हैदराबाद के रहने वाले जसवंत दडी बीती 18 मार्च को इंग्लैंड से भारत आए थे, यानी यहां लॉकडाउन लगने से पांच दिन पहले. 24 साल के जसवंत इंग्लैंड की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हैं. भारत आने के बाद उन्होंने घर जाने के बजाय एहतियातन ख़ुद को नोएडा के ही एक होटल में क्वारंटीन करने का फ़ैसला लिया. उन्होंने ऐसा अपने परिवार और रास्ते में मिलने वाले अन्य मुसाफ़िरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया था. जसवंत के मुताबिक यह उनका अपना निर्णय था. इसके लिए उन्हें एयरपोर्ट या अन्य किसी जगह पर कोई हिदायत नहीं दी गई थी. लेकिन क्वारंटीन के 14 दिन पूरे करने के बाद उन्होंने जब कोरोना हेल्पलाइन पर अपने स्वास्थ्य की सूचना देने के लिए फ़ोन किया, उनकी मुश्किलें शुरु हो गईं.
सत्याग्रह से हुई बातचीत में जसवंत कहते हैं, ‘इसके बाद एक टीम मेरी जांच करने आई. अगले दिन सैंपल के लिए मुझे अस्पताल ले जाया गया. वहां से मुझे रिपोर्ट आने तक एक सरकारी होस्टल में क्वारंटीन के लिए भेज दिया गया. जबकि मेरा पूरा सामान होटल में था. मैं सिर्फ़ मोबाइल फ़ोन और वॉलेट अपने साथ ले गया था. मुझे किसी ने इस बारे में बताया ही नहीं था, नहीं तो कम से कम कुछ ज़रूरत की चीजें साथ ले जाता. और अगर मैं इतने दिनों से सेल्फ-क्वारंटीन में रह रहा था तो कुछ और दिन भी रह सकता था!’
बकौल जसवंत, ‘वो जगह बहुत ही अनहाइजिनिक थी. वहां के वॉशरूम कॉमन थे और इस्तेमाल करने के लायक़ नहीं थे. न तो मुझे टूथब्रश दी गई और न ही कपड़े. मुझे छह दिन बिना नहाए और बिना ब्रश किए रहने पड़ा. खाने और नाश्ते के लिए सभी को एक जगह इकठ्ठा होना पड़ता था. इससे हमेशा इन्फेक्शन का ख़तरा बना रहता था. जब मैं वहां से वापिस आया तो साथ में रह रहे कई लोगों की रिपोर्ट आनी बाक़ी थी. अब मैं बीते एक सप्ताह से ये जानने की कोशिश कर रहा हूं कि वहां मौजूद कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित तो नहीं था! लेकिन कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिल रहा है. अगर उनमें से किसी को इन्फेक्शन होगा तो मुझे भी हो सकता है. ये स्थिति बहुत परेशान करने वाली है.’

ये कहानी सिर्फ़ जसवंत दडी या देश के सबसे आधुनिक शहरों में शुमार उस नोएडा की ही नहीं है जहां के एक डीएम को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसलिए हटा दिया था क्योंकि वे कथित तौर पर कोरोना महामारी से निपटने में लापरवाही बरत रहे थे. राजधानी दिल्ली के भी एक विकसित इलाके द्वारका में बनाए गए क्वारंटीन सेंटर की ऐसी ही तस्वीरें बीते महीने वायरल हो गई थीं. वहां इटली, स्पेन और फ्रांस से आए कोरोना वायरस के संदिग्ध यात्रियों को रखा गया था. लेकिन उन लोगों ने सेंटर में खाने, पीने और मेडिकल हेल्प जैसी मूलभूत सुविधाएं की कमी से पर्दा हटाते हुए वहां हालातों के बद से बदतर हो जाने का डर जताया था.
जब भारत के सबसे आधुनिकतम और व्यवस्थित कहे जाने वाले शहरों के क्वारंटीन सेंटरों के ये हाल हैं तो देश के पिछड़े इलाक़ों के हालात का अंदाज़ लगाया जा सकता है.
पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले के रहने वाले मोहम्मद अलाउद्दीन क़रीब दो सप्ताह पहले अपने साथियों के साथ बिहार से अपने गृहराज्य लौटे थे. मज़दूरी करने वाले अलाउद्दीन को भूखे-प्यासे बिहार में मरने की बजाय अपने घर जाना ज़्यादा बेहतर लगा. लेकिन जब वे मालदा पहुंचे तो वहां उन्हें इनायतपुर गांव के एक स्कूल में 125 लोगों के साथ क्वारंटीन में रख दिया गया. इनमें महिलाएं भी शामिल थीं. मीडिया से हुई बातचीत में अलाउद्दीन और उनके साथियों ने उस जगह को इतने लोगों के रहने के लिहाज़ से बहुत तंग बताया. यहां किसी तरह की सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर पाना मुश्किल था. इन लोगों की मानें तो उस सेंटर में सवा सौ लोगों के बीच सिर्फ़ चार पाखाने उपलब्ध थे जो हमेशा गंदगी से भरे रहते थे.
