गुरूग्राम की एक रेसिडेंशिय़ल सोसायटी में रहने वाली, 32 वर्षीय चारू माथुर आईटी प्रोफेशनल हैं. कोरोना वायरस लॉकडाउन के चलते जहां ज्यादातर लोग घरों में बेकार बैठे हैं, वहीं इन दिनों चारू का काम दोगुना हो गया है. ऐसा इसलिए कि आजकल वे घर से काम करने के साथ-साथ घर के काम भी करती हैं. पिछले कई दिनों से वे इस जद्दोजेहद में लगी हुईं थी कि उनकी हाउस-हेल्प को सोसायटी में आने दिया जाए. अपनी टॉवर के महिला व्हाट्सएप ग्रुप पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘मैं इस नए नियम को नहीं मानती! मुझे अपनी मेड चाहिए.’ लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. दरअसल चारू की हाउस-हेल्प जिस बस्ती में रहती है, वहां एक व्यक्ति के कोरोना संक्रमित पाए जाने के बाद से सोसायटी में काम करने के लिए आने वालों पर रोक लगा दी गई है.

चारू माथुर की परेशानी की वजह यह है कि ‘वुमन ऑफ द हाउस’ यानी गृहस्वामिनी होने के चलते घर की सारी जिम्मेदारी उन पर आ गई है. इसमें उनके पति और साल भर के बेटे का खयाल रखना भी शामिल है. किसी मदद के बगैर घर के सारे काम और बच्चे की देखभाल के साथ-साथ 12 घंटे की शिफ्ट कर पाना उनके लिए शारीरिक और मानसिक तौर पर बेहद थकाने वाला है. ‘कामकाजी लोगों के लिए ये कोई छुट्टी नहीं है. आपको घर से काम करना ही पड़ेगा. काम के साथ बिना मेड के खाना बनाना, सफाई करना और एक छोटे बच्चे की देखभाल कर पाना, असंभव है’ चारू कहती हैं.

चारू का यह किस्सा लगभग हर उस भारतीय परिवार की कहानी कही जा सकती है जिसमें कामकाजी महिलाएं हैं. हमारे यहां घर के पुरुषों से यह उम्मीद ही नहीं की जाती है कि वे किसी घरेलू काम में नियमित मदद करेंगे. शायद इसीलिए चारू जैसी परेशान करीब 40 महिलाओं की भीड़ बीते हफ्ते, उनकी सोसायटी के सेक्युरिटी स्टॉफ से नए ‘नो एंट्री’ नियम को लेकर उलझ पड़ी थी.

शहरी-आधुनिक परिवारों का यह रूप सामने आने को लेकर अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफसर अश्विनी देशपांडे कहती हैं कि ‘लॉकडाउन में समाज का यह पहलू तो दिखना ही था क्योंकि ज्यादातर भारतीय घरों में काम का बंटवारा बराबर नहीं होता है. यहां तक कि अगर पति और पत्नी दोनों ही घर से काम कर रहे हों तो भी ज्यादा बोझ महिलाओं पर ही पड़ता है.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस वक्त घर में रहने वाली महिलाओं की स्थिति कामकाजी महिलाओं से बेहतर है. इस समय उनके पति, बच्चे, देवर, ससुर सब दिन भर घर पर होते हैं और गृहणियों को इस वक्त हर वक्त उनका ख्याल रखना पड़ता है.’

एकतरफा सामाजिक ढांचा

देशों के आर्थिक विकास का लेखाजोखा रखने वाली वैश्विक संस्था ओईसीडी यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट ने साल 2015 में एक सर्वे किया था. इस सर्वे के मुताबिक एक आम भारतीय महिला रोजाना लगभग छह घंटे अनपेड वर्क यानी वह काम जिसका उसे कोई आर्थिक भुगतान नहीं किया जाता, करती है. यह आंकड़ा अन्य देशों की महिलाओं की तुलना में बहुत ज्यादा है. इस फेहरिश्त में भारत से आगे सिर्फ मेक्सिको है.

इसके उलट, भारतीय पुरुष इस सूची में अंतिम तीन में शामिल हैं क्योंकि वे दिन भर में एक घंटे से भी कम ऐसा काम करते हैं जिसका कोई आर्थिक फायदा न हो. इसका एक मतलब यह भी है कि भारतीय पुरुष घर का काम न के बराबर ही करते हैं.

