटली केंद्र की राजनीति में रमे खुली सोच वाले लोगों में थे. उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भरोसेमंद भी माना जाता था. जानकारों के मुताबिक, आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन के कार्यकाल विस्तार के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सहमत भी कर लिया था. लेकिन, जब स्वदेशी लॉबी की ओर से उनका तीखा विरोध शुरु हुआ तो प्रधानमंत्री ने उनका साथ नहीं दिया. आखिरकार रघुराम राजन को जाना पड़ा. मोदी सरकार में पहले आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम भी अरुण जेटली के पसंदीदा अर्थशास्त्रियों में थे. लेकिन बाद में उन्होंने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया. मोदी सरकार द्वारा बनाये गए नीति आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने भी आखिरकार अपना पद छोड़ दिया. जानकार, इन अर्थशास्त्रियों के पद छोड़ने की वजह यह मानते हैं कि मोदी सरकार पीएमओ केंद्रित सरकार है और नीतियों के मामले में पीएमओ से इतर राय को जगह मिलना मुश्किल था. ऐसे में इन लोगों को नीति निर्माण में अपनी भूमिका सीमित लगने लगी थी.

आर्थिक विश्लेषक मानते हैं कि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में नोटबंदी का फैसला इस बात का उदाहरण है कि इस सरकार में आर्थिक विषयों पर बहुत सुसंगत चर्चा के बजाय सामान्य या लोक-लुभावन सोच को तरजीह दी गई. जबकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में आर्थिक फैसले लेने के लिए जो लोग जिम्मेदार थे, उन्हें पूरी स्वतंत्रता थी.

वाजपेयी सरकार के दौरान सत्ता के गलियारे में ऐसे काफी लोग थे जो सामाजिक-आर्थिक नीतियों में उदारीकरण के समर्थक थे. जानकार मानते हैं कि नीतिगत परामर्श में संघ के बौद्धिक खेमे के लिए उस समय भी गुंजाइश तो थी लेकिन सरकार उसके दबाव में नहीं आती थी. लेकिन, अपने बलबूते सत्ता में आई मोदी सरकार में संघ दीक्षित लोगों का प्रभाव साफ नजर आता है. विश्लेषक मानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सोच में आर्थिक उदारीकरण के विरोधी हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता, लेकिन इन मामलों में वे संघ समर्थक स्वदेशी लॉबी की अनदेखी भी नहीं करते.

इसका नतीजा यह है कि आर्थिक नीतियों का लंबे समय से चला आ रहा सहज प्रवाह तो आर्थिक सुधारों की तरफ है, लेकिन उसे और गति देने के बजाय बीच-बीच में झटके दिए जाते रहते हैं.

यह तो साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार अर्थशास्त्रियों से घिरे रहना पसंद नहीं करती है. वह आर्थिक मामलों से जुड़ी नीतियों के प्रभाव पर चर्चा के बजाय अपनी योजनाओं के क्रियान्यवयन चाहती है. उज्जवला, आवास योजना, शौचालय जैसी लोक कल्याणकारी योजनाओं पर सरकार का फोकस इसे बताता है. जानकारों के मुताबिक, इस मामले में सरकार इस सोच के साथ काम करती है कि इससे समाज के कमजोर तबके का सशक्तीकरण तो होगा ही, ये योजनायें राजनीतिक लिहाज से भी फायदेमंद रहेंगी. लगातार चुनावी सफलताओं ने सरकार की इस धारणा को मजबूत ही किया है. इसके उलट अगर बढ़ती बेरोजगारी जैसी समस्या पर सरकार को घेरा जाता है तो वह स्वरोजगार और मुद्रा लोन के उदाहरण देती है.

राष्ट्रीय सुरक्षा, धारा 370 जैसे मुद्दों पर सरकार की नीति में स्पष्टता भी है और संगति भी. लेकिन कई जानकारों को लगता है कि आर्थिक मोर्चे पर यह स्पष्टता नजर नहीं आती है. विश्लेषक मानते हैं कि मोदी सरकार की इन प्राथमिकताओं की वजह भी है. पहले भाजपा को मोटे तौर पर एक मध्यमवर्गीय आधार और ऊंची जाति वाली पार्टी के तौर पर देखा जाता था. लेकिन, मौजूदा भाजपा ने इस आधार में तेजी से विस्तार किया है. राष्ट्रीय सुरक्षा, कश्मीर से धारा 370, सीएए, घुसपैठ जैसे मुद्दों से मोदी सरकार मध्यमवर्ग में अपनी समर्थन बनाये रखती है और कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्यवयन के जरिये वह गरीब मतदाताओं में अपनी पहुंच बढ़ा रही है. अब तक मोदी सरकार का यह तरीका चुनावी नतीजों के लिहाज से ठीक ही रहा है, ऐसे में सरकार को इस तरह की आलोचनाओं से बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि आर्थिक मंदी है या गिरती आर्थिक वृद्धि को तेज करने के लिए सरकार कुछ कर नहीं रही है.

लेकिन, धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति संरक्षणवाद में बदल रही है और आगे भारत की आर्थिक नीतियां कैसी होंगी, इसको लेकर अस्पष्टता है. अगर टेलीकॉम सेक्टर को ही लें तो सुप्रीम कोर्ट के एजीआर चुकाने के फैसले के बाद इस तरह की चर्चायें हैं कि वोडाफोन-आइडिया अपना कारोबार बंद कर सकती है. मुक्त व्यापार समझौतों से अलग हटने का भी दौर दिख रहा है. आरसेप में खुद प्रधानमंत्री ने भारत के बाहर रहने की घोषणा की, उसके बाद सरकार के मंत्री मुक्त व्यापार समझौतों से होने वाले नुकसानों के बारे में बता रहे हैं. अमेजॉन के मुखिया जेफ बेजोस के भारत में विदेशी निवेश की घोषणा की बात पर वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने यहां तक कह दिया कि वे भारत में निवेश कर कोई अहसान नहीं कर रहे हैं. इसके पीछे वजह यह बताई जा रही है कि भाजपा अपने पुराने समर्थक वर्ग खुदरा व्यापारियों की नाराजगी दूर करने के लिए ऐसा कर रही है. कुछ जानकार इसे भाजपा के पारंपरिक वणिकवाद की ओर लौटने के तौर पर भी देखते हैं.

आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के समर्थन और विरोध में बहस पुरानी है. लेकिन, यह भी साफ है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ ताल से ताल मिलाकर चलने के लिए इन नीतियों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है. भारत में भी उदारीकृत आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ है. ऐसे में मोदी सरकार का संरक्षणवाद की ओर लौटना क्या सही है?