क्या भारतीय बैंकिंग प्रणाली किसी गहरे संकट में है? यस बैंक के मौजूदा संकट के बाद यह सवाल फिर एक बार हमारे सामने खड़ा है. वित्त मंत्रालय और आरबीआई भले ही भरोसा दे रहे हों कि यस बैंक के ग्राहकों के पैसे सुरक्षित हैं, लेकिन महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक के बाद यस बैंक प्रकरण के चलते भारतीय बैंकिंग सिस्टम की साख पर तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं. आरबीआई के इस निर्देश के बाद कि यस बैंक के ग्राहक महीने में पचास हजार से ज्यादा की रकम नहीं निकाल सकते हैं, बैंक की शाखाओं और एटीएम पर लोगों की भीड़ लगी है. इससे पहले महाराष्ट्र के पीएमसी बैंक के ग्राहकों के साथ भी ऐसा हो चुका है. उसके ग्राहकों को हुई परेशानी कुछ समय पहले तक पूरे देश में चर्चा का विषय बनी हुई थी. पीएमसी बैंक सहकारी बैंक था, लेकिन यस बैंक के साथ ऐसा नहीं है. ऐसे में अगर घबराहट का माहौल ज्यादा फैला तो यह पूरी बैंकिंग प्रणाली को चपेट में ले सकता है.

पीएमसी बैंक संकट के समय कहा गया था कि यह एक सरकारी बैंक था और प्रबंधन द्वारा दिए गए कुछ बड़े कर्जों के कारण उसके सामने नगदी की समस्या उत्पन्न हुई. यस बैंक के संकट में आने के ठीक-ठीक कारण क्या हैं, यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा. लेकिन, उसके प्रबंधन से जुड़े विवाद काफी दिनों से चल रहे थे. इन विवादों के बीच बैंक की आर्थिक स्थिति के बारे में भी सवाल उठते रहते थे, लेकिन इस बारे में स्थिति कभी साफ नहीं की गई.

पीएमसी और यस बैंक के संकट अब खुलेआम सामने हैं. इनके अलावा भी कुछ निजी बैंकों द्वारा ग्राहकों की देनदारियों में देर करने की खबरें आईं थीं. लेकिन, इसको लेकर सरकार या आरबीआई द्वारा बहुत साफ तरीके से स्थिति स्पष्ट नहीं की गई है. ऐसे में कुछ जानकार कह रहे हैं कि यस बैंक के मामले में आरबीआई ने हस्तक्षेप करने में देरी की. उसे पहले ही बैंक का प्रबंधन अपने हाथ में ले लेना चाहिए था. इनमें से कुछ का यह भी मानना है कि बैंकिंग प्रणाली के तनाव में होने के संकेत काफी दिनों से मिल रहे थे, लेकिन आरबीआई और सरकार ने इसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया.

ऐसे में भारतीय बैंकिंग की समस्या क्या है, इसकी चर्चा जरूरी है. भारतीय बैंकिंग प्रणाली काफी लंबे समय से फंसे हुए कर्जो की समस्या से जूझ रही है. 2019 में यह समस्या बैंकों के बही-खातों से निकल कर कुछ और स्वरूपों में बाहर आई जो सीधे-सीधे आम जनता के बैंकिग प्रणाली में विश्वास से जुड़ते हैं. बैंकिंग प्रणाली में ग्राहक का भरोसा कुछ यूं होता है कि वह बैंक में पैसे इस उम्मीद से रखता है कि जब जरूरत होगी उसे उसके पैसे वापस मिल जाएंगे. पीएमसी और यस बैंक जैसे वाकये इस भरोसे पर चोट करते हैं.

अगर फंसे हुए कर्ज की ही बात करें तो 2020 के शुरू होते ही आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सरकारी बैंकों के एनपीए में अभी और बढ़ोतरी होगी. केंद्रीय बैंक ने अपनी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में कहा कि बैंकों का ग्रॉस एनपीए अनुपात सितंबर 2019 के 9.3 फीसदी से बढ़कर सितंबर 2020 में 9.9 फीसद पर पहुंच सकता है. यानी उसके फंसे हुए कर्ज में और बढ़त हो गई है. रिजर्व बैंक ने इस रिपोर्ट में यह भी कहा कि रियल एस्टेट क्षेत्र को दिए गए कर्ज के मामले में कुल एनपीए का अनुपात जून 2018 के 5.74 प्रतिशत की तुलना में जून 2019 में 7.3 प्रतिशत हो गया है. इस मोर्चे पर सरकारी बैंकों की स्थिति और भी खराब है क्योंकि ऐसे कर्ज के मामलों में उनका एनपीए 15 से बढ़कर 18.71 प्रतिशत हो गया है.

