तीन अप्रैल को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को संबोधित किया तो महज दो हफ्ते के भीतर यह उनका तीसरा संबोधन था. सुबह नौ बजे दिये अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने फिर एक विशेष अपील की. इसमें नौ की संख्या का विशेष महत्व था. उन्होंने कहा कि पांच अप्रैल को रात नौ बजे सब लोग नौ मिनट के लिए घर की लाइटें बंद करके एक दीया, मोमबत्ती या मोबाइल फ्लैश लाइट जलाएं. नरेंद्र मोदी का कहना था, ‘तब प्रकाश की उस महाशक्ति का अहसास होगा, जिसमें एक ही मकसद से हम सब लड़ रहे हैं.’ प्रधानमंत्री ने कहा कि कोरोना वायरस से उपजे संकट के अंधकार को चुनौती देता यह 130 करोड़ देशवासियों की महाशक्ति का जागरण होगा.

प्रतीकों के प्रति आकर्षण इंसानी स्वभाव है. अंधकार को चुनौती देती प्रकाश की महाशक्ति का अर्थ समझाने की शायद ही किसी को जरूरत हो. लेकिन प्रधानमंत्री के इस संदेश के बाद जो हुआ वह बताता है कि प्रतीकवाद की राह पर चलते हुए अगर कुछ गहरी बातों का ख्याल न रखा जाए तो वह अनचाही और गंभीर मुश्किलें पैदा कर सकता है. तब मरीज को रोग से ज्यादा इलाज भारी पड़ सकता है.

उदाहरण के लिए खबरें आ रही हैं कि प्रधानमंत्री की इस अपील ने ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े प्रमुख लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं. जानकारों के मुताबिक पॉवर ग्रिड की लाइनों में जो बिजली इधर से उधर होती है उसकी फ्रीक्वेंसी 48.5 से लेकर 51.5 हर्ट्ज के बीच होनी चाहिए. अगर यह बहुत ज्यादा हो जाए - जो तब होता है जब मांग की तुलना में आपूर्ति बहुत ज्यादा हो - तो लाइन ट्रिप कर सकती है. ऐसा ही तब भी हो सकता है जब मामला उलट हो यानी मांग की तुलना में आपूर्ति बहुत कम हो. 2012 में ऐसा हो चुका है जब देश के 60 करोड़ लोगों के घर की बिजली गुल हो गई थी. इसके चलते देश के एक बड़े हिस्से में ट्रेनों सहित कई सेवाएं ठप पड़ गई थीं.

यही वजह है कि पॉवर ग्रिड ने अपने सभी संबंधित अधिकारियों को हाई अलर्ट में रहने को कहा है. पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के कार्यपालक निदेशक आरके अरोड़ा ने इस मामले में अपने अधीनस्थों को पत्र लिखकर कहा है कि ‘इस दौरान ग्रिड में पावर की जरूरत काफी कम हो सकती है. इसकी वजह से कई स्टेशनों पर सिस्टम वोल्टेज अचानक बहुत ज्यादा हो सकता है और इसके चलते ग्रिड ऐलीमेंट्स उड़ सकते हैं...’ इस हालत से बचने के लिए मानव और दूसरे संसाधनों के भारी बंदोबस्त का आदेश देते हुए आरके अरोड़ा ने अपने पत्र में कहा कि ‘5 अप्रैल 2020 के इस आयोजन के दौरान अत्यधिक सावधान रहने की जरूरत है.’ कार्यपालक निदेशक ने पांच अप्रैल को इतनी संख्या में ड्यूटी पर बुलाये जाने वाले लोगों को कोरोना वायरस का शिकार होने से बचने के लिए हर ऐहतियात बरतने का भी आदेश दिया.

बिजली की मांग और आपूर्ति में तालमेल बैठाने में अहम भूमिका निभाने वाले लोड डिस्पैच सेंटरों के मंच (फोल्ड) ने भी इस सिलसिले में एक आपात बैठक की है. इसके अलावा, महाराष्ट्र के ऊर्जा मंत्री नितिन राउत ने लोगों से आग्रह किया है कि प्रधानमंत्री की अपील का पालन करने के दौरान वे घर की लाइटें बंद न करें. उनके मुताबिक इससे नेशनल पॉवर ग्रिड ठप हो सकती है. नितिन राउत का कहना था कि अगर ऐसा हुआ तो सभी आपात सेवाएं भी बैठ जाएंगी. उन्होंने यह भी दावा किया कि ग्रिड को ठीक करने में एक हफ्ता तक लग सकता है.

