नागौर ज़िले की खींवसर तहसील का तांतवास गांव. रेत के छोटे-मोटे धोरों और खेतों के बीच बने इकलौते घर से रह-रह कर सात महीने की किरण (बदला हुआ नाम) के रोने की आवाज़ आ रही है. यहां मौजूद महिलाएं बताती हैं कि ‘किरण की मां सोहनी ने तीन-चार दिन से कुछ खाया-पिया नहीं है, इसलिए उन्हें दूध नहीं उतर रहा है. किरण ऊपर का दूध नहीं पीती, सो वह कल से ही भूख के मारे रोए जा रही है.’
किरण विसाराम/विसालाराम की बेटी है जिनके साथ बीती 16 फरवरी को कुछ लोगों ने चोरी के इल्ज़ाम में घंटों तक बर्बरता से मारपीट की और उनके गुप्तांग में पेट्रोल डाल दिया. बाद में इस घटना का वीडियो वायरल हो गया था. विसा के पिता जगदीश राम बताते हैं, ‘विसा (24 वर्ष) और उसका चचेरा भाई पन्नाराम (20 वर्ष) अपनी बाइक की सर्विस करवाने नज़दीकी करनू गांव में एजेंसी पर गए थे. वहां उनसे मोटरसाइकिल की दो बकाया किश्तों को लेकर तक़ाज़ा किया गया जिस पर मेरे बेटे ने फसल बिकने के बाद ब्याज सहित पूरी रकम चुकाने की बात कही. लेकिन वे लोग नहीं माने और कहा-सुनी बढ़ने पर उन्होंने इस वारदात को अंजाम दे दिया.’

जगदीश राम आगे जोड़ते हैं, ‘एजेंसी वालों ने हमारे पड़ोसी जेठू सिंह और अर्जुन सिंह को फ़ोन कर के जानकारी दी कि विसा ने वहां चोरी की है. तब वे लोग मेरे सबसे बड़े बेटे को लेकर एजेंसी पहुंचे. वहां उनसे हर्जाने के तौर पर 5100 रुपए की मांग की गई. अर्जुन सिंह और जेठू सिंह ने वो राशि चुकाने की गारंटी लेकर जैसे-तैसे विसा और पन्ना को वहां से छुड़वाया. लेकिन उन्हें किसी ने इस घटना के बारे में कुछ नहीं बताया. हमारे बच्चों ने भी नहीं. वो तो दो दिन बाद वीडियो देखने के बाद हमें पता चला.’
ऐसे मामलों में पीड़ितों की चुप्पी से जुड़े कारणों की चर्चा करते हुए वरिष्ठ सामाजशास्त्री राजीव गुप्ता बताते हैं, ‘भारतीय गांव और कस्बों में शक्ति संबंधों का गठजोड़ है जो कभी जाति से, कभी धर्म से, कभी राजनीतिक दलों और कभी अपराधियों की मदद से मजबूत बना रहता है. शहरों की बात करें तो इस फेहरिस्त में उद्योगपति भी जुड़ जाते हैं. जब आरोपित प्रभावशाली समुदायों से ताल्लुक रखते हैं तो अक्सर उनके साथ उनका पूरा समुदाय भी खड़ा हो जाता है. इसी पूरे गठजोड़ का डर इन दलित बच्चों के ज़ेहन में गहराई तक घर कर गया होगा.’
यहां चौंकाने वाली बात ये रही कि 18 फ़रवरी की शाम तक घटना का वीडियो इलाक़े में वायरल हो चुका था. लेकिन पीड़ित और उनके परिजनों ने ही नहीं बल्कि किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता या संगठन की तरफ़ से इस मामले में मुक़दमा दर्ज नहीं कराया गया. मिली जानकारी के अनुसार इस घटना पर पुलिस ने 19 तारीख़ को स्वत: सज्ञान लेते हुए कार्रवाई की. रिपोर्ट लिखे जाने तक इस मामले में सात लोगों को गिरफ़्तार किया जा चुका था जिनमें से छह राजपूत समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं. इनमें से मुख्य आरोपित हनुमान सिंह समेत तीन लोग एक ही परिवार के हैं.
