यवतमाल के धारवा में रहने वाले 35 साल के महेश पुरुषोत्तम गिरी को 2017 में हुई किसानों की मौतें आज भी दहला देती हैं. तब इस इलाके में कीटनाशक छिड़कने के काम में लगे 21 किसानों और खेतिहर मज़दूरों की मौत हो गई थी और एक हज़ार से अधिक लोग अस्पताल में भर्ती करने पड़े थे.
महाराष्ट्र सरकार की ओर से बनाई गई स्पेशल जांच टीम ने जब पूरे मामले की जांच की तो किसानों पर ही लापरवाही का आरोप लगाते हुए कहा कि उन्होंने सही कीटनाशक के चयन और उनके सुरक्षित इस्तेमाल को लेकर सावधानी नहीं बरती.
“यहां किसानों के पास (कीटनाशकों के इस्तेमाल को लेकर) कोई जानकारी नहीं है और न ही किसी सरकारी महकमे की ओर से गाइडलाइंस को लेकर कोई खास ट्रेनिंग वगैरह दी जाती है” महेश पुरुषोत्तम गिरी सत्याग्रह को बताते हैं, “यहां दुकानदारों और कीटनाशक कंपनियों के एजेंटों की ही चलती है. और जो दवाई (कीटनाशक) वो चाहते हैं वही बिकता है.”
रसायनों का अत्यधिक और बेरोकटोक इस्तेमाल हर साल हज़ारों लोगों की जान ले रहा है. हमारे देश में जितने भी रसायन इस्तेमाल होते हैं उनमें से 76 फीसदी वे हैं जो कीड़ों को खत्म करने के लिये बनाये जाते हैं. बाज़ार की भाषा में इन्हें इंसेक्टिसाइड कहते हैं. पूरी दुनिया का औसत इस मामले में 44 फीसदी है. रसायनों की कुल खपत का 57 फीसदी सिर्फ दो फसलों धान और कपास में होता है. इन वजहों से हमारी मिट्टी, पानी और हवा सब ज़हरीले हो रहे हैं. हमारी फसलों, पेड़-पौंधों में ज़हर भर रहा है. और किसानों और उनके मवेशियों के मरने और बीमार होने की घटनाएं सामने आ रही हैं.
इसकी एक बड़ी वजह 52 साल पुराना एक घिसा-पिटा भारतीय क़ानून है जिसे इनसेक्टिसाइड एक्ट – 1968 कहा जाता है. यह कानून वर्तमान चुनौतियों से लड़ने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दादागिरी को रोकने और किसानों के हितों की रक्षा करने में नाकाम साबित हो रहा है.
अब नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने एक नये विधेयक को मंज़ूरी दी है और माना जा रहा है कि इस सत्र में सरकार इसे संसद में लायेगी. इस क़ानून का नाम पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल – 2020 है. इससे पहले 2008 और 2017 में भी नया क़ानून लाने की कोशिश हो चुकी है. लेकिन पहली बार यह संसद में पेश ही नहीं हो पाया और पिछली बार (2017 में) यह लोकसभा में पेश तो किया गया लेकिन पास नहीं हो पाया. मोदी सरकार में उच्चपदस्थ सूत्रों का कहना है कि इस बार यह बिल संसद में पास हो जायेगा. हालांकि वहां जिस तरह का माहौल है कुछ लोगों को लगता है कि यह विधेयक एक बार फिर से लटक सकता है. हालांकि ज्यादातर लोगों का यह भी मानना है कि इस बार यह बिल पेश जरूर हो जाएगा और किसी एक सदन में पास भी हो सकता है.
नये क़ानून के प्रावधानों को लेकर अभी पारदर्शिता नहीं
महत्वपूर्ण है कि जहां 2017 में सरकार ने बिल पेश करने से पहले जनता और संबंधित पक्षों की राय ली थी वहीं इस बार बिल को लेकर अभी तक पारदर्शिता नहीं है. जानकार कहते हैं कि वे उम्मीद करते हैं कि यह विधेयक 2017 में प्रस्तावित क़ानून से बेहतर होगा.
“इस बिल का पूरा मक़सद होना चाहिये कि रासायनिक कीटनाशकों का खेती में इस्तेमाल कम से कम हो. अगर नये क़ानून की प्रस्तावना और भाषा में यह बात साफ नहीं होगी तो फिर इससे यह संदेश जायेगा कि खेती में रसायनों के इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं है और इन्हें बढ़ावा मिलना चाहिये. हालांकि सच्चाई इसके उलट है क्योंकि मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से खेती बिना रसायन इस्तेमाल किये होनी चाहिये” फूड सेफ्टी पर काम कर रहे विशेषज्ञ अमित खुराना कहते हैं.
