बीते हफ्ते पहले इरफान खान की मौत की खबर आई और इसके एक दिन बाद ही ऋषि कपूर चल बसे. इन दोनों दिग्गज अभिनेताओं के जाने का कारण एक ही रहा और वह था कैंसर. इरफान और ऋषि कपूर ने काफी समय तक विदेशों में इस बीमारी का इलाज करवाया. कुछ समय पहले वापस आने के बाद से वे मुंबई के ही अस्पतालों में आ-जा रहे थे. कोरोना वायरस संकट के चलते इन दिनों सभी एयरलाइंस बंद हैं और लगभग सभी देशों ने अपनी सीमाएं भी बंद कर रखी हैं. कह सकते हैं कि अगर ये दोनों अभिनेता कुछ बेहतर संभावनाओं की उम्मीद में देश से बाहर जाना भी चाहते तो वह शायद ही संभव हो पाता.
भारत में कैंसर के 25 लाख से भी ज्यादा मरीज हैं. इनमें हर साल औसतन आठ लाख लोग जुड़ जाते हैं. कोरोना वायरस और उसके चलते पैदा हुए हालात ने इन लाखों लोगों की मुश्किलों का पहाड़ और बड़ा कर दिया है.
इसकी पहली वजह तो यही है कि कैंसर के इलाज के दौरान कीमो और रेडिएशन थेरेपी से गुजर रहे लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता काफी कम हो जाती है. ऐसे में दूसरों के मुकाबले उन्हें किसी भी संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है और ऐसा होने पर उनकी हालत गंभीर होने की आशंका भी ज्यादा होती है. जानकारों के मुताबिक अगर सीधे-सीधे कहा जाए तो कैंसर के दूसरे चरण यानी सेकेंड स्टेज वाला कोई मरीज कोरोना वायरस संक्रमण के चलते कहीं जल्दी दम तोड़ेगा.
इसे उस चीन के उदाहरण से समझा जा सकता है जहां कोरोना वायरस के संक्रमण की शुरुआत हुई थी. आंकड़े बताते हैं कि वहां कैंसर के जिन मरीजों को इस वायरस का संक्रमण हुआ उनमें मृत्यु दर 40 फीसदी थी. आम तौर पर यह तीन फीसदी के आसपास घूमती है. फिलहाल पूरी दुनिया सहित भारत में भी आलम यह है कि धीरे-धीरे सभी अस्पताल कोरोना वायरस के मरीजों से भरते जा रहे हैं. इसके चलते जहां मुमकिन है वहां डॉक्टर कैंसर के मरीजों को घर पर ही रहने की सलाह दे रहे हैं.
लेकिन लॉकडाउन खिंचता जा रहा है और लंबे समय तक घर पर रहने के अपने जोखिम हैं. इनमें से एक है तनाव जो रोग प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यूनिटी पर बुरा असर डालता है और कैंसर जैसी बीमारी से जूझ रहे मरीजों के लिए स्थितियां और भी मुश्किल बनाता है. जैसा कि अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस के एमडी एंडरसन कैंसर सेंटर से जुड़े डॉक्टर अनिल के सूद कहते हैं, ‘लंबे समय तक चलने वाला तनाव कैंसर की कई तरह से फैलने में मदद करता है.’
इसके अलावा कैंसर के इलाज या जांच की सुविधा अभी सिर्फ बड़े शहरों में ही है. कइयों के लिए यह एक और बड़ी मुश्किल है. इन दिनों देशव्यापी लॉकडाउन के चलते कहीं भी आना-जाना मुश्किल है. अगर निजी वाहन नहीं है तब अस्पताल पहुंचने का अकेला तरीका एंबूलेंस ही हैं और उसका इस्तेमाल केवल आपात स्थितियों में ही किया जा सकता है. इसका मतलब यह है कि कई मामलों में कैंसर की पहचान और उसके इलाज की शुरुआत टलती जा रही है. कई मामले ऐसे भी हैं जिनमें वाहन की व्यवस्था तो है लेकिन मरीज की हालत उसे लंबी सड़क यात्रा की इजाजत नहीं देती. यही वजह है कि मरीजों की एक बड़ी तादाद अस्पताल ही नहीं पहुंच पा रही है.
मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. यहां हर दिन कैंसर के करीब डेढ़ हजार मरीज पहुंचते हैं जिनमें करीब 85 फीसदी दूसरे राज्यों से आते हैं. खबरें बता रही हैं कि लॉकडाउन के चलते यह संख्या काफी कम हो गई है. खुद अस्पताल एक तिहाई क्षमता के साथ ही चल रहा है क्योंकि उसके ज्यादातर कर्मचारी या तो घर से काम कर रहे हैं या छुट्टी पर हैं या फिर उन्हें रोज काम पर नहीं बुलाया जा रहा है.
लेकिन जो मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं उनके लिए भी मुश्किलें कम नहीं हैं. उन्हें संक्रमण का खतरा तो है ही ज्यादातर अस्पतालों की ओपीडी भी बंद हैं या फिर आंशिक रूप से काम कर रही हैं. बेड, आईसीयू या डायलिसिस मशीनों जैसे संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा भी कोरोना वायरस से लड़ाई में झोंक दिया गया है. कैंसर के मामलों में सिर्फ उन्हीं की सर्जरी या फिर कीमो-रेडिएशन थेरेपी हो रही है जो गंभीर स्थिति में हैं. नए मरीजों के मामले में इसे टाला जा रहा है.
यह स्थिति काफी खतरनाक है. जैसा कि एक वेबसाइट से बातचीत में द गुजरात कैंसर एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ शशांक पांड्या कहते हैं, ‘कुछ हफ्ते ऐसा और चला तो ऐसे कई मरीजों में कैंसर उस स्टेज तक पहुंच जाएगा जहां सर्जरी से कोई फायदा नहीं होगा.’ जानकारों के मुताबिक कई मरीजों में यह बीमारी चार हफ्ते के भीतर एक से दूसरे स्टेज में जा सकती है और इसके चलते मरीज के बचने की संभावनाएं काफी घट जाती हैं.
उधर, कई मरीज ऐसे हैं जिनकी सरकारी अस्पतालों में कीमोथेरेपी चल रही थी, लेकिन इन अस्पतालों में अब सिर्फ कोरोना वायरस के मरीजों का इलाज हो रहा है सो उन्हें किसी दूसरे सरकारी या निजी अस्पताल से थेरेपी जारी रखने को कहा जा रहा है. लेकिन खबरें बता रही हैं कि ज्यादातर मामलों में दूसरे अस्पताल भी संसाधन सीमित होने की वजह से ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं और जो ऐसा कर सकते हैं उनके यहां केवल पैसे वाले ही अपना इलाज करवा सकते हैं.
इसके अलावा ऐसे भी मरीज हैं जो घर से इलाज कराने दिल्ली जैसे शहरों में आए थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते यहां फंसकर रह गए. मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के रहने वाले विजय सहाय भी उनमें से एक हैं. उनके 13 साल के बेटे को ब्लड कैंसर है. वे इलाज कराने दिल्ली के एम्स आए थे लेकिन बीते करीब एक महीने से यहीं फंसे हैं. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में वे कहते हैं, ‘मैं 15 मार्च से यहां हूं. एम्स के डॉक्टरों ने कुछ दवाइयां लिखी थीं, लेकिन वे बहुत महंगी हैं. किसी ने मुझे बताया कि तुम्हारे पास बीपीएल कार्ड है तो दवाइयों का पैसा नहीं लगेगा. मैं कार्ड लेने घर जाना चाहता हूं, लेकिन कैसे जाऊं?’
यहां पर इस मुद्दे का सिरा एक दूसरी समस्या से भी जुड़ता है. कोरोना वायरस के चलते घोषित देशव्यापी लॉकडाउन ने एक बड़ी आबादी की आजीविका पर चोट की है और उसके लिए आर्थिक मोर्चे पर हालात चुनौतीपूर्ण बना दिए हैं. इसमें कई ऐसे लोग हैं जो खुद का या अपने परिवार के किसी सदस्य का कैंसर का इलाज करवा रहे हैं. कितने भी इंतजाम करने या जुगत लगाने के बावजूद ऐसे लोगों के लिए यह कवायद आर्थिक रूप से पहले ही बहुत भारी थी. जाहिर है नए हालात ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है.
कुल मिलाकर कैंसर के मरीजों के लिए यह इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति हो गई है. अनुमान लगाया जा रहा है कि ऐसे ही चलता रहा तो इस बीमारी से देश में हर साल मरने वाले औसतन छह लाख लोगों के आंकड़े में काफी बढ़ोतरी हो सकती है. यही वजह है कि कई विशेषज्ञ सरकार को अब इस तरफ भी अपना ध्यान बढ़ाने की सलाह दे रहे हैं.
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