ख़ुद कार्रवाई करने के बावज़ूद करनू प्रकरण में पुलिस की भूमिका पर बड़े सवाल खड़े किए जा रहे हैं. आरोप हैं कि वीडियो सामने आने के बाद भी पुलिस ने राजनीतिक हस्तक्षेप होने तक इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया. इल्ज़ाम यह भी हैं कि स्वजातीय होने की वजह से संबंधित पचौड़ी थानाधिकारी ने आरोपितों की मदद की कोशिश की और पीड़ितों पर समझौता करने का दवाब बनाया था. स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि इस मामले में पीड़ितों की तरफ से मामला दर्ज होने के बाद दूसरे पक्ष ने भी चोरी का मामला दर्ज कराया था. इसके बाद पुलिस ने पीड़ितों को तो थाने में रोक लिया, जबकि आरोपितों को छोड़ दिया था. सूत्रों की मानें तो शुरुआत में पुलिस ने आरोपितों पर कमजोर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया था, जिन्हें बाद में विवाद बढ़ता देख बदल दिया गया.
पचौड़ी थानाधिकारी राजपाल सिंह इस बारे में ऑन रिकॉर्ड कुछ भी कहने से इन्कार करते हैं. जबकि सत्याग्रह से हुई बातचीत में नागौर एसपी विकास पाठक दलील देते हैं कि ‘मामला सामने आने पर पुलिस ने आगे बढ़कर सभी आरोपितों को तुरत-फुरत गिरफ़्तार कर लिया. अगर थानाधिकारी ढिलाई बरतते तो शायद एक-दो आरोपित ही पकड़ में आते और बाकियों को भागने का मौक़ा मिल जाता. पीड़ितों को थाने में सिर्फ़ इसलिए रोका गया ताकि उनका मेडिकल कराया जा सके… फिर भी विभागीय जांच चल रही है, दोषी के ख़िलाफ़ उचित कार्यवाही की जाएगी.’

करनू मामले में पुलिस ही नहीं राजस्थान सरकार भी कटघरे में दिखती है. संवेदनशील घटना होने के बावजूद अशोक गहलोत सरकार की तरफ़ से इस पर तब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, जब तक कि 20 फ़रवरी को कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस पर ट्वीट करते हुए सख्त कार्रवाई की मांग नहीं की. लेकिन यह पहली बार नहीं था जब गहलोत सरकार ने दलितों के प्रति अपने असंवेदनशील रुख का परिचय दिया हो, अपने सवा साल के कार्यकाल में वह इससे पहले भी कई मौकों पर ऐसा कर चुकी है.
वहीं, सूबे के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट ने पीड़ितों के प्रति संवेदना तो ज़ाहिर की, लेकिन जिस तरह से उन्होंने अपनी ही सरकार पर उंगली उठाई, उसे लेकर विश्लेषकों का मानना है कि पायलट ने इस घटना का भी इस्तेमाल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से चल रही अपनी खींचतान के बीच एक मौके के तौर पर ही किया.
करनू प्रकरण की कवरेज के दौरान हमारा सामना कुछ ऐसे पहलुओं से भी हुआ जो किसी भी लिहाज से इस घटना से कम आक्रोशित या चिंतित करने वाले नहीं थे. 21 फ़रवरी की शाम को तांतवास पहुंचते ही हमारा सामना दिल्ली के पूर्व विधायक संदीप वाल्मीकि से हुआ. अपने आस-पास मौजूद अपने समर्थकों और लोगों के झुंड को संबोधित करते हुए वे कह रहे थे, ‘शुक्र है कि वो (आरोपित) हमारे सामने नहीं हैं नहीं तो उन मा***** के साथ हम कुछ और ही करते.’ इससे थोड़ी ही देर पहले वाल्मीकि ने पूरे सामान्य वर्ग को चेतावनी देते हुए लाइव वीडियो में कहा था, ‘अगर वो हमारे सामने आ जाएं तो हम उन हरामजादों की खाल खा जाएं, कच्चा चबा जाएं…’
ज़ाहिर तौर पर वाल्मीकि वहां मौजूद लोगों को कुछ उसी तरह के अमानवीय और ग़ैरक़ानूनी कृत्य करने के लिए उकसा रहे थे जैसा कि विसाराम और पन्ना ने झेला था. तांतवास में इस तरह की बयानबाज़ी करने वाले संदीप वाल्मीकि कोई अकेले नेता नहीं थे. 21 फ़रवरी को वहां कई लोग इसलिए भी मौजूद दिखे क्योंकि वे अपने चहेते नेताओं के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते थे. उस दिन विसाराम और पन्ना से मिलने के लिए राजस्थान के राजस्व मंत्री हरीश चौधरी, प्रदेश के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल और पूर्व सांसद डॉ ज्योति मिर्धा समेत करीब आधा दर्जन बड़े नेता वहां आए हुए थे. इसी तरह भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ से केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल और प्रदेश के पूर्व मंत्री व विधायक मदन दिलावर के नेतृत्व में प्रतिनिधि मंडल ने भी पीड़ितों से मुलाकात की. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के स्थानीय विधायक नारायण बेनीवाल भी वहां पहुंचे थे.
