निर्देशक – हार्दिक मेहता
कलाकार – संजय मिश्रा, दीपक डोबरियाल, अवतार गिल, सारिका सिंह
रेटिंग – 3/5
डेविड अब्राहम चेउलकर और केष्टो मुखर्जी से शुरू कर लिलीपुट, गुड्डी मारुति, अवतार गिल और विजू खोटे के साथ यशपाल शर्मा, पवन मल्होत्रा, मुकेश तिवारी जैसे कुछ नामों को और समेट लिया जाए तो बॉलीवुड के चरित्र कलाकारों की एक प्रतिनिधि फेहरिश्त बन जाती है. ये वे कलाकार हैं जिनके चेहरे तो लगभग हर दर्शक पहचानता है लेकिन नामों से शायद वह उम्र भर अनजान रहता है. ‘कामयाब’ बॉलीवुड के ऐसे ही कम नाम कमाने वाले जाने-पहचाने चेहरों को समर्पित की गई है.
कामयाब के मामले में यह उलटबांसी दिलचस्प लगती है कि एक साइड-एक्टर इस फिल्म का हीरो है और यहां पर फिल्मी हीरो के किरदार को एक साइड-एक्टर ने निभाया है. ऐसे अनोखे विचार वाली इस कहानी का लेखन राधिका आनंद और हार्दिक मेहता ने किया है. हालांकि फिल्म की पटकथा इसके विचार जितनी ही यूनीक और परफेक्ट नहीं कही जा सकती, फिर भी एक साइड-एक्टर की जिंदगी को वह बेहद संवेदनशीलता के साथ सामने लाती है. ऐसा करते हुए कामयाब कई मौकों पर बढ़िया ह्यूमर और कटाक्ष को भी खुद में शामिल करती है. इसके अलावा, 70-80 के दशक की फिल्मों और उनकी खूबियों को भी बिना जजमेंटल हुए इसमें जगह दी गई है.
‘कामयाब’ की कहानी पर आएं तो यह साइड-एक्टर, सुधीर का किस्सा बताती है. सुधीर ने जीवन भर कभी खुशखबरी देने वाले डॉक्टर, कभी गोली खाकर मरने वाले गुंडे, कभी डाकू तो कभी पुलिसमैन जैसे वे किरदार किए हैं जो फिल्म के कुछ ही दृश्यों में नज़र आते हैं. सुधीर को पता ही नहीं चलता कि कब ऐसे छोटे-छोटे रोल करते हुए उसने 499 फिल्में कर डाली हैं. यह बात पता चलने पर वह 500वीं फिल्म में काम करने का रिकॉर्ड बनाना चाहता है और यही कहानी का सबसे बड़ा ट्विस्ट है.
वैसे, यहां पर इस बात का जिक्र किया जाना चाहिए कि किसी सुपरस्टार के लिए कुछ सौ फिल्मों में काम कर पाना एक विरली बात हो सकती है लेकिन एक साइड-एक्टर के लिए ऐसा कर पाना उतना मुश्किल भी नहीं है. उदाहरण के लिए ‘शोले’ में कालिया का किरदार निभाने वाले विजू खोटे काआईएमडीबी पेज बताता है कि उन्होंने 443 फिल्में की हैं. ‘कामयाब’ के एक दृश्य में खोटे भी नज़र आते हैं. लेकिन अफसोस कि फिल्म रिलीज होने से पहले ही 2019 में उनकी मृत्यु हो चुकी है. यह फिल्म उन्हें ही समर्पित की गई है.
कहानी पर लौटें तो सुधीर की फिल्मोग्राफी के अलावा उसका परिवार, दोस्त और पड़ोसी भी इस फिल्म का हिस्सा हैं. लेकिन वह इनके कैरेक्टर स्थापित करने में कोताही कर जाती है. शुरूआत से ही सुधीर का अपनी बेटी से तनाव दिखाने के बावजूद फिल्म उसकी वजह नहीं बताती है. इसी तरह, हर पल साथ रहने वाले दोस्त से उनकी केमिस्ट्री भी कुछ ऊपर-ऊपर की लगती है. इसके अलावा, इस रियलिस्टिक फिल्म का मेलोड्रामा से भरे क्लाइमैक्स से गुजरते हुए अचानक एक बनावटी अंत पर खत्म हो जाना भी खटकता है. यह सब मिलकर पटकथा का वजन कम करते हैं. दूसरी तरह से कहें तो फिल्म में इमोशनल कोशंट कम है जिसके चलते इसका असर भी कम हो जाता है.
अभिनय पर आएं तो, सुधीर को संजय मिश्रा ने एक अलग ही चाल, चेहरा और अंदाज दिया है. तबीयत से मलंग या परिस्थितियों से तंग आम आदमी का किरदार वे पहले भी निभाते रहे हैं लेकिन यहां पर दोनों को एक ही किरदार में पिरोया गया है. कैसे हर दिन रिजेक्शन झेलने वाला बेनाम कलाकार अगले दिन फिर हिम्मत बटोरकर काम खोजने निकलता है, इस पूरे प्रोसेस को मिश्रा पूरी ईमानदारी के साथ परदे पर लाते हैं. इसके अलावा वे दृश्य जिनमें उन्हें ओवर एक्टिंग करने की एक्टिंग करनी थी, उनमें वे कमाल का संतुलित अभिनय करते हैं. ऐसा कि अभिनय के विद्यार्थी और अभ्यास करने वाले फिर उनसे कुछ नया सीख सकते हैं.
संजय मिश्रा के बाद फिल्म का भार दीपक डोबरियाल अपने दुबले-पतले कंधों पर उठाते हैं. नकलीपन से भरे अपने कास्टिंग डायरेक्टर के किरदार को डोबरियाल अपने असली अभिनय से ऐसा रचते हैं कि उस पर आपको प्यार और गुस्सा दोनों एक साथ आता है. इन दोनों के अलावा फिल्म में अवतार गिल भी हैं जो अपनी ही भूमिका निभाते दिखते है. कुछ दृश्यों में गुड्डी मारुति, बीरबल, विजू खोटे और लिलीपुट भी वही करते नजर आते हैं जो वे दसियों सालों से कर रहे हैं. यानी बिना अपनी मौजूदगी दर्ज करवाए कहानी को आगे बढ़ाने का कारनामा.
फिल्म के बाकी पक्षों पर आएं तो शाहरुख खान के प्रोडक्शन हाउस तले बनी इस फिल्म की प्रोडक्शन क्वालिटी अच्छी है और इसके सेट्स वास्तविक लगते हैं. सिनेमैटोग्राफी का जिक्र करें तो यह कुछ ऐसी है कि एक ही लोकेशन का सीन दोबारा आने पर दोहराव का पता चलता है. संगीत की बात करें तो यह कुछ यूं है कि कब होता है और कब नहीं होता, इसका पता ही नहीं चलता है. कुल मिलाकर, अच्छी नीयत वाली यह फिल्म कई छोटी-बड़ी खामियों का शिकार तो होती है लेकिन इसका साफ इरादा और संजय मिश्रा का कमाल अभिनय इसे देखने लायक बनाए रखते हैं. लेकिन फिर भी यह कहने की गुंजाइश जरूर है कि अगर ये कमियां न होतीं तो ‘कामयाब’ सिनेमा पर बना बेहद कामयाब और कमाल सिनेमा कहा जाता!
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