जाहिर है यह एक अनचाहे संकट की आशंका है जो अगर सच साबित हो तो परेशानियां और बढ़ सकती हैं. लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जनता कर्फ्यू के आह्वान वाले दिन भी ऐसा ही हुआ था. उस दिन शाम के पांच बजे स्वास्थ्यकर्मियों के समर्थन में ताली या शंख या घंटी बजाने की अपील की गई थी, लेकिन कई जगहों पर लोग शंख या घंटे-घडियाल लेकर सड़कों पर जुलूस की शक्ल में निकल पड़े थे. उन्होंने जनता कर्फ्यू को ध्वनि के जरिये कोरोना पर विजय पाने का उत्सव बना दिया. इसमें कई लोगों की शायद गलती भी नहीं थी. उनसे सिर्फ शाम के सात बजे तक घर के अंदर रहने को कहा गया था और इससे दो घंटे पहले उन्हें थाली-घंटे बजाने थे. उन्होंने पांच बजे ऐसा करते हुए सिर्फ दो घंटे पहले जनता कर्फ्यू खत्म कर दिया. अगर उनसे पहले ही कहा जाता कि लॉकडाउन कई दिनों का है तो शायद वे ऐसा नहीं करते. पर कर्फ्यू एक दिन का था, पांच बजे घंटे बजाने थे और हवा में इसके जरिये सबकुछ सही होने की खबरें थीं. नतीजतन जनता कर्फ्यू की कवायद के पीछे का मकसद बेकार हो गया.

ऐसे में कई सवाल उठते हैं कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम में शामिल विशेषज्ञ उन्हें ऐसे फैसलों के बारे में पहले सही जानकारी नहीं देते. अगर इसका जवाब नहीं है तो यह बड़ी गंभीर बात है. और अगर प्रधानमंत्री जनता से अपीलें करने से पहले इन विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा ही नहीं करते तो यह भी कम गंभीर बात नहीं है. थोड़ा और पीछे जाएं तो यही सवाल नोटबंदी जैसे फैसलों तक पर लागू किये जा सकते हैं.

विपक्षी कह रहे हैं कि बेहतर होता प्रधानमंत्री अपने इन संबोधनों में कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए किए जा रहे कामों की प्रगति के बारे में बताते, ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका और कनाडा सहित कई बड़े देशों के मुखिया कर रहे हैं. इसके जवाब में सरकार समर्थकों का तर्क है कि यह काम वित्त मंत्री से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक कर ही रहे हैं. लेकिन फिर सवाल उठता है कि जब अमेरिका जैसे देश के मुखिया को यह जिम्मेदारी इतनी अहम लग रही है कि उसने इसे खुद ही ले रखा है तो भारत में ऐसा क्यों नहीं है. क्यों यहां प्रधानमंत्री का संबोधन सिर्फ प्रतीकों तक सिमटता दिखता है. अगर प्रधानमंत्री ठीक लोकसभा चुनाव से पहले एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण जैसी घोर वैज्ञानिक बात खुद बताने में विश्वास रखते हैं तो इतने मुश्किल समय में लोगों को सरकार के ठोस कामों का विश्वास क्यों नहीं दिला सकते?

इस सवाल का जवाब तथ्यों से समझने की कोशिश करते हैं. अमेरिकी सरकार ने हाल में कोरोना वायरस से पड़ने वाली आर्थिक चोट का मुकाबला करने के लिए दो ट्रिलियन डॉलर के आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है. यानी 140 लाख करोड़ रु से भी ज्यादा की रकम. भारत के मामले में यह आंकड़ा महज 1.76 लाख करोड़ रु है और कहा जा रहा है कि इसका भी एक बड़ा हिस्सा अलग-अलग मदों में पहले से ही आवंटित राशि से बना है. यानी इसमें आंकडों की बाजीगरी की गई है. यही नहीं, ऐसा भी पहली बार हुआ है कि किसी आपदा से निपटने के लिए भारत ने पहली बार विदेशों से आर्थिक मदद लेना स्वीकार किया है.