पत्रकारों से हुई बातचीत में केंद्र की मोदी सरकार पर अप्रत्यक्ष रूप से हमला बोलते हुए हरीश चौधरी का कहना था कि यदि राजस्थान सरकार द्वारा विधानसभा में पारित किए गए मॉब लिंचिंग क़ानून को राष्ट्रपति द्वारा मंज़ूरी मिल चुकी होती, तो इस मामले में आरोपितों को सख़्त सज़ा दिलाई जा सकती थी. लेकिन जब उनसे हमने पूछा कि ‘ऐसा क्यों हुआ कि घटना के पांच दिन बाद दिल्ली में बैठे राहुल गांधी को पहले जानकारी मिल गई, और राजस्थान सरकार को बाद में?’ इस पर जवाब मिला कि ‘सरकार कल तक बजट सत्र में उलझी हुई थी. आज हम यहां हैं.’

वहीं, एक वरिष्ठ दलित नेता होने के बावज़ूद मास्टर भंवरलाल मेघवाल की प्रतिक्रिया और भी निराश करने वाली थी. जब सत्याग्रह ने उनसे पूछा कि ‘राजस्थान में दलितों की सुरक्षा के लिए एसटी/एससी अत्याचार निवारण अधिनियम- 1995 के (नियम-16 के) तहत एक उच्च स्तरीय सतर्कता एवं निगरानी समिति का गठन किया जाना निर्देशित था, जिससे जुड़ी कोई बैठक 2012 के बाद से नहीं हुई है. आपकी सरकार ये बैठक कब करेगी?’ इस पर मेघवाल का जवाब था कि ‘सरकार बनने के बाद से मेरे नेतृत्व में अब तक इस समिति की तीन बैठकें की जा चुकी हैं.’ जब हमने नियमों के हवाले से मेघवाल को अवगत कराने की कोशिश की कि इस समिति की बैठक की अध्यक्षता मुख्यमंत्री को करनी होती है, तो उन्होंने इसे नकार दिया.
राजस्थान के दलित-सामाजिक कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ भंवरलाल मेघवाल ने अपने जवाब में ग़लत जानकारी साझा की थी, क्योंकि प्रदेश की पिछली वसुंधरा राजे सरकार (2013-18) की ही तरह मौजूदा कांग्रेस सरकार ने भी ऐसी कोई बैठक नहीं बुलाई है. सामाजिक कार्यकर्ता एवं अधिवक्ता ताराचंद वर्मा हमें बताते हैं, ‘मंत्री मेघवाल जिन बैठकों की बात कर रहे थे वह अनुसूचित जाति उपयोजना के अंतर्गत गठित स्टीअरिंग कमेटी से जुड़ी थीं. ये कमेटी आबादी के लिहाज़ से एससी वर्ग के लिए बजट का एक हिस्सा सुनिश्चित करती है और उसकी प्लानिंग का काम करती है. लेकिन इसका दलितों पर होने वाले अत्याचार या उसके निवारण से कोई सरोकार नहीं होता है.’
