5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान के अनुच्छेद-370 को निरस्त करने के बाद से वहां की स्थिति सामान्य नहीं हो पाई है. जम्मू-कश्मीर जो एक राज्य होता था, उसे तीन केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया. इसके बाद प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर अन्य प्रमुख दलों के प्रमुख नेताओं को नजरबंद करके रखा गया था.

पहले जिस कानून के तहत इन नेताओं को नजरबंद करके रखा गया था, जब उसकी मियाद खत्म होने लगी तो इन नेताओं पर लोक सुरक्षा कानून (पीएसए) के प्रावधानों का इस्तेमाल करके इनकी नजरबंदी की अवधि को बढ़ा दिया गया. नेताओं को नजरबंद करके रखने के केंद्र सरकार के फैसले की काफी अलोचना भी हुई. कहा गया कि केंद्र सरकार के इस रवैये की वजह से कश्मीर में भरोसे का संकट पहले के मुकाबले और बढ़ा है और आम लोग केंद्र सरकार के निर्णयों को संदेह की नजर से देख रहे हैं.

लेकिन पिछले कुछ दिनों में नैशनल कांफ्रेंस के दो सबसे बड़े नेताओं की रिहाई हुई है. पहले फारूख अब्दुल्ला को सरकार ने रिहा किया गया. इसके बाद उनके बेटे और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी रिहा किया गया. उमर अब्दुल्ला को तब रिहा किया गया जब भारत में कोरोना वायरस से लोगों के संक्रमित होने की शुरुआत हो गई थी. इसके बाद से दूसरे नेताओं की रिहाई की मांग भी उठने लगी.

उमर अब्दुल्ला की रिहाई और कोविड-19 फैलने के बीच आपस में कोई संबंध है या नहीं, यह तो केंद्र सरकार ही बता सकती है लेकिन इस बीमारी के फैलने के बाद से जम्मू-कश्मीर में स्थितियों को सामान्य करने की मांग उठने लगी है. यह मांग की जा रही है कि पांच अगस्त के बाद से जिन नेताओं को नजरबंद करके रखा गया है, उन्हें तत्काल छोड़ा जाए.

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें अब तक रिहा नहीं किया गया है. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज की रिहाई का निर्णय अब तक नहीं लिया गया है. इन दोनों बड़े नेताओं की रिहाई की मांग इनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता लगातार कर रहे हैं. पिछले सप्ताह यह अफवाह फैली थी कि महबूबा मुफ्ती को रिहा किया जा रहा है लेकिन अब तक उनकी रिहाई का कोई औपचारिक आदेश नहीं आया है. इन दोनों के अलावा कम से कम पांच और राजनेता इस समय नजरबंद हैं.

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी द्वारा पिछले साल दिसंबर में दी गई जानकारी के मुताबिक अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में ऐहतियातन 5161 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से 609 अभी भी कैद हैं. कोरोना वायरस की वजह से उपजी नई परिस्थितियों में अब यह मांग उठ रही है कि इन सभी लोगों को रिहा कर दिया जाए. इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी हैं और ऐसे में उनके बीच कोविड-19 संक्रमण का खतरा अधिक है.

तकरीबन साढ़े सात महीने बाद रिहा हुए उमर अब्दुल्ला से जब उन्हें नजरबंद करने के केंद्र सरकार के निर्णय के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ये कहा कि अभी वे इस पर कुछ नहीं कहेंगे, इस मसले पर बाद में बात करेंगे क्योंकि अभी हम जिंदगी और मौत से युद्ध लड़ रहे हैं. उन्होंने ये भी कहा कि पहले यह जरूरी है कि हम सब मिलकर कोविड-19 से लड़ें और इस समस्या का समाधान करें.

इसके लिए उमर अब्दुल्ला सहित तमाम लोग कश्मीर में इंटरनेट सेवा बहाल करने की मांग कर रहे हैं, इनका कहना है कि कोविड-19 के फैलने के बाद जिस तरह से लाॅकडाउन किया गया है उसमें कश्मीर में भी इंटरनेट सेवा को सामान्य करना जरूरी है. 5 अगस्त के बाद पहले तो लंबे समय तक घाटी में इंटरनेट सेवाएं बंद रहीं. बाद में यहां इंटरनेट को आंशिक तौर पर तो शुरू कर दिया गया लेकिन अब मांग उठ रही है कि इसे पूरी तरह से बहाल कर दिया जाए ताकि घरों में बंद लोग इसका इस्तेमाल कर सकें. इसे डॉक्टरों की ऑनलाइन ट्रेनिंग और जनता में कोरोना वायरस के बारे में जागरूकता फैलाने के लिहाज से भी जरूरी माना जा रहा है.

कुछ जानकारों का कहना है कि कोविड-19 केंद्र सरकार के लिए एक ऐसे अवसर की तरह है जिसमें अगर वह थोड़ी सूझबूझ से काम करे तो कश्मीर में मौजूद अविश्वास के माहौल को थोड़ा ठीक किया जा सकता है. केंद्र सरकार ने जब अनुच्छेद-370 को हटाने और इसे राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदलने का निर्णय लिया तब उसकी ओर से कहा गया था कि इससे वहा का विकास और बेहतर शासन सुनिश्चित किया जा सकेगा. जानकारों के मुताबिक अब मोदी सरकार के पास यह दिखाने का अवसर है कि अगस्त 2019 में उसने जो कहा था वह सही था.

कोरोना वायरस के संक्रमण वाले मरीज जम्मू-कश्मीर में भी मिले हैं. ऐसे लोगों की संख्या अभी 55 है. इनमें से 52 का इलाज चल रहा है, दो लोगों की मृत्यु हो चुकी है और एक सही हो चुका है. देश के दूसरे राज्यों की तरह यहां भी संक्रमण और बढ़ने की आशंका है. ऐसे में कहा जा रहा है कि अगर केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में कोविड-19 के मरीजों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित कराती है, संदिग्धों की जांच में तेजी लाती है और इस पूरे मामले से ठीक ढंग से निपटती है तो आम लोगों में यह संदेश जा सकता है कि केंद्र शासित प्रदेश बनने का लाभ उनको हुआ है. इसके बाद अनुच्छेद-370 हटाने को लेकर स्थानीय लोगों में जो नाराजगी है, उसमें कमी आने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

कश्मीर में पीडीपी के एक कार्यकर्ता सत्याग्रह को बताते हैं कि यह केंद्र सरकार के लिए एक अवसर की तरह इसलिए भी है क्योंकि इस समय कश्मीर के नेताओं पर अनुच्छेड 370 हटाए जाने के खिलाफ कुछ कर दिखाने का दबाव नहीं है. अगर उन्हें अभी के हालात में छोड़ दिया जाता है तो वे उमर अब्दुल्ला की तरह पहले कोरोना वायरस से निपटने की बात कहकर फिलहाल अपनी आगे की रणनीति बनाने में लग सकते हैं.

इस लेख के लिखे जाने के बाद खबर आई है कि सरकार ने जम्मू-कश्मीर में 31 लोगों के ऊपर लगा लोक सुरक्षा कानून हटा दिया है और उन्हें जल्द ही रिहा किया जा सकता है. हालंकि इन लोगों में मेहबूबा मुफ्ती और सैफुद्दीन सोज़ शामिल नहीं है. लेकिन उम्मीद जतायी जा सकती है कि उन्हें भी रिहा किये जाने का सही निर्णय केंद्र सरकार जल्द ही लेगी.