बीते सोमवार को अमेरिका के तेल बाजार में कुछ ऐसा हो गया जो कभी नहीं हुआ था. पूरी दुनिया में सबसे बढ़िया क्वालिटी का कच्चा तेल माने जाने वाले वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) की कीमत एक समय पर -40.32 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गईं. यानी एक बैरल डब्ल्यूटीआई खरीदने पर आपको कोई पैसा नहीं देना था बल्कि उल्टे बेचने वाला आपको 40.32 डॉलर देता. फिलहाल यह -4 डॉलर के आसपास है. इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. अब तक के इतिहास में कच्चे तेल की सबसे कम कीमत दूसरे विश्व युद्ध के फौरन बाद दर्ज हुई थी, लेकिन तब भी वह माइनस में नहीं गई थी.

लेकिन यह बेतुकी बात कैसे संभव है? क्या यह कोरोना वायरस संकट का नतीजा है?

कच्चा तेल दो तरह का होता है. पहला ब्रेंंट और दूसरा जिसकी बात शुरुआत में हुई यानी डब्ल्यूटीआई. दुनिया का करीब दो तिहाई तेल कारोबार ब्रेंट में ही होता है जिसके उत्पादकों में सऊदी अरब का पहला नंबर है. भारत ब्रेंट ही खरीदता है और आमतौर पर ब्रेंट को ही कच्चे तेल का पर्याय माना जाता है. उधर, अमेरिकी कच्चे तेल को डब्ल्यूटीआई कहा जाता है. डब्ल्यूटीआई में सल्फर की मात्रा ब्रेंट से कम होती है. ब्रेंट का भाव फिलहाल 19 डॉलर प्रति डॉलर के आसपास है.

तेल बाजार के मौजूदा संकट को समझने के लिए बात कुछ महीने पहले से शुरू करनी होगी. कच्चे तेल की कीमत कोरोना वायरस संकट के इस कदर गहराने से पहले ही गिरती जा रही थी. 2020 की शुरुआत में यह 60 डॉलर प्रति बैरल के करीब थी. मार्च का आखिर आते-आते यह आंकड़ा 20 के आसपास पहुंच गया. ऐसा क्यों हुआ, यह समझना मुश्किल नहीं है. कीमत का सारा खेल मांग और आपूर्ति के समीकरण पर निर्भर करता है. किसी चीज की आपूर्ति ज्यादा हो और मांग कम तो कीमत घटती है. मौजूदा हालात में यही हुआ है.

सबसे ज्यादा कच्चा तेल निर्यात करने वाले देशों का एक संगठन है जिसका नाम है ओपेक. दुनिया में इस तेल की मांग का 10 फीसदी अकेले पूरा करने वाला सऊदी अरब ओपेक का मुखिया है. कुछ समय पहले तक ओपेक एक गठजोड़ की तरह काम करते हुए तेल की कीमत अपने हिसाब से तय करता था. दाम घटाना है तो वह उत्पादन बढ़ा देता था और दाम बढ़ाना है तो वह उत्पादन में कमी ले आता था. कुछ समय पहले तक उसने ऐसा करने के लिए रूस के साथ भी गठजोड़ किया हुआ था जिसे ओपेक प्लस कहा जाता था.

कुल मिलाकर दुनिया में तेल की कीमतें एक बड़ी हद तक यही देश तय कर रहे थे. लेकिन मार्च में सऊदी अरब और रूस के बीच अनबन हो गई. असल में जब कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ा तो कई देशों ने एहतियात के तौर पर अपने कारखानों और सार्वजनिक परिवहन पर रोक लगा दी. दुनिया भर में अन्य देशों के नागरिकों के आने पर लगी पाबंदी की वजह से उड़ानों में भी भारी कमी आयी. इन फैसलों का सीधा असर तेल की खपत और उसके आयात पर पड़ा.

तेल का आयात कम करने वालों में सबसे पहला नाम चीन का और दूसरा इटली का था. ये दोनों ही देश कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालों में से हैं. इनके द्वारा तेल के आयात में की गयी कटौती सऊदी अरब के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं थी. ऐसा इसलिए कि जहां चीन सऊदी अरब के तेल का सबसे बड़ा खरीदार है वहीं, यूरोप के तीन सबसे बड़े तेल खरीदारों में से एक इटली भी उससे ही सबसे ज्यादा तेल खरीदता है.