इस उच्च स्तरीय सतर्कता एवं निगरानी समिति के गठन को लेकर हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाने वाले ‘दलित मानव अधिकार केंद्र’ के निदेशक व अधिवक्ता सतीश कुमार भी ऐसी ही बात दोहराते हैं. वे कहते हैं, ‘हाईकोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने इस कमेटी का गठन तो कर दिया, लेकिन इसकी एक भी बैठक आज तक नहीं हुई है. जबकि सरकार हर छह महीने में ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध है.’ हमसे हुई बातचीत में सतीश कुमार भी इस बात को पुख़्ता करते हैं कि मुख्यमंत्री इस कमेटी का अध्यक्ष और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री सदस्य होता है.
लेकिन मास्टर भंवरलाल मेघवाल की ग़लतबयानी यहीं नहीं थमी. जब वे दलितों के प्रति अपनी सरकार के संवेदनशील होने का दम भर रहे थे, तब एक पत्रकार साथी ने सवाल दागा कि ‘पांच साल पहले हुए डांगावास कांड के सभी पीड़ितों को न तो पूरी सहायता राशि मिली है और न ही उनका पुनर्वास हुआ है.’ इस पर उखड़ते हुए मेघवाल का जवाब था कि ‘वो काम दूसरा है. अभी यहीं की बात करो.’ यह कहकर उन्होंने पत्रकार वार्ता को वहीं छोड़ दिया.
बता दें कि 2015 में डांगावास में जाट समुदाय से ताल्लुक़ रखने वाले सैंकड़ों हथियारबंद लोगों ने जमीन विवाद के चलते दलित परिवारों पर हमला बोल दिया था. दलित-सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी के मुताबिक ‘डांगावास में दलितों को ट्रेक्टरों से कुचला गया, जलती लकड़ियों से उनकी आंखें फोड़ दी गईं, पुरुषों के लिंग नोच लिए गए जबकि महिलाओं के साथ ज्यादती कर उनके गुप्तांगों में लकड़ियां घुसेड़ दी गईं.’ मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि डांगावास में पांच दलितों समेत छह लोगों की हत्या कर दी गई थी और कई अन्य गंभीर रूप से घायल हुए थे.
यह चिंताजनक है कि बीते कुछ वर्षों के दौरान नागौर जिले में दलित उत्पीड़न की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. 2017 के पुलिस आंकड़ों के मुताबिक अनुसूचित जाति पर अत्याचार के मामले में नागौर राज्य में पांचवा शीर्ष जिला है. इसके बाद के आंकड़ों को राजस्थान की पुलिस ने अभी तक सार्वजनिक नहीं किया है. वहीं, पूरे भारत में राजस्थान दलित उत्पीड़न के लिहाज से चौथे स्थान पर है. राष्ट्रीय राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए 2018 के आंकड़ों के मुताबिक राजस्थान में दर्ज किए गए कुल अपराधों में से 37.7 प्रतिशत अपराध अनुसूचित जाति के ख़िलाफ़ किए गए थे. ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2018 में पूरे देश में दलितों के विरुद्ध हुई वारदातों में से 10.8 फीसदी अकेले राजस्थान में घटी थीं.
दलितों को लेकर राजस्थान में शासन और प्रशासन की लापरवाही का ज़िक्र करते हुए सतीश कुमार कहते हैं, ‘गांवों में दलितों पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए ग्राम पंचायत राज एक्ट-1995 के तहत सामाजिक न्याय समितियां बनाए जाने का प्रावधान था. लेकिन दूसरे राज्यों से उलट राजस्थान में इनके गठन को लेकर कभी कोई गंभीरता नहीं बरती गई. इसी तरह ब्लॉक और जिला स्तर पर भी ऐसी कमेटियां बनाने के अलग नियम मौजूद हैं, लेकिन वे भी फाइलों से बाहर नहीं आ पाए.’