सरकारी बैंकों का कुल एनपीए 10 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का बताया जाता है. हालांकि, 2019 के आखिरी में बैंकों के बड़े पदाधिकारियों ने कहा कि वे फंसे हुए कर्जों को कम कर रहे हैं. कुछ आंकड़ों ने उनकी बात की तस्दीक भी की. लेकिन, विशेषज्ञ मानते हैं कि एनपीए में जो कमी दिखाई दी उसकी वजह यह रही कि बैंकों ने बड़े पैमाने पर कर्जे राइट ऑफ किए न कि कर्जों की वसूली की वजह से ऐसा हुआ. अब रिजर्व बैंक की रिपोर्ट बैंकों के उस दावे पर सवाल खड़ा कर रही है कि 2020 एनपीए कम करने के लिहाज से बहुत अच्छा साल होने वाला है. यानी कि भारतीय बैंकिंग की स्थिरता से जुड़ा सबसे बड़ा मुद्दा एनपीए अभी भी बना हुआ है. अगर महज शब्द जाल के जरिये इसे कम करके आंका जाता है तो इससे समस्या खत्म होती नहीं दिखती.

बैंकों के फंसे हुए कर्ज भारतीय बैंकिंग की पुरानी समस्या हैं, लेकिन होते-होते यह इतनी विकराल हो चुकी है कि पूरी भारतीय बैंकिंग प्रणाली असमंजस में फंसी आ रही है. यह असमंजस बहुत सी बातों का है. परंपरागत तौर पर देखे भारतीय बैंकिंग जमा पर आधारित रही है. देश में लंबे समय तक छोटी बचत योजनायें से पैसे आते रहे और बैंक कर्ज देते रहे. जब तक बैंकों में जमा दर अच्छी रहीं, बैंक थोड़े बहुत फंसे हुए कर्जों की स्थिति में भी अपने को संभाले रहें. लेकिन, उदारीकरण के बाद बैंकिंग के इस बुनियादी म़ॉडल में बदलाव आने लगा. बैंकों का पूंजी आधार अभी भी जमा से आ रहा था, लेकिन अब बैंकों के सामने बड़े पैमाने पर सस्ता कर्ज मुहैया कराने की चुनौती थी. बैंकों को ऐसा करने के लिए मजबूरन अपनी छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज कम करने पड़े.

इसका नतीजा यह हुआ कि अपनी जमा पूंजी पर अच्छे ब्याज की उम्मीद पालने वाले जमाकर्ताओं ने बैंकों से मुंह मोड़ना शुरु कर दिया. कई आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस सालों में बैंकों में एफडी कराने वालों की संख्या में तेजी से गिरावट हुई है. बैंकों में जमा लगातार गिर रहा है, लेकिन उन पर सस्ते कर्ज देकर अर्थव्यवस्था में जान फूंकने का दबाव लगातार बना हुआ है. एक आंकड़े के मुताबिक 2019 की जनवरी में बैंकों के कर्ज उनके जमा अनुपात का 78.6 फीसदी हो गए. यह पिछले 45 सालों का सबसे बड़ा आंकड़ा है. सामान्य तौर पर इस बात को इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि इस समय बैकों के पास जमा कम हो रहा है, जबकि वह कर्ज तेजी से बांट रहे हैं. यह एक जोखिम की स्थिति है. जोखिम की स्थिति इसलिए क्योंकि अगर किसी वजह से उसके कर्ज बड़े पैमाने पर फंस जाते हैं तो उसके पास अपने जमाकर्ताओं को देने के लिए पैसे नहीं होंगे.

पीएमएसी बैंक के मामले में काफी हद तक ऐसा ही हुआ. वह अपेक्षाकृत छोटा बैंक था, लेकिन यस बैंक उसकी तुलना में काफी बड़ा बैंक है. अगर किसी बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक के सामने ऐसी स्थिति आती है तो यह अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है कि किस किस्म का हाहाकार सकता है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय बैंक ग्राहकों का एक बहुत बड़ा वर्ग (करीब 75 फीसद) बैंकों से कर्ज ही नहीं लेता है. वह उससे सिर्फ अपनी बचत की सुरक्षा और उस पर ब्याज की उम्मीद रखता है. ऐसे में अगर इस वर्ग का भरोसा बैंकिंग से टूटा तो भारतीय बैंकिंग प्रणाली की बुनियाद मुश्किल में आ जाएगी. फिलहाल भारत गहरी आर्थिक सुस्ती से जूझ रहा है, इसके बाद भी बैंकों में लगातार घटता जमा और भी चिंता की बात है. बगैर किसी ठोस उपाय या योजना के यह स्थिति सुधरने वाली है ऐसा नहीं लगता.