वहीं, बिहार के गया ज़िले के शेरघाटी के एक क्वारंटीन सेंटर में रह रहे लोगों की जांच करने गए एक डाक्टर को सेंटर में ही बंधक बना लिया गया. तीस मार्च की इस घटना के दौरान वहां हालात इतने बिगड़ गए कि पुलिस को बुलाना पड़ा. जानकार बताते हैं कि उस क्वारंटीन सेंटर में खाने और रहने की लचर व्यवस्था से तंग आकर लोगों ने अपना आपा खो दिया था. प्रदेश के सुपौल और दरभंगा ज़िले से भी क्वरेंटाइन सेंटरों की ऐसी ही बदहाली की ख़बरें सामने आ चुकी हैं. इससे पहले पटना के बाढ़ इलाके में स्थित एक क्वारंटीन सेंटर से 22 लोग फ़रार हो गए थे.
सीमावर्ती राज्य झारखंड की भी स्थिति कुछ अलग नहीं. वहां के पूर्वी सिंहभूमी ज़िले के सभी 14 क्वारंटीन सेंटरों में बीते सप्ताह तक कुल 823 लोग पहुंचाए जा चुके थे. इन ख़स्ताहाल क्वारंटीन सेंटरों में रखे गए लोगों ने मीडिया के ज़रिए अपील की है कि यदि उन्हें घर नहीं जाने दिया गया तो वे कोरोना नहीं बल्कि भूख से ही मर जाएंगे. बिहार की ही तरह झारखंड के गढ़वा ज़िले के एक क्वारंटीन सेंटर से बीते दिनों छह कोरोना संदिग्ध भाग गए थे.
कश्मीर में पुलवामा क्षेत्र से ताल्लुक़ रखने वाले एक छात्र के खिलाफ सिर्फ़ इसलिए एफआईआर दर्ज़ कर ली गई क्योंकि उसने इलाके के क्वारंटीन सेंटर की खराब स्थिति की फोटो सोशल मीडिया पर शेयर की थी. जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे ओवेस मंज़ूर नाम के इस विद्यार्थी ने फ़ेसबुक पर लिखा था - मैं 20 मार्च को दिल्ली से अपने घर पहुंचा और स्थानीय अधिकारियों को सूचित कर दिया. वे मुझे पुलवामा स्थित सोलेस इंटरनेशनल स्कूल में बने क्वारंटीन केंद्र में ले गए. मैंने उनका पूरा सहयोग किया. लेकिन इसके बाद मैंने ख़ुद को ख़तरे में पाया.
मंज़ूर ने आगे लिखा, ‘सेंटर पर करीब चालीस लोग हैं और हर कमरे में करीब छह लोगों को रखा गया है. हमें मजबूरन एक ही वॉशरूम इस्तेमाल करना पड़ रहा है. जो बिस्तर हमें उपलब्ध कराए गए उनका पहले भी कोई इस्तेमाल कर चुका था. इस कमरे में रह रहे चार लोग तबलीग़ी जमात से संबंधित हैं जिनके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी. इस सर्दी में भी हमारे पास ओढ़ने के लिए कंबल नहीं है. कोई भी सामान्य व्यक्ति ये समझ सकता है कि इस तरह की लापरवाही संक्रमण की आशंकाओं को बढ़ा ही रही है.’ यह जानकारी साझा करने के बाद मंज़ूर की फ़ेसबुक वॉल पर बीते तीन सप्ताह से कोई भी पोस्ट नहीं अपडेट हुई है.
इसी तरह राजस्थान की रहने वाली रीना लखोटिया अपनी फ़ेसबुक पर लिखती हैं कि उनके माता-पिता 20 मार्च को उनके पास जयपुर आए थे. लेकिन उन्हें बिना किसी जांच के ही क्वारंटीन सेंटर भेज दिया गया जहां उन्हें पूरे-पूरे दिन खाना नहीं दिया गया जबकि वे डायबिटीज के मरीज़ थे. मध्यप्रदेश में भी रायसेन स्थित एक क्वारंटीन सेंटर में एक युवक के आत्महत्या की धमकी देने और प्रदेश के अन्य सेंटरों से कोरोना संदिग्धों के भाग जाने की जानकारी मिली है.