अपने तेल के निर्यात में गिरावट ने सऊदी अरब को चिंतित कर दिया. ऐसा होना ही था क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था तेल की कमाई से ही चलती है. इस संकट से उबरने के लिए उसने एक बैठक बुलाई जिसमें रूस भी शामिल हुआ. बैठक में सऊदी अरब ने ओपेक के सदस्य देशों और रूस के सामने कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती करने का प्रस्ताव रखा. उसका कहना था कि कोरोना वायरस के चलते अंतरराष्ट्र्रीय बाजार में तेल की मांग में कमी आयी है, ऐसे में अगर सभी ओपेक सदस्य देश और रूस तेल के उत्पादन में कमी करेंगे तो कीमतों में ज्यादा गिरावट नहीं आएगी.

लेकिन रूस तेल की कीमत को बढ़ाने के बजाय इसे 50 डॉलर प्रति बैरल पर स्थिर रखना चाहता था. असल में वह अमेरिका द्वारा अपनी तेल कंपनी कंपनी रोसनेफ्ट पर लगाये गए प्रतिबंधों से नाराज था और तेल के दाम कम करके अमेरिकी शेल ऑयल कंपनियों को नुकसान पहुंचाना चाहता था. इन कंपनियों की तेल उत्पादन की कीमत काफी ज्यादा है. ऐसे में अंतराराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत ज्यादा कम होने से इनमें से कई कंपनियां दिवालिया भी हो सकती हैं. रूस हमेशा से यह चाहता रहा है कि अमेरिकी शेल ऑयल कंपनियों को बाजार से बाहर कर दिया जाए. लेकिन ओपेक देश और खासकर अमेरिका का सहयोगी सऊदी अरब उसे ऐसा नहीं होने देते थे. बैठक के आखिर में ओपेक के सदस्य देशों ने तेल उत्पादन कम करने का फैसला किया जिसे मानने से रूस ने इनकार कर दिया.

उधर, सऊदी अरब ने एक चौंकाने वाला फैसला लिया. उसने अब कच्चे तेल का उत्पादन घटाने के बजाय पहले से भी ज्यादा करने का ऐलान कर दिया. इस मामले पर करीब से निगाह रख रहे जानकारों के मुताबिक कोई तेल निर्यातक देश ऐसा कदम तब उठाता है, जब उसे किसी दूसरे देश के तेल के खरीदारों में सेंधमारी करनी होती है. इनके मुताबिक सऊदी अरब तेल की कीमतें कम करके रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार यूरोपीय देशों को अपनी ओर खींचना चाहता था. इसका नतीजा यह हुआ कि तेल की कीमत और भी गिर गई.

इसी दौरान कोरोना वायरस बड़ी तेजी से फैल रहा था और जो पहले चीन और इटली में हो रहा था वह अन्य देशों में भी देखने को मिलने लगा. अब पूरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियां सुस्त पड़ रही थीं. दुनिया भर में कारों-बसों और हवाई जहाजों के चक्के थम रहे थे. नतीजतन कच्चे तेल के उत्पादकों के लिए हालात बदतर होते चले गए. अब तक सभी की समझ में यह आ चुका था कि जल्दी ही कुछ नहीं किया गया तो कोरोना संकट के चलते पहले से ही मुश्किल आर्थिक हालात कई देशों की हालत खस्ता कर सकते हैं. ऐसे में बीते हफ्ते अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दबाव के बाद सऊदी अरब और रूस ने अपने मतभेद सुलझा लिए. लेकिन बात तब तक हाथ से निकल चुकी थी.