भारत आज दुनिया में कीटनाशकों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है. केवल अमेरिका, जापान और चीन में ही इससे अधिक रसायन बनाये जाते हैं. साल 2014-15 और 2018-19 के बीच कीटनाशकों का उत्पादन 30,000 मीट्रिक टन बढ़ा. चार सालों के भीतर उत्पादन में यह 16 प्रतिशत का उछाल है. आज भारत सालाना 2,16,703 मीट्रिक टन रासायनिक कीटनाशकों का उत्पादन कर रहा है.
सबसे चिंताजनक बात है कि भारत में क्लास-1 श्रेणी के अंतर्गत आने वाले रसायनों का प्रयोग धड़ल्ले से होता है. जबकि दुनिया के ज़्यादातर देशों में ऐसे कीटनाशकों पर पाबंदी है. मिसाल के तौर पर मोनोक्रोटोफॉस (यवतमाल में किसानों की मौत और बीमारी के पीछे यह रसायन मुख्य रूप से ज़िम्मेदार था) अब भी भारत में बेचा जाता है और किसान इसका जमकर इस्तेमाल करते हैं. जबकि हमारे पड़ोसी श्रीलंका समेत दुनिया के 60 से अधिक देशों में इस पर पाबंदी है.
मार्च 2018 में एक सवाल के जवाब में संसद में तत्कालीन कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह का कहना था कि 2014-15 और 2018-19 के बीच अकेले महाराष्ट्र में ही 272 किसानों की मौत कीटनाशकों के कारण हुई. इन मौतों में आत्महत्या के आंकड़े शामिल नहीं हैं.
अपना पक्ष रखते हुये सरकार ने दावा किया कि 2015 से 2018 के बीच 59,130 किसानों को कीटनाशकों के सुरक्षित इस्तेमाल के बारे में बताया गया और जागरूकता अभियान चलाये गये.
सरकार ने संसद में कहा कि उसके कृषि, सहकारिता और किसान कल्याण विभाग ने देश भर में 35 सेंट्रल इंटीग्रेटेड पेस्ट मेनेजमेंट सेंटर खोले हैं. यह सेंटर कीट प्रबंधन को लेकर किसानों को जानकारी देते हैं और रसायनों के सुरक्षित और न्यूनतम इस्तेमाल के बारे में उन्हें बताया जाता है.”
क्या चाहिये नये बिल में?
अगर रसायनों का इस्तेमाल तेज़ी से नहीं घटा तो जनता के स्वास्थ्य और धरती के लिये ख़तरा बढ़ता जायेगा. इसे कम करने के लिए नये कानून में इन प्रावधानों का होना जरूरी है:
- नये क़ानून के तहत सरकार को बेहद ख़तरनाक क्लास – 1 रसायनों समेत उन सारे कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाना चाहिये जिन पर दूसरे देश पहले ही रोक लगा चुके है.
- मौजूदा 1968 के क़ानून में दोषी को केवल 2000 रूपये की पेनल्टी या 3 साल की सज़ा का ही प्रावधान है. हालांकि 2017 के प्रस्तावित बिल में अधिकतम 5 लाख का आर्थिक दंड और ज़्यादा से ज़्यादा 5 साल की जेल का प्रावधान था. सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसान संगठनों का कहना है कि सज़ा और कड़ी होनी चाहिये. एक मत यह है कि आर्थिक दंड को कंपनियों के मुनाफे के हिसाब से तय किया जाये.
- रसायन बेचने वाली कंपनियां किसानों और कृषि मज़दूरों को कीटनाशक छिड़काव के वक्त पहनने के लिये जरूरी चीजें भी मुहैया करायें.
- सरकार ट्रेनिंग और जागरूकता अभियान चलाने के साथ किसानों के साथ कृषि विभाग का मज़बूत रिश्ता कायम करे ताकि कीटनाशक बेचने वाली कंपनियों के एजेंट और दुकानदार ही किसानों के सलाहकार न बन जायें.
- अधिकारियों पर तय समय सीमा के भीतर किसी कीटनाशक को रजिस्ट्रेशन की अनुमति देने का दबाव न हो. “आखिर किसी ज़हरीले पदार्थ को अनुमति देने की जल्दबाज़ी क्यों होनी चाहिय, खासतौर से तब जबकि सही खेती बिना रासायनिक खादों और कीटनाशकों के हो सकती है.” खेती में लगे किसानों और मज़दूरों के लिये काम कर रहे संगठन अलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) से जुड़ी कविता कुरुगंटी कहती हैं.
“कीटनाशकों के विपरीत असर से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को बचाना ही इस बिल को लाने का प्रमुख उद्देश्य है. इसीलिये हम चाहते हैं कि सरकार इन रसायनों को मंजूरी देने के लिये “क्लीयरिंग हाउस” की तरह बर्ताव न करे क्योंकि उसका काम कीटनाशकों पर नियंत्रण करना और नज़र रखना है. अगर नीयत साफ है तो बिल प्रभावी प्रावधानों वाला होगा और अपना मकसद सही मायने में पूरा करेगा.” कविता कहती हैं.
यह रिपोर्ट अंग्रेज़ी में मोंगाबे इंडिया पर प्रकाशित हो चुकी है.
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