जानकारों के मुताबिक, इन चिंताओं के साथ-साथ बैंकों के सामने एक और समस्या खड़ी हो रही है. यह बैंकों के लाभ की समस्या को और जटिल बना रही है. एक अनुमान के मुताबिक, 2019-20 के वित्तीय वर्ष में बैंकों का क्रेडिट ग्रोथ 8.5 फीसद ही रह सकता है. जबकि 2018-19 में यह 13.3 फीसद था. बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ गिरने का मतलब है कि बैंक से लोन लेने वालों की संख्या घटना. यह बैंकों के लिए चिंता की बात इसलिए है कि बैंक के लाभ का मुख्य स्रोत कर्ज के उठान और उनकी समय पर वापसी ही है. ऐसे में कर्ज लेने की गिरती दर उनके लाभ को सीमित करेगी. यानी बैंक इस समय तिहरी मुसीबत से घिरे हैं. पहली जमा दर लगातार कम हो रही है, जिससे बैंकों का पूंजी आधार सिकुड़ रहा है. दूसरे, पहले के फंसे हुए कर्ज वापस नहीं आने से उनके बही-खाते गड़बड़ाये हुए हैं. तीसरी दिक्कत यह है कि आर्थिक मंदी के चलते बैंक के कर्जों में गिरावट आ रही है. यानी आने वाले समय में कर्ज से बैंक का लाभ भी कम हो सकता है.

रिजर्व बैंक ने अपनी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में कहा है कि देश की बड़ी कंपनियों के पास इस समय पर्याप्त पैसा है और फिलहाल उनके कर्ज लेने की संभावना नहीं है. दूसरे, आर्थिक सुस्ती के कारण भी उद्ममी नए निवेश से बच रहे हैं, इसलिए कर्जों के सस्ते होने के बाद भी लोग कर्ज नहीं ले रहे हैं. इसकी पुष्टि वित्तीय वर्ष 2018-19 के आंकड़े करते हैं. इस वित्तीय वर्ष के शुरुआती आठ महीनों में ही उद्योगों को दिये जाने वाले कर्जों में 3.39 फीसद (1.13लाख करोड़) की गिरावट दर्ज की गई थी.

जानकार कहते हैं कि संस्थागत क्षेत्रों से लोन घटने के कारण बैंक अपना लोन बिजनेस बढ़ाने के लिए रिटेल क्षेत्र की ओर रूख कर रहे हैं. लेकिन, इसकी भी अपनी समस्यायें हैं. रिजर्व बैंक ने रिटेल कर्जों को लेकर बैंकों को चेताया है. आरबीआई का कहना है कि देश में आर्थिक मंदी जैसा माहौल है, इसलिए रिटेल लोन की वापसी में समस्या हो सकती है. इसलिए बैंक रिटेल लोन बांटते समय खासा ध्यान रखें. बैंकिंग जानकारों का भी मानना है कि बैंक अभी बड़े कर्जों के एनपीए का सामना कर रहे हैं और अगर बड़े पैमाने पर रिटेल लोन की वापसी में दिक्कत हुई तो नई परेशानी पैदा हो जाएगी.

बैंकिंग उद्योग चौतऱफा मुसीबतों से घिरा है और देश में आर्थिक सुस्ती ने उसकी मुसीबत और भी बढ़ा दी है. इससे निपटने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंकों का विलय किया गया है जिससे उनका पूंजी आधार बढ़ा है और उनकी बैलेंसशीट कुछ बेहतर दिखने लगी है. लेकिन इसे फौरी इलाज ही कहा जा सकता है. बैंको के बार-बार पूंजीकरण और विलय से उनकी स्थायी समस्या दूर होती नहीं दिखती. बदलते परिेवेश में भारत की बैंकिंग जमा बैकिंग से कर्ज बैंकिंग की ओर बढ़ चुकी है. यानी कि बैंक अब सिर्फ ग्राहकों की जमा पूंजी पर निर्भर नहीं रह सकते. उन्हें बांड बाजार और अन्य तरीकों से भी संसाधन जुटाने पड़ेंगे. और इस सबके लिए वृह्द बैंकिंग सुधारों की जरुरत है. इन बैंकिंग सुधारों का सबसे अहम पहलू यह है कि ग्राहक अपनी जमा रकम को लेकर पूरी तरह निश्चिंत रह सकें.