आज सीतानवमी है. सीता का दिन. समय-समाज कोरोना काल से न गुजर रहा होता, सब सामान्य होता तो आज मिथिला और जनकपुर इलाके में यह पर्व खूब धूमधाम से मनता. राम को लेकर अनेक कहानियां लिखी गयीं. अनेक ग्रंथ. अलग-अलग कहानियों के साथ. सीता को लेकर भी स्वतंत्र काम हुए. रामायण की तर्ज पर ही सीतायन की भी रचना हुई थी. बालकांड, मधुरमाल कांड, जयमाल कांड, रसमाल कांड, सुखमाल कांड, रसाल कांड जैसे खंडों में बांटकर. जनकपुर के स्वामी रामप्रिया शरणजी ने इसकी रचना की थी. मैथिली में. इसकी भी चर्चा एक समय में खूब हुई थी.
सीता को केंद्र में रखकर रची गयी कृतियों में से ही एक किताब प्रकाशित हुई थी ‘सीता-चरित्र’. इसकी रचना अवध के रहने वाले दयाचंद्र गोयलीय ने की थी. लखनऊ के रहने वाले. प्रकाशन 1914 में हुआ था. जब यह किताब आयी थी तो खूब चर्चा में रही थी. लेकिन धीरे-धीरे यह प्रकाशन से बाहर हो गई और लोकमानस में सीता-चरित्र की कहानी आगे नहीं बढ़ सकी.
सीता-चरित्र एक दिलचस्प किताब है. गोयलीय ने जिस तरह से इस किताब के बारे में प्रस्तावना में लिखा है, उससे लगता है कि वे इसे लिखने से पहले तरह-तरह की रामकथाओं से गुजरे होंगे. खूब अध्ययन किये होंगे.
इस किताब में कहानी है कि सीता का अपहरण रावण कोई साधु बनकर, लक्ष्मण रेखा पारकर नहीं करता. बल्कि वह अपनी बहन सूर्पणखा के बेटे शंबूक की हत्या का बदला लेने वहां आता है. शंबूक एक पेड़ के खोड़रे में वर्षों से ध्यानस्थ था, लक्ष्मण यह जान नहीं पाते, वे पेड़ को काटते हैं, शंबूक मारा जाता है. रावण अपने भांजे का ही बदला लेने आता है. उसकी विशाल सेना देखकर लक्ष्मण युद्ध के लिए निकलते हैं और राम को कह जाते हैं कि आप सीता की रक्षा करें, मैं सिंह गर्जना करूंगा तो आइयेगा. रावण वहां पहुंचकर सीता जी को देखता है और उन पर मोहित हो जाता है, वह सिंह गर्जना कर देता है. राम लक्ष्मण के पास निकल जाते हैं, रावण सीता का अपहरण कर लेता है.
इस किताब में एक कहानी यह भी है कि सीता जब लंका से लौटने के बाद अयोध्या में राम द्वारा तजी जाती हैं तो वे किसी ऋषि के आश्रम में नहीं रहती बल्कि बेसुध पड़ी रहती हैं. पुंडरिक राज के राजा वज्रजंघ उसी समय वहां हाथी का शिकार करने पहुंचे होते हैं और वे सीता को अपनी बेटी बनाकर अपने घर ले जाते हैं. उनके यहां ही लव-कुश का जन्म होता है लेकिन इस किताब में लव का नाम लवण और कुश का नाम अंकुश रखा जाता है.
लव-कुश वहीं पलते हैं. उन्हें फिर एक दिन नारदजी मिलते हैं, वे नारदजी को प्रणाम करते हैं तो नारद लव-कुश को राम-लक्ष्मण सा बलवान और वीर होने का आशीर्वाद देते हैं. लव-कुश अब तक राम और लक्ष्मण को जानते नहीं हैं. नारद उन्हें विस्तार से बताते हैं और साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि तुम्हारे पिता ने तुम्हारी माता को अकारण तजा है. लव और कुश राम और लक्ष्मण से बदला लेने के लिए तैयार होते हैं. सीता जब नारद से नाराज होती हैं तो वे कहते हैं कि उन्होंने राम और लक्ष्मण के बारे में पूछा तो मैंने बताया. इसके बाद सीता बहुत मना करती हैं अपने बेटों को लेकिन वे अपनी मां के अपमान का बदला लेने के लिए निकल जाते हैं. लक्ष्मण युद्ध में आते हैं लेकिन उनके सारे वार खाली जाते हैं. सीता इस युद्ध को आकाश से देख रही होती हैं. उसी समय वहां नारद आते हैं और लक्ष्मण के पूछने पर बताते हैं कि ये सीता के बेटे हैं, इन्हें हराना इतना आसान नहीं. इस तरह फिर राम और सीता का मिलन होता है. ऐसी अनेकों कहानियां इस किताब में हैं.
सीता-चरित्र की सबसे दिलचस्प कहानी सीता के जन्म से उनके विवाह तक की कहानी है. सीताचरित्र के अनुसार सीता का जन्म अकेले नहीं हुआ था बल्कि उनकी माता सुनयना ने जुड़वां संतानों को जन्म दिया था. एक बेटा और एक बेटी. एक राक्षस की पुरानी दुश्मनी जनक से थी. जन्म के बाद ही राक्षस सीता के भाई को लेकर उड़ गया और आकाश में उड़ते हुए जमीन पर पटक दिया. यह सोचकर कि जमीन पर गिरकर जनक का बेटा मर जाएगा. लेकिन ऐसा हो न सका. जिस समय राक्षस ने बच्चे को आकाश से जमीन पर गिराया, उसी समय जनकपुर के पास के ही रथनृपर राज के राजा चंद्रगति वहां से गुजर रहे थे. उन्होंने बच्चे को देखा. राजा-रानी उसे उठाकर घर ले गये. बच्चे का नाम रखा गया भामंडल.