उत्तर प्रदेश के ही आगरा में भी बीते दिनों एक महिला आइसोलेशन वार्ड से भाग गई थी. इस महिला के पति में कोरोना वायरस संक्रमण की पुष्टि हो गई थी. बाद में पता चला कि हाल ही में यूरोप से लौटी यह महिला सरकारी स्वास्थ्य कैंप में भर्ती नहीं होना चाहती थी. उसके घरवालों ने दावा किया कि इसकी वजह आगरा के एसएन द्विवेदी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में बने आइसोलेशन वार्ड के गंदे टॉयलेट्स थे. बाद में इस महिला के ससुर पर महामारी एक्ट के तहत मामला दर्ज कर लिया गया जिसमें दो साल तक की जेल का प्रावधान है.
देश भर से हर रोज़ ऐसी न जाने कितनी ख़बरें सामने आ रही हैं. इनमें से कुछ क्वारंटीन सेंटरों से भागने की कोशिश में लोगों की जान जाने की अफसोसजनक जानकारी भी देती हैं. इस सब को लेकर सत्याग्रह की ऐसे कुछ लोगों से भी चर्चा हुई जो अलग-अलग राज्यों के क्वारंटीन सेंटरों पर कुछ दिन रहने के बाद अपने घर आ चुके हैं. ये लोग ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ तो उन सेंटरों पर हुई परेशानियों और वहां की कमियों के बारे में बताते हैं, लेकिन नाम छापने की बात पर पीछे हट जाते हैं. इनमें से अधिकतर को लगता है कि सरकारी व्यवस्थाओं की खामियों को उजागर करना इन्हें बड़ी मुश्किल में डाल सकता है. ऐसी ही एक बुजुर्ग महिला हमें बताती हैं, ‘...और कुछ करने के बजाय यदि किसी बहाने से हमें वापिस क्वारंटीन सेंटर ही भेज दिया गया, तो भी हमारे लिए बड़ी आफत खड़ी हो जाएगी!’
विश्लेषकों के अनुसार भारत में क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटरों को लेकर लोगों में अलग-अलग तरह की भ्रांतियां और आशंकाएं मौजूद हैं. यह बात समझने के लिए हमें दूर जाने की ज़रूरत नहीं. हम ख़ुद से ही पूछ सकते हैं कि हमारे किसी करीबी के क्वारंटीन या आइसोलेशन सेंटर जाने की स्थिति आ पड़ने पर कौन-कौन सी आशंकाएं हमारे मन में घर करने लगेंगी? जानकार बताते हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना संदिग्ध व्यक्तियों की जांच करने गए मेडकिल दस्तों पर हुए हमलों के पीछे यह भी एक बड़ी वजह मानी जा सकती है.
सवाल उठता है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं इतनी लचर क्यों हैं कि देशवासी इस मुश्किल घड़ी में भी उन पर भरोसा के लिए तैयार नहीं! और यह तब है जब हमारे यहां कोरोना संकट अभी नियंत्रण से बाहर नहीं गया है. भारत सरकार ने देश में जितने क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटर तैयार होने के दावे किए हैं उन पर अभी तक अपनी क्षमता से बहुत कम का भी भार नहीं पड़ा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया भाषण में बताया था कि देश ने इस महामारी से निपटने के लिए एक लाख बेड्स की व्यवस्था कर ली है और हमारे 600 अस्पताल विशेष रूप से इसी बीमारी का इलाज करने के लिए तैयार हैं. लेकिन यह तैयारी धरातल पर अभी ही विश्वास जगाती नहीं दिखती है.
हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर उठने वाले तमाम सवालों का पहला जवाब तो यही है कि हमारा देश जन स्वास्थ्य पर जीडीपी का महज 1.28 फीसदी खर्च करता है. अनुपात के हिसाब से देखें तो हम इस मामले में दुनिया के गरीब से गरीब देशों से भी पीछे हैं. विश्व बैंक के मुताबिक निम्न आय वर्ग में आने वाले कई देश भी अपनी जीडीपी का करीब 1.57 फीसदी अपनी जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं देने पर खर्च करते हैं. इसका नतीजा यह है कि स्वास्थ्य संकेतकों के हिसाब से बांग्लादेश, नेपाल और लाइबेरिया जैसे देश भी हमसे आगे हैं.
जानकार मानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की इस बदहाली के लिए पैसे की कमी के साथ कमजोर इच्छाशक्ति भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. स्वास्थ्य मंत्रालय को सलाह देने वाले नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर के पूर्व निदेशक टी सुंदररमन कहते हैं, ‘आदर्श रूप में देखें तो सरकारी अस्पतालों में जरूरत से ज्यादा व्यवस्था होनी चाहिए. मसलन वहां हमेशा कुछ ऐसे अतिरिक्त बेड और उपकरण होने चाहिए जो सामान्य हालात में इस्तेमाल हुए बिना ही रहें.’ उनके मुताबिक इस तरह की चीजें योजनाओं में शामिल होनी चाहिए ताकि संकट के समय जब ज्यादा संसाधनों की जरूरत हो तो ये काम आएं.