इस तरह के मामलों में प्रदेश के राजनेताओं का दोहरा बर्ताव दलितों के जख़्मों पर नमक छिड़कने का काम करता है. दरअसल डांगावास कांड के समय राजस्थान के जाट नेताओं को सांप सा सूंघ गया था और राजपूत नेताओं ने इस पर मोर्चा खोलने में पूरी ताकत झोंक दी थी क्योंकि आरोपित उनके विरोधी माने जाने वाले जाट समुदाय से आते थे. और जब किरनू में राजपूतों ने इस जघन्य वारदात को अंजाम दिया तो सूबे के राजपूत नेताओं के होठ सिले जान पड़ते हैं और सांसद हनुमान बेनीवाल जैसे बड़े जाट नेता इसका मुखरता से विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.
वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी का इस बारे में कहना है कि ‘राजस्थान की राजनीति जातिवाद के दुष्चक्र में बुरी तरह से उलझी हुई है. प्रदेश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों, भाजपा और कांग्रेस के पास कोई जनसंगठन नहीं है, इसलिए उनकी राजनीति पूरी तरह जातीय संगठनों पर आधारित हैं. नेताओं को जातिगत समीकरणों के आधार पर ही टिकट मिलते हैं और वे उसी तरह की राजनीति करते हैं.’

जब हमने विसाराम और पन्नाराम से उनके साथ घटी इस वारदात के बारे में बात की तो उनके चेहरे पर तनाव साफ झलक रहा था. दोनों पीड़ितों का कहना था कि उनके साथ अन्याय हुआ है और जिस तकलीफ़ और तनाव से वे गुज़र रहे हैं, आरोपितों को उससे दोगुनी सजा मिलनी चाहिए. विसाराम यह भी कहते हैं कि उन्होंने चोरी नहीं की थी, उनसे जबरन गल्ला तुड़वाया गया था (हालांकि घटना के एक दिन बाद उन्होंने स्थानीय पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने नशे में चोरी की थी). घटना के बारे में किसी को न बताने के पीछे उनका जवाब था कि ‘आरोपितों की धमकियों ने हमें इतना डरा दिया था कि हम कुछ नहीं बोल सके.’
यहां गौरतलब है कि यह मामला सामने आने के बाद पीड़ित अपने लिए सरकारी नौकरी और मुआवजे की मांग कर रहे थे, ताकि परिवार का पेट पालने में उन्हें दिक्कतों का सामना न करना पड़े. लेकिन राजस्थान सरकार के मंत्रियों से हुई मुलाकात के बाद पीड़ितों ने चौंकाने वाले ढंग से अपने लिए सिर्फ़ न्याय की इच्छा जताते हुए नौकरी व मुआवजे से जुड़ी मांग रखने से इन्कार कर दिया.
बहरहाल, कुछ घंटे बिताकर सारे नेता और भीड़ तांतवास से चली जाती है. लेकिन इससे पीड़ित परिवार की वेदना कुछ कम नहीं होती दिखती है. बकौल राजीव गुप्ता, ‘ऐसी घटनाओं में पीड़ित को यातना भी झेलनी पड़ती है और मामला सार्वजनिक होने पर उसके मन में अपमान बोध भी घर कर जाता है. इस तरह के लांछन लगने के बाद व्यक्ति की मनोस्थिति बिगड़ जाती है और वह हर तरह के तनाव, कुंठा, निराशा, पृथक्करण और अलगाव का शिकार हो जाता है.’
लेकिन नन्ही किरण इस सबसे बेख़बर है और भूख के मारे अभी तक रोए जा रही है. नेताओं की मौजूदगी में हो रहे शोर-शराबे ने उसकी सिसकियों को दबा दिया था, लेकिन उनके जाने के बाद अब ऐसा नहीं हो पा रहा है. किरण की नानी मोइनी देवी फ़िक्र जताते हुए कहती हैं, ‘इस मासूम का भविष्य सबसे ज्यादा ख़तरे में है. बड़ी होने पर लोग न जाने इस बच्ची से कैसे पेश आएंगे?’
