36 साल पुरानी यादें कितनी स्पष्ट हो सकती हैं. वह भी उस शख्स की जो तब सिर्फ नौ वर्ष का था. जो उस वक्त एक भीषण नरसंहार का केंद्र रही दिल्ली में नहीं बल्कि वहां से करीब 300 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे में था. जिसका अपना परिवार साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार नहीं हुआ था लेकिन दंगों की लपट जिसने खुद अपनी आंखों से देखी थी.
नवंबर 1984 एक ऐसा कालखंड है जिसने आज़ाद भारत का एक सबसे अंधेरा अध्याय लिखा. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो नस्ली हिंसा का दौर शुरू हुआ उसका केंद्र तो राजधानी दिल्ली थी लेकिन वह नफरत देश के कई हिस्सों में अलग-अलग रूपों में दिखी. दिल्ली में पिछले तीन दिनों से भड़की साम्प्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर 1984 के सिख नरसंहार को चर्चा में ला दिया है. इससे वे धुंधली यादें फिर स्मृतिपटल पर उभर आईं हैं जो बार-बार परछाईं की तरह हमारा पीछा करती हैं.
उत्तराखंड का हल्द्वानी तराई से लगा वह इलाका है जहां सिख समुदाय बड़ी संख्या में है. हल्द्वानी और उसके आसपास रुद्रपुर (अब उधमसिंह नगर), काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, सितारगंज, खटीमा, नानकमत्ता और किच्छा समेत तमाम इलाकों में सिखों की अच्छी-खासी आबादी है. उत्तराखंड में हेमकुंड साहिब, रीठा साहिब और नानकमत्ता जैसे तीन महत्वपूर्ण गुरुद्वारों की कहानी सिख गुरुओं के यहां आने और सिख समुदाय के इस राज्य से जुड़ाव को बताती हैं. आज़ादी के बाद सिखों की एक नई लहर तराई के इलाके में आ बसी. जट-सिखों ने यहां गेहूं, धान, सरसों से लेकर गन्ने की खेती तो की ही व्यापार में भी उनका महत्वपूर्ण हिस्सा बना.
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हल्द्वानी में हुई लूटपाट की यादें मेरे ज़ेहन से मिटी नहीं है. जैसे आज पुलिस दिल्ली में दंगों को रोकने में नाकाम होने के साथ-साथ दंगाइयों के साथ खड़ी दिख रही है. वैसे ही तब भी पुलिस द्वारा दंगाइयों को छूट देने और मूकदर्शक बने रहने की कहानियां राजधानी तक ही सीमित नहीं थी.
हल्द्वानी के बाज़ार में उस दोपहर एक सिख व्यापारी के साइकिल स्टोर पर हमला हुआ. मोटर साइकिल पर पुलिस को आते देख बलवाई ठिठक गये लेकिन पुलिस वाले साइकिल स्टोर के पास से मुस्कुराते हुये निकल गये. भीड़ के लिये यह लूटपाट का लाइसेंस था. उसके बाद मैंने लोगों को दुकानों में लूटपाट करते और भद्दे नारे लगाते देखा.
लोग लूटी गई उन साइकिलों को दौड़ा रहे थे जिन पर गद्दी फिट नहीं की गई थी. साइकिलों पर वे प्रेशर कुकर लटके हुए थे जिनकी सीटी (प्रेशर व्हिसिल) नहीं थी. कोई जूतों के डिब्बे और कोई क्रॉकरी सेट लूट कर ले जा रहा था. रिक्शों पर रेफ्रिजरेटर लादे जा रहे थे. यादें बहुत धुंधली हैं लेकिन मिटी नहीं हैं. शहर में किसी सिख की हत्या नहीं हुई तब भी इंसानियत को बेशर्मी से कुचला जा रहा था. पुलिस होकर भी नहीं थी. जब आई तो उसकी दिलचस्पी जान-माल की सुरक्षा से अधिक लूटे गये सामान को हथियाने में थी.
काफी नुकसान होने के बाद आकाशवाणी से समाचारवाचकों ने दंगों को रोकने की अपील की - ‘सिखों ने भी आज़ादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर हिन्दुओं के साथ खून बहाया है’
लेकिन इस ऐलान के होने तक सिखों का काफी खून बह चुका था और भरोसा लहूलुहान था. साढ़े तीन दशक पुरानी यादें इसलिये कि आज हम एक बार फिर उसी मुहाने पर खड़े हैं. फिर पुलिस मूलदर्शक है और समाज का एक बड़ा हिस्सा आतंकित है. दंगों में प्रतिक्रिया होते देर नहीं लगती और अन्याय का शिकार हमेशा गरीब और कमज़ोर लोग ही होते हैं. हम 1984, 1992 और 2002 के बाद एक और अंधेरा अध्याय हिन्दुस्तान के नाम करने के लिये आतुर क्यों हैं? हम यह समझने के लिये तैयार क्यों नहीं कि समुदायों के खिलाफ बतायी जाने वाली बातें अक्सर वहम को बढ़ाने और नफरत को आधार देने के लिये होती हैं.