बेटे के जाने के बाद काफी दिनों तक तो सुनयना संताप में रहीं, जनक भी, लेकिन धीरे-धीरे सीता ने अपनी विनम्रता और व्यवहार से उनके दुखों को कम कर दिया. सीता बड़ी होने लगीं और उनके रूप-गुणों की चर्चा चारों ओर होने लगी. अब राजा जनक और सुनयना ने आपस में विचार किया कि अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे राम ही सीता के योग्य हैं. राजा दशरथ से जनक की मित्रता भी थी. युद्ध में दोनों एक-दूसरे को अपनी सेना देकर सहयोग भी किया करते थे.
यह बात देवलोक तक फैली कि जनक अपनी बेटी का विवाह राम से करना चाहते हैं. नारद ने जब यह बात सुनी तो उन्हें जिज्ञासा हुई कि आखिर सीता कैसी है, जिसकी चर्चा इतनी हो रही है. वे जनकपुर पहुंचे. साधु का रूप धारण किये हुए. नारद जिस समय वहां पहुंचे, सीता आईने में अपना रूप निहार रही थीं. नारद पीछे खड़े हो गये. सीता उन्हें देखकर डर गयीं. वे भागने लगीं. नारद भी पीछे जाने लगे तो द्वारपालों-सेवकों ने उन्हें रोक दिया. नारद को यह अपना अपमान लगा. वे सीता से बदला लेना तय किये वहां से चले आये.
इसके बाद नारद ने सीता की एक तसवीर बनाई. ऐसी मानो सीता सामने सजीव खड़ी हों. उस तसवीर को लेकर वे रथनृपुर राज में पहुंचे. भामंडल के पास. भामंडल सीता की तसवीर को देखते ही उन पर मोहित हो गया. नारद यही चाहते थे. भामंडल जिद पर अड़ गया कि अब वह ब्याह करेगा तो इसी लड़की से. भामंडल के पिता चंद्रगति ने समझाया कि जनक वगैरह छोटे कुल के राजा हैं. किसानी-गोपालन करने वाले राजा. हम लोग विद्याधरी कुल के हैं. विद्वान कुल के. ऐसे छोटे कुल में क्या और क्यों कर शादी करना? पर भामंडल था कि मानने को तैयार ही नहीं. उसने खाना-पीना छोड़ दिया. थक-हारकर चंद्रगति ने अपने सेवकों को जनक को बुलाने भेजा.
जनक रथनृपुर पहुंचे. चंद्रगति ने प्रस्ताव दिया कि अपनी बेटी की शादी मेरे बेटे भामंडल से कर दें. लेकिन जब राजा जनक ने उन्हें अपने मन की बात बतायी कि वे अपनी बेटी की शादी दशरथ कुमार राम से करना चाहते हैं तो चंद्रगति गुस्से में आ गया. उसने दशरथ के सामने एक शर्त रखी. उसने अपने पास से सागरवार्त धनुष जनक को दिया. कहा, जिस राम से अपनी बेटी ब्याहना चाहते हो वह सिर्फ इस धनुष को चढ़ा भर दें तो ब्याह कर देना. और अगर ऐसा नहीं हुआ तो जनकपुर से जबर्दस्ती उठाकर लायेंगे सीता को. जनक ने शर्त मंजूर की. वे धनुष लेकर जनकपुर लौटे.
इधर भामंडल अपनी जिद पर अड़ा हुआ था और उधर राम ने धनुष चढ़ा दिया. इसके बाद गुस्से और क्रोध से भरा हुआ भामंडल अयोध्या पर चढ़ाई करने चला. राम को मारने, सीता को लाने. लेकिन रास्ते में ही उसे मालूम पड़ गया कि वह जिस सीता के लिए परेशान है, वह उसकी बहन है. इसके बाद भामंडल ग्लानि से भर गया. वह पश्चाताप में रहने लगा. सीता के पास गया. खूब रोया. भाई-बहन एक दूसरे का गले लगकर विलाप करते रहे. यह खबर भामंडल के पिता चंद्रगति को मिली कि वे जिस सीता से भामंडल की शादी करना चाहते थे, वह तो भामंडल की बहन है, तो वे भी शोकग्रस्त हो गये. दुख में वे राज त्याग कर वानप्रस्थी बन गये. इसके बाद भामंडल सीता के भाई का कर्तव्य आखिरी समय तक निभाता रहा. सीता के करीब रहकर. रावण से लड़ाई में राम की सेना की ओर से प्रमुख योद्धा बनकर.
सीता की यह कहानी कहीं आती नहीं लेकिन गोयलीय ने इस पूरी किताब में सीता को केंद्र में रखकर ऐसी कहानियां लिखी हैं जो रामचरितमानस की कहानी से या उत्तर भारत में लोकप्रिय या जनमानस में स्थापित राम-सीता की कहानी से मेल नहीं खातीं. लेकिन इन कहानियों को गोयलीय ने बहुत सावधानी से लिखा है. सीता-चरित्र लिखते समय वे कहीं राम के मान-मर्यादा को कम नहीं करते. उसे बरकरार रखते हुए वे सीता के चरित्र को स्वतंत्र रूप से गढ़ते हैं.
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