निर्देशक – अनुभव सिन्हा
लेखक – मृण्मयी लागू और अनुभव सिन्हा
कलाकार – तापसी पन्नू, कुमुद मिश्रा, पावेल गुलाटी, रत्ना पाठक शाह, माया सरो, गीतिका ओहल्यान
रेटिंग – 4/5

‘जस्ट अ स्लैप देन?’ तर्ज़ुमा – मतलब, सिर्फ एक थप्पड़? यह सवाल ‘थप्पड़’ में नायिका - अमृता की वकील उससे तब पूछती है जब वह अपना मामला लेकर उसके पास जाती है. ध्यान दीजिएगा कि यहां पर मुवक्किल और वकील दोनों महिलाएं हैं. यह एक सीक्वेंस या संवाद यह समझाने के लिए काफी लगता है कि महिलाओं के संबंध में कितनी विसंगतियां हमारे यहां सामान्य सी बात बन चुकी हैं. यहां आम तौर पर होता यह है कि सुबह मिलने वाली गर्म चाय से लेकर रात के व्यवस्थित बिस्तर तक, हर चीज को भारतीय पुरुष अपना अधिकार मानकर चलते हैं. फिर इसमें होने वाली किसी गड़बड़ी या उनको हुई किसी असुविधा के लिए महिलाओं पर चिल्लाना, खरी-खोटी सुनाना या एकाध लगा देना भी लगभग हर घर की बात है.

अनुभव सिन्हा निर्देशित ‘थप्पड़’ ऐसी कई सहज-सामान्य लगने वाली बातों के असामान्य और खतरनाक होने की बात कहती है और उनके बारे में तसल्ली से बैठकर सोचने पर मजबूर करती है. दिलचस्प यह है कि अगर गहराई से न सोचा-समझा जाए तो पुरुषों को तो दूर, बहुत बार खुद महिलाओं को भी नहीं पता चलता कि उनके साथ जो हो रहा है, वह सही नहीं है. यह बात जेंडर रोल्स, प्राथमिकताओं से लेकर बातचीत और कई बार लहजे तक पर लागू होती है. फिल्म दिखाती है कि इन्हीं सबसे लड़ते-जूझते महिलाएं एक असंतुष्ट-चिड़चिड़ी ज़िंदगी गुजार देती हैं.

बेशक, अमृता थप्पड़ की नायिका है लेकिन फिल्म में कई ऐसे महिला किरदार और हैं जो उसकी कहानी की बारीकियां समझने के लिए जरूरी हैं. ये किरदार बताते हैं कि मर्दों की तरह, हर औरत भी अपनी कहानी की नायिका है लेकिन उनकी कहानी में विलेन हमेशा पितृसत्ता है. एक ऐसा खलनायक जो न कभी हारता है और न कभी मरता है. इन किरदारों पर थोड़ा और विस्तार से बात करें तो फिल्म में एक तरफ शहर के सबसे सफल वकीलों में शामिल नेत्रा (अमृता की वकील) है तो दूसरी तरफ उसकी हाउस-हेल्प भी है. आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के दो चरमों पर खड़ी ये महिलाएं नायिका से प्रोफेशनली जुड़ी हैं. इनके जरिए ‘थप्पड़’ बताती है कि कैसे इनकी व्यावसायिक सफलताएं और असफलताएं इनकी अपनी होकर भी इनकी नहीं है.

इसी तरह अमृता की मां और सास दो गृहणियों के जीवन के पूरब-पश्चिम दिखाती हैं. अमृता की सास जहां पति की तवज्जो न मिलने पर कड़वाहट से भरी महिला बन चुकी है तो दूसरी तरफ, पति से पूरी तवज्जो और प्यार पाने वाली उसकी मां अपने भोलेपन के चलते हंसी का पात्र बनती रहती है. भावनात्मक सहचारिता के पैमानों पर इन किरदारों की शिकायतों की मात्रा भले कम-ज्यादा हो लेकिन एक इंडीविजुअल के तौर पर जो इन्होंने गंवाया-छोड़ा है, वह बराबर है. इन तमाम महिला किरदारों के जरिए अनुभव सिन्हा यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि कैसे अमृता की नाराजगी की वजह सिर्फ एक थप्पड़ नहीं है.

कहानी और किरदारों के बाद जो चीज यहां पर सबसे ज्यादा आपको मोहती है वह फिल्म के संवाद हैं. मसलन, एक दृश्य है जिसमें सिंगल मदर दिया मिर्ज़ा पर टिप्पणी करते हुए पावेल गुलाटी कहते हैं – ‘इसने फिर गाड़ी बदल दी! करती क्या है ये?’ जवाब मिलता है – ‘मेहनत.’ ऐसे कई सवाल और संवाद फिल्म का हिस्सा हैं जो अपनी संवेदनशीलता और सटीकता के चलते खासे प्रभावित करते हैं. इनमें से कुछ इन मायनों में खास हैं कि ये समाज के बिगड़े हुए हिस्से पर टिप्पणी तो करते हैं लेकिन साथ ही उसे संभालने-संवारने का सुझाव भी दे जाते हैं. फिल्म में अगर कोई कमी है तो वह यह है कि दूसरा हिस्सा जरा देर के लिए कुनमुनाहट वाली टोन पकड़ लेता है, इस दौरान एक क्लीशे क्लाइमैक्स की आंशका आपको जकड़ लेती है. लेकिन अंत की तरफ बढ़ते हुए यह फिर संभलती है और बेहतरीन अंत को प्राप्त होती है.