आम तौर पर घर के भीतर महिला-पुरुषों के बीच काम का यह अंतर कई सहायकों की मदद से कम किया जाता है. इनमें बाइयां, कुक, नैनी, ड्राइवर और माली वगैरह शामिल हैं. कई बार इन सारी भूमिकाओं में कोई एक ही व्यक्ति होता है. क्वार्ट्ज़ की एशिया एडिटर तृप्ति लाहिड़ी ने साल 2017 में इस पर ‘मेड इन इंडिया-स्टोरीज ऑफ इनइक्वैलिटी एंड अपॉरच्युनिटी इनसाइड अवर होम्स’ शीर्षक से एक किताब लिखी थी. इसमें वे जिक्र करती हैं कि ‘भारत का अभिजात तबका आसानी से कई नौकर-चाकर रख सकता है. कई बार चार लोगों के परिवार के लिए इतने ही नौकर भी होते हैं. थोड़े समय के लिए मेरे साथ भी ऐसा हुआ था. मैंने अपने अकेले के लिए कुक, क्लीनर और ड्राइवर को नौकरी पर रखा हुआ था. ऐसा तब था जब मैं शारीरिक तौर पर पूरी तरह सक्षम हूं और मेरा कोई बच्चा भी नहीं है.’

भारत में हाउस-हेल्प का चलन ज्यादा होने की एक वजह यह है कि यहां घरेलू कामों के लिए भुगतान की जाने वाली कीमत बहुत कम है. अपनी मेहनत के मुताबिक सही पैसे न मिल पाना, बतौर हाउस-हेल्प काम करने वाली लगभग दो करोड़ महिलाओं की कहानी है. लेकिन इस पर कभी और बात करेंगे. फिलहाल, परिवारिक समीकरणों का संतुलन साधने में मददगार रहने वाली बाइयों के अचानक गायब हो जाने से कई लोगों के जीवन में वही पुराना लैंगिक भेदभाव फिर से दाखिल हो गया है.

पुरुषों की गलत परवरिश

मुंबई में रहने वाली पब्लिक रिलेशन प्रोफेशनल, दीपिका (बदला हुआ नाम) की स्थिति इस मामले में अपेक्षाकृत अच्छी कही जा सकती है. उनके पति एक डिजिटल मार्केंटिंग एक्सपर्ट हैं और बीते दो हफ्तों से वे भी घर से काम कर रहे हैं. नैनी और मेड की अनुपस्थिति में न केवल वे घर के कुछ कामों में दीपिका की मदद करते हैं बल्कि दोनों बच्चों, जिनमें से बड़ा चार और छोटा दो साल का है, को बी संभालते हैं.

दीपिका बताती हैं कि ‘घर बार से जुड़े सारे बड़े डिसीजन महिलाओं को ही लेने होते हैं. खाने में क्या बनेगा या सब्जियां कौन सी खरीदी जानी हैं, जैसी बातें भी. इसके अलावा बच्चों को खिलाना भी मेरे जिम्मे है क्योंकि उन्हें मेरे हाथ से खाने की आदत है. पति ने कभी उन्हें नहीं खिलाया. अब वे बच्चों को नहला देते हैं, उन्हें कपड़े पहना देते हैं. लेकिन हर छोटी-बड़ी चीज के लिए बच्चे पहले मेरे पास आते हैं. फिर मुझे उन्हें कहना पड़ता है कि पापा के पास जाओ.’

बच्चों का बार-बार मां के पास भागकर जाना बताता है कि दीपिका उनसे जुड़े कामों में अपने पति से बेहतर हैं. लेकिन इसमें उनके पति की गलती नहीं है. इसका जिम्मेदार भारतीय समाज में लड़कों की परवरिश को ठहराया जा सकता है. कई बार तो लड़के घर के बहुत साधारण से काम भी नहीं कर पाते हैं.

सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार समर हलर्नकर ने साल 2014 में अपने एक आलेख में जिक्र किया था कि ‘भारत में इससे रिग्रेसिव आपको कुछ और देखने को नहीं मिलेगा कि लड़के घरों में सिर्फ खाते और मस्ती करते हैं और उन्हें यह कहा जाता है कि उनकी दुनिया घर से बाहर है.’

इन्हीं हालात के चलते हाउस-हेल्प महिलाओं के लिए सबसे बड़ा और कारगर हथियार बन जाती हैं. इतनी कि उनके बिना वे कई तरह के शारीरिक और मानसिक दबाव महसूस करती हैं. ऐसे में इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस तरह की कई महिलाएं अपनी मेड्स को मार्च महीने की पूरी तनख्वाह देने की बात कह रही है. हालांकि वे अप्रैल में क्या करेंगी, इस पर कोई ठोस बात नहीं कह पाती हैं. क्योंकि अगर अगले महीने उनकी ही तनख्वाह काट ली गई तो उनके लिए बाइयों का खर्चा उठा पाना मुश्किल हो जाएगा.


इतिका शर्मा पुनीत का यह लेख मूल रूप से क्वार्ट्ज पर प्रकाशित हुआ है.