तब हल्द्वानी में जेल रोड से लगे एक छोटे से मोहल्ले में माता-पिता, दोस्त और रिश्तेदारों के बीच होने वाली बातचीत अब तक याद है.
“सरदार बदला लेने की तैयारी कर रहे हैं.”
“वो अपने घरों में खाने-पीने का सामान जमा कर रहे हैं. अगले कुछ महीने तक लड़ने की तैयारी है .”
“रात के वक़्त छतों पर पहरा देना होगा.”
याद है कि रात के वक्त पहरे दिये भी गये. मेरे पिता के पास एक बंदूक होने के कारण उनको पहरेदारों की टोली में शामिल होने को कहा गया. यह अविश्वास तब था जब हमारे पिता को सिख परिवारों ने अपने बेटे की तरह पाला. उस वक्त भी हमारे तराई में रह रहे कई सिख परिवारों से आत्मीय रिश्ते थे.
गदरपुर में रहने वाले एक बूढ़े सरदार जगत सिंह मेरे पिता को अपना बेटा कहा करते. उनके बच्चे पापा को भाई साहब कहते और हम उन्हें चाचा और बुआ बुलाते. कड़वाहट के इन कुछ ही हफ्तों के बाद वे गदरपुर से हल्द्वानी हमारे घर आने लगे. जैसे कुछ हुआ ही न हो. अपने नुकसान की आपबीती सुनाने. सगे चाचा-बुआ की तरह.
तो क्या सरदार जगत सिंह का परिवार उन सिखों में नहीं था जो हमसे बदला लेने की तैयारी कर रहा था. या वह अफवाहों और धार्मिक उन्माद के साथ बह आया वहम था जो हमारे दिलो-दिमाग में छा गया था.
अक्सर दंगे कुछ ही घंटों में रोके जा सकते हैं लेकिन उन्हें कुछ दिनों और कई बार हफ्तों तक होने दिया जाता है.
क्यों?
ताकि इसकी सियासी फसल लंबे वक्त तक काटी जा सके. सियासत के लिये समाज में पैदा हुई दरार को चुनावी फिज़ा में बार-बार जिंदा करना आसान होता है.
एक पत्रकार के तौर पर मेरे इनबॉक्स में लगातार दिल दहलाने वाले वीडियो आ रहे हैं. इनकी सत्यता की तुरंत जांच नहीं की जा सकती लेकिन मदद के लिये आ रही गुहार के पीछे कष्ट को समझा जा सकता है. मौजपुर, चांदबाग, मुस्तफाबाद, सीलमपुर और जाफराबाद हमारी शर्म के नये निशान हैं. जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं तो मेरे मोबाइल फोन पर शिव विहार से मदद के लिये कॉल आ रही हैं.
बताने की ज़रूरत नहीं कि न तो 84 के दंगापीड़ितों को न्याय मिला और न गुनहगारों को सज़ा. यही बात 1990 में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिये भी कही जा सकती है जिनके दर्द पर तो शायद न्यायपूर्ण चर्चा भी नहीं हुई. गुजरात, भागलपुर और हाशिमपुरा समेत कई नरसंहार इस लिस्ट में शामिल हो सकते हैं. सभी में एक बात शामिल है. दंगों को समाज के एक हिस्से की बड़ी स्वीकृति होती है और पुलिस की मिलीभगत, जो सत्ता के इशारे के बिना संभव नहीं हो सकती.
आज़ादी के बाद कई दूसरे मौके भी आये जब भारत ने दंगों का वीभत्स रूप देखा. अपनी तमाम बर्बरता के बावजूद वे स्थानीय स्तर तक ही सीमित रहे. लेकिन सोशल मीडिया (ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप और दूसरे माध्यम) के इस दौर में ख़तरे कहीं अधिक विराट हैं. साम्प्रदायिक हिंसा के यूनिवर्सल हो जाने का संकट हज़ार गुना बढ़ गया है. आज दंगे की आग पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण कुछ सेकंडों में पहुंच सकती है. सूचना के इस दौर में ग़लत सूचना के संप्रेषण की व्यापक संभावनायें हैं. हमें इन ख़तरों के बीच ही लोकतंत्र और इंसानियत की रक्षा करनी है.
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