अभिनय पर आएं तो फिल्म में तापसी पन्नू का काम कई मौकों पर आपको हिलाकर रख देता है. थोड़ा ईमानदारी बरतें तो कहना होगा कि तापसी से इतने इंटेस एक्सप्रेशन्स की उम्मीद न होने के चलते भी हमें उनका काम इतना ज्यादा चौंकाता है. अलग यह भी है कि सिर हिलाकर, ऊपर-ऊपर से ही बात करने की तापसी की जो आदत बाकी फिल्मों में खटकती रही है, वह यहां पर एक हाउसवाइफ की असहजता को दिखाती लगती है और उनकी खूबी बन जाती है. इसके अलावा, फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जिनमें उन्होंने संवादों की जगह अपनी आंखों और देहबोली का इस्तेमाल किया है. कुल मिलाकर, इस नायाब परफॉर्मेंस के लिए उन्हें खूब सारी बधाई दी जानी चाहिए.

‘थप्पड़’ में वह किरदार जो आपका दिल चुरा लेता है, वह कुमुद मिश्रा का है. तापसी के पिता की भूमिका में कुमुद पितृसत्ता के विलोम का बेहद शांत चेहरा सामने लेकर आते हैं. उनके किरदार को दी गई बारीकी या खूबी जहां यह है कि बेटी और पत्नी के मामले में जिस चीज से वे लड़ रहे होते हैं, जाने-अनजाने वे खुद भी उसका हिस्सा बने होते हैं. वहीं, इसकी खूबसूरती यह है कि इसका पता चलने पर वह किरदार न सिर्फ पछतावा करता है बल्कि कुछ कहे बगैर उसे सुधारने की कोशिश भी करता है. इस कशमकश और कोशिश को कुमुद मिश्रा जिस एफर्टलेस तरीके से परदे पर लाते हैं, वह उन्हें इस खूबसूरत फिल्म का सबसे कीमती किरदार बना देता है.

इन दोनों के अलावा, तन्वी आज़मी और रत्ना पाठक शाह भी थप्पड़ में कुछ ऐसा काम करती हैं कि अभिनय और सच की बीच का फर्क खत्म हो जाता है. वकील और हाउस-हेल्प की भूमिकाओं में माया सरो और गीतिका ओहल्यान भी अपने खरे अभिनय से फिल्म को ज़रूरी वजन देती हैं.

हो सकता है यह समीक्षा पढ़कर आपको लग रहा हो कि इसमें तो कई स्पॉइलर थे. लेकिन नहीं, यही अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लागू की कलम से निकली इस पटकथा की खासियत है कि इसके एक-एक दृश्य को भी यहां पर बता दिया जाए तो भी वह उसे देखे जाने के बराबर नहीं हो सकता. ‘क्या होगा’ से ज्यादा ज़रूरी सवाल यहां ‘कैसे होगा’ का है. यानी यह फिल्म सही मायनों में एक इमोशनल-विजुअल एक्सपीरियंस है. उलटबांसी सी एक बात यह भी कही जा सकती है कि इस फिल्म की कहानी पहले से पता हो तो इसकी शॉकवैल्यू बढ़ जाती है. मसलन, आपको पता है कि अब तापसी पन्नू के किरदार को थप्पड़ पड़ेगा लेकिन उसके पहले सबकुछ इतना सुंदर है कि लगता है, इसे ऐसे ही चलते रहना चाहिए.

कुछ और नहीं तो यह बात समझने के लिए फिल्म देखिए कि क्यों तलाक देने के लिए ‘सिर्फ एक थप्पड़’ कोई छोटी वजह नहीं है. क्योंकि यह फिल्म सिर्फ एक थप्पड़ से तलाक तक का किस्सा नहीं बल्कि शादी से थप्पड़ तक की कहानी भी बताती है. हो सकता है, यह दुनिया का उत्कृष्टतम सिनेमा न हो लेकिन ये ज़रूर हो सकता है कि इसे देखना हमें एक डिग्री ज्यादा संवेदनशील इंसान बना दे... अगर सच में सिनेमा ऐसा कर सकता है तो.

चलते-चलते, मारपीट को एक्सप्रेशन ऑफ लव बताने वाले, ‘कबीर सिंह’ जैसी घोर रिग्रेसिव फिल्म बनाने वाले और हमेशा हीरो के दम पर फिल्में बेचने वाले बॉलीवुड के लिए, इससे करारा जवाब शायद ही कोई और हो सकता था.