राजीव गुप्ता का इस बारे में मानना है कि ‘इस तरह के हादसों से जुड़े बच्चों को कई तरह की चुनौतियों से जूझना पड़ता है. बड़ी होने के बाद भी इस घटना से जुड़े सवाल किरण का पीछा छोड़ देंगे, कहना मुश्किल है. हो सकता है कि उसे बार-बार याद दिलाया जाए कि उसके पिता के साथ क्या हुआ था! हिंसा सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं बल्कि शाब्दिक भी हो सकती है जिसे झेलते-झेलते बड़े हुए बच्चे अपने या अपने समुदाय पर होने वाले अत्याचार के विरोध में या तो आंदोलनकारी व्यक्तित्व बन सकते हैं, या वो अपना आत्मविश्वास खोकर ऐसे अत्याचारों का सबसे आसान शिकार बन सकते हैं.’

विसाराम और पन्नाराम के साथ हुई घटना का सबसे ज्यादा असर घर की औरतों पर पड़ा है. सदमे की वजह से विसाराम की पत्नी सोहनी कुछ बात कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. उनके साथ बैठी महिलाएं उनसे बार-बार कहती हैं कि वे मीडिया के माध्यम से सरकार से न्याय की मांग करें. लेकिन घूंघट के पीछे दिख रही सोहनी की जड़ आंखों में कोई हलचल नहीं होती. थोड़ी देर बाद वे बिलखते हुए सिर्फ़ इतना कह पाती हैं, ‘मेरे मरद को...’ और चुप हो जाती हैं.
विसाराम की मां गीता देवी की भी कुछ ऐसी ही हालत है. बीते तीन दिन में उनकी तबियत कई बार बिगड़ चुकी है. लेकिन हिम्मत बटोर कर वे अपने परिवेश से ज्यादा गहरी बातें कहती हैं. टूटी-फूटी हिंदी में वे जो कहती हैं, उसका लब्बोलुआब यह है कि ‘...जब औरत के मान पर आंच आती है तो घर के पुरुष उसकी रक्षा करते हैं, लेकिन जिस घर के मर्द का सम्मान ही चोटिल हो गया हो, वो क्या करे? मेरा बेटा इस इलाके में अपनी गुजर-बसर अब कैसे कर पाएगा? इस हालत में उसे अकेले दूसरे शहर भी नहीं भेज सकते.’
एक पक्ष ये भी
इस प्रकरण के मुख्य आरोपित हनुमान सिंह का मकान तांतवास से करीब 20 किलोमीटर दूर मोतीनाथपुरा गांव में है. पुलिस ने हनुमान सिंह के साथ उसके एक भाई भीमसिंह को भी गिरफ़्तार कर लिया है, जबकि एक भाई सवाई सिंह रिपोर्ट लिखे जाने तक फ़रार थे. सवाई सिंह का 19 वर्षीय बेटा रघुवीर सिंह भी पुलिस हिरासत में ही है. आरोपितों के घर पर भी पीड़ितों की तरह सन्नाटा ही पसरा है. घर में सिर्फ़ औरतें और बच्चे हैं.

यहां पर यह बात सुकून देती है कि घर की महिलाएं हनुमान सिंह के कृत्य को एक स्वर में ग़लत और अस्वीकार्य बताती हैं. लेकिन साथ ही वे इस बात से निराशा भी जताती हैं कि सत्याग्रह के सिवाय अभी तक किसी ने भी उनका पक्ष जानने की कोशिश नहीं की. हमें एजेंसी के गल्ले से चोरी करते हुए विसाराम का वीडियो दिखाते हुए वे सवालिया लहजे में कहती हैं, ‘क्या किसी की दिन-रात की मेहनत की कमाई को इस तरह चुरा लेना ठीक है? कानून सब के लिए बराबर है. सभी को अपने-अपने जुर्म की सजा मिलनी चाहिए.’

हनुमान सिंह की पत्नी चंद्र कंवर कहती हैं कि ‘जेठ सवाई सिंह घटना वाले दिन गांव में मौजूद ही नहीं थे, लेकिन इसके बावज़ूद उनका नाम एफआईआर में लिखा दिया गया. अगले कुछ दिनों में नागौर में पंचायत चुनाव होने हैं, इसलिए जाति वाली राजनीति करने के लिए कुछ स्थानीय नेता सवाई सिंह को भी गिरफ़्तार करने का दवाब बना रहे हैं, जो कि सरासर ग़लत है.’
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