भारत इस मोर्चे पर हमेशा से पीछे रहा है. लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में तो स्थितियां और खराब हो चली हैं. टी सुंदररमन कहते हैं कि सरकारी अस्पतालों के हाल में इस गिरावट को वर्तमान सरकार ने तेज ही किया है. उसने इनके बजट में कटौती की है और ये संकेत भी दिए हैं कि वह इन अस्पतालों को आउटसोर्स करने के लिेए भी तैयार है.
जन स्वास्थ्य अभियान की संयुक्त राष्ट्रीय संयोजक सुलक्षणा नंदी मानती हैं कि यह उस विचारधारा का नतीजा है जो मानती है कि सरकार को स्वास्थ्य सुविधाएं खुद देने के बजाय इन्हें निजी संस्थाओं से खरीदना चाहिए. वे कहती हैं, ‘सरकारी अस्पतालों को बनाने और चलाने के बजाय सरकार आयुष्मान भारत जैसी स्कीमों पर पैसा खर्च कर रही है जिससे लोग निजी अस्पतालों से स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ लें.’ वे आगे कहती हैं, ‘लेकिन यह योजना ही गड़बड़ है क्योंकि इसके केंद्र में मुनाफा है. इसके अलावा निजी स्वास्थ्य सुविधाएं शहरों में ही केंद्रित हैं तो सरकार की इस सोच का नुकसान ग्रामीण और आदिवासी आबादी को हो रहा है.’
इन मसलों से निपटना कोई एक दिन की बात नहीं है और समस्या हमारे सर पर है. इस परिस्थिति में क्या ऐसे कुछ कदम उठाये जा सकते हैं जिनसे लोग कोरोना से संक्रमित होने का संदेह होने पर बेझिझक सरकारी संस्थाओं से संपर्क कर सकें? इसका जवाब जसवंत दडी के ही एक पत्र से मिलता है जो उन्होंने क्वारंटीन सेंटर से आने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमओ) को लिखा है. इस चिट्ठी में उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर कुछ ऐसे व्यवहारिक और आसान से उपाय सुझाए हैं जिन पर बिना किसी बड़ी सरकारी कमेटी का गठन किये तुरंत अमल किया जा सकता है.
अपने ख़त में जसवंत लिखते हैं:
1- यदि लोगों को जल्द से जल्द उनकी रिपोर्टें मिलने लगेंगी तो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को संक्रमण की आशंका के साथ क्वारंटीन सेंटर में बिना वजह रुकना नहीं पड़ेगा. इससे क्वारंटीन सेंटरों और उनके प्रबंधन में जुटे कर्मचारियों पर पड़ रहा दबाव घटेगा, वहां सही मायने में ज़रूरतमंद लोगों की देखभाल हो सकेगी और असंक्रमित लोगों के संक्रमित होने की आशंका भी कम हो जाएगी.
2- क्वारंटीन सेंटरों में रखे गए लोगों के लिए चाय, नाश्ता और खाना उनके रहने के स्थान पर ही भिजवा दिया जाए ताकि उनके दिन में तीन बार एक जगह इकठ्ठा होने की नौबत ही न आए. इससे उन लोगों को फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने में बहुत मदद मिलेगी.
3- क्वारंटीन सेंटरों के वॉशरूम संक्रमण के हॉटस्पॉट बन सकते हैं. इसलिए उनकी नियमित सफाई होना बहुत ज़रूरी है. लोगों के कमरों को भी साफ करवाया जाना चाहिए.
4- क्वारंटीन सेंटरों की नियमित गश्त के लिए पेट्रोलिंग टीमों का गठन किया जाना चाहिए जो कुछ-कुछ घंटों के अंतराल में इन सेंटरों की व्यवस्था का जायजा लेने के साथ यहां रह रहे लोगों को समूह बनाने से रोक सकें.
5- लोगों को क्वारंटीन सेंटरों पर ले जाने से पहले उन्हें इसके बारे में जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे थोड़ी तैयारी के साथ वहां जा सकें.
हमारे सिस्टम को चाहिए कि वह जसवंत जैसे ऐसे लोगों को हतोत्साहित न करे जो एक जागरुक नागरिक होने की सभी शर्तों को पूरा करते हुए प्रशासन की मदद करना चाहते हैं और बाकियों में अपने प्रति विश्वास जगाने के लिए जो कर सकता है वह करे. अन्यथा कोरोना संदिग्धों को क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटरों पर लाने और वहां रोके रखने में ही उसकी तमाम ऊर्जा व्यर्थ होती रहेगी.
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