अब तेल उत्पादक देश रोज अपने उत्पादन में 60 लाख बैरल की कटौती कर रहे हैं जो अब तक की सबसे बड़ी कटौती है. लेकिन तेल की मांग रोज करीब एक करोड़ बैरल के हिसाब से घट रही है. सऊदी अरब सहित कोई भी देश अपना उत्पादन पूरी तरह से रोक नहीं सकता क्योंकि उसे फिर शुरू करना काफी खर्चीला और मुश्किल काम है. इसके अलावा दूसरे प्रतिस्पर्धी द्वारा बाजार में सेंध लगाने का जोखिम भी है. इसलिए अतिरिक्त उत्पादन को स्टोर किया जा रहा है. लेकिन इसकी भी एक सीमा है. यहां तक कि वे ट्रेनें और टैंकर भी अब भर चुके हैं जिन्हें सप्लाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है. बताया जा रहा है कि इस समय करीब 14 करोड़ बैरल तेल ‘वेरी लार्ज क्रूड करियर्स’ यानी वीएलसीसी कहे जाने वाले समुद्री टैंकरों में लदा है और सागरों में गोते खा रहा है. चरम खपत के दिनों में दुनिया रोज करीब नौ करोड़ बैरल खपाती थी. यह आंकड़ा आज इससे काफी कम हो चुका है.

खैर, वापस डब्ल्यूटीआई की कीमतों पर आते हैं. निमेक्स यानी न्यूयॉर्क मर्केंटाइल एक्सचेंज में डब्ल्यूटीआई की बिक्री और खरीद फ्यूचर कॉन्ट्रैक्ट्स के जरिये होती है. ये कॉन्ट्रैक्ट्स महीने के हिसाब से होते हैं जैसे मई फ्यूचर्स, जून फ्यूचर्स आदि. इन कॉन्ट्रैक्ट्स को बेचने वाले को पहले से ही तय कीमत के हिसाब से खरीदार को संबंधित महीने की एक तय तारीख को तेल की डिलीवरी देनी होती है और खरीदार को यह लेनी होती है. इसे एक तरह का वायदा बाजार समझ सकते हैं.

जानकारों के मुताबिक मई के डब्ल्यूटीआई कॉन्ट्रैक्ट्स के मुताबिक तेल की डिलीवरी लेने की आखिरी तारीख 21 अप्रैल थी. लेकिन 20 अप्रैल को कई खरीदारों ने डिलीवरी लेने से इनकार कर दिया. इसकी वजह यह थी कि बिक्री घटने के चलते उनके पास पहले से ही तेल का काफी स्टॉक पड़ा हुआ था. ऐसी हालत में नए माल को स्टोर करने के लिए उन्हें नए गोदाम तलाशने पड़ते और उनका किराया देना पड़ता. अर्थव्यवस्था के हालात देखते हुए पूरी संभावना थी कि उन्हें यह किराया लंबे समय तक देना पड़ता. स्टोरेज की मांग देखते हुए किराया भी इन दिनों बढ़ गया है. ऊपर से तेल को गोदाम तक पहुंचाने का खर्च अलग. इसके बजाय खरीदारों को कॉन्ट्रैक्ट का एडवांस जब्त करवाना कम घाटे का सौदा लगा.

उधर, बेचने वाले यानी तेल उत्पादकों के भंडार भी भरे हुए हैं और उत्पादन जारी है. इसका मतलब यह है कि उन्हें किसी भी तरह माल बेचना है, भले ही कितनी ही कम कीमत पर क्यों न बेचना पड़े. ऐसा न करने पर उत्पादन बंद करना पड़ेगा जोकि और भी ज्यादा घाटे का सौदा है.

कुल मिलाकर दोनों पक्ष किसी भी तरह तेल से पीछा छुड़ाना चाह रहे थे. इसके चलते मोलभाव होता रहा और कीमतें शून्य पर जाने के बाद माइनस में पहुंच गईं. एक समय तो स्थिति यह हो गई कि दोनों पक्षों के लिए 40 डॉलर खर्च करके एक बैरल तेल से पीछा छुड़ाना इसे स्टोर करने (खरीदार के लिए) या फिर उत्पादन रोकने (विक्रेता के लिए) की तुलना में कम घाटे का सौदा हो गया.

फिलहाल यह स्थिति सुधरी है लेकिन ज्यादा नहीं. डब्ल्यूटीआई के दाम अभी भी माइनस में ही हैं. तेल से दुनिया की गाड़ी दौड़ती है. लेकिन कोरोना वायरस ने तेल की दुनिया के खिलाड़ियों की गाड़ी थाम दी है.