डोनाल्ड ट्रंप ने यह भी दावा किया है कि उनका देश रोज एक लाख लोगों की टेस्टिंग कर रहा है. उधर, अमेरिका से चार गुना ज्यादा आबादी वाले भारत में एक अप्रैल तक हुई कुल टेस्टिंग का मामला 50 हजार तक भी नहीं पहुंचा था. ज्यादा टेस्टिंग का मतलब यह है कि आप फटाफट ज्यादा से ज्यादा कोरोना संक्रमित मरीजों का पता लगाकर उन्हें आइसोलेट कर सकते हैं और इस आपदा पर काबू पा सकते हैं. दक्षिण कोरिया ने ऐसा ही किया जिसके बारे में हाल तक कहा जा रहा था कि चीन के बाद कोरोना वायरस संकट का दूसरा केंद्र वही होगा. भारत में कम टेस्टिंग को देखकर कई आशंका जता रहे हैं कि असल में यहां कोरोना वायरस के मामलों की संख्या कहीं ज्यादा हो सकती है. यानी दूसरों के मुकाबले हमारे यहां अभी तक कहीं कम मामले हैं, यह संतोष मिथ्या हो सकता है.

आपदा से लड़ने की हमारी तैयारी का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्यकर्मियों के लिए ग्लव और मास्क जैसे बुनियादी सुरक्षा इंतजामों की कमी अब तक सुर्खियां बन रही है. डाक्टरों सहित कई स्वास्थ्यकर्मी सिर्फ इस कारण ही कोरोना वायरस की चपेट में आ चुके हैं. ये वही स्वास्थ्यकर्मी हैं जिनके लिए 22 मार्च को तालियां बजवाई गई थीं. हालांकि ऐसी बातें अभी नक्कारखाने में तूती जैसी दिखती हैं.

एक बार फिर से प्रतीकवाद की तरफ लौटते हैं. ताली बजाने और दिया-मोमबत्ती जलाने को प्रधानमंत्री और उनके समर्थक स्वयं एक प्रतीकात्मक कार्य कह रहे हैं, इसलिए अपने-अपने हिसाब से इसके अर्थ निकाले जा रहे हैं. जैसा कि सोशल मीडिया के इस दौर में अक्सर ही होता है, देश के नागरिकों का एक बड़ा वर्ग अचानक भौतिक विज्ञानी से लेकर ज्योतिषी तक न जाने क्या-क्या हो चुका है. फ्रीक्वेंसी और प्रकाश तरंग जैसे शब्दों के साथ नौ के अद्भुत संयोग बताती व्याख्याओं की भरमार है. ऐसी व्याख्याएं करने वालों में आम नागरिक ही नहीं, डॉ केके अग्रवाल जैसे मशहूर नाम भी शामिल हैं जो दिए जलाने की इस कवायद को एक साथ क्वांटम फिजिक्स और योग वशिष्ठ से जोड़ रहे हैं.

नरेंद्र मोदी की पांच अप्रैल वाली अपील पर कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर का कहना था कि यह भारत के ‘फ़ोटो-ऑप’ प्रधानमंत्री द्वारा पैदा किया एक ‘फील गुड’ क्षण है.’ पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने ट्वीट कर कहा कि प्रतीकवाद महत्वपूर्ण है, लेकिन विचारों और उपायों के लिए गंभीर विचार भी उतना ही महत्वपूर्ण है. उनका यह भी कहना था, ‘प्रधानमंत्री जी, हम आपकी सुनेंगे और पांच अप्रैल को दिया भी जलाएंगे. लेकिन बदले में आप हमारी, महामारी विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की विवेकपूर्ण सलाह को सुनें. उधर, इस पर भाजपा कांग्रेस को राजनीति न करने की नसीहत दे रही है. पार्टी नेता नलिन कोहली का कहना है कि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ एक आशा है.

यानी कोरोना वायरस कब और कैसे खत्म होगा, पता नहीं, लेकिन इससे निपटने का किस्सा फिलहाल ऐसे प्रतीकों पर टिका हुआ ज्यादा दिखाई दे रहा है जो खुद हवा में हैं.