भारत में कोविड-19 फैलने की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है. अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाली भारतीय कंपनियों में से अधिकांश की हालत बुरी है. इनमें से कई ऐसी हैं जिनके लिए आगे कारोबार करना मुश्किल हो सकता है तो कई कंपनियों को आगे काम करने के लिए निवेश की जरूरत पड़ेगी.
आम तौर पर जब किसी अर्थव्यवस्था में ऐसी स्थिति पैदा होती है तो यह देखा गया है कि कंपनियों में निवेश का निर्णय मजबूरी में होता है और उनकी खरीद-बिक्री भी दबाव में ही होती है. ऐसी परिस्थितियों का फायदा अक्सर वैसे लोग, कंपनियां या देश उठाते हैं जिनके पास बड़ी पूंजी होती है. संकट का सामना कर रही कंपनियों में ये मनमानी शर्तों पर निवेश करते हैं और उन्हें मनमाफिक कीमतों पर खरीदते हैं.
कोरोना संकट के बढ़ते जाने की वजह से दुनिया के कई देशों के साथ-साथ भारत में भी इस तरह की चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं. दुनिया के तमाम देशों के विशेषज्ञ यह आशंका जता रहे हैं कि संकट की इस परिस्थिति का सबसे ज्यादा लाभ चीनी कंपनियां उठा सकती हैं. जानकारों का मानना है कि चीन की कंपनियां भारत समेत दूसरे देशों की कई कंपनियों में निवेश करने और उन्हें औने-पौने दामों में खरीदने की रणनीति अपना सकती हैं.
भारत की कंपनियों को ऐसी चीनी आक्रामकता से बचाया जा सके, इसके लिए केंद्र सरकार ने एक अहम निर्णय लिया है. इसके मुताबिक भारत की भौगोलिक सीमा जिन देशों से जुड़ी हुई है, उन देशों की कंपनियां अब यहां सीधा निवेश नहीं कर सकती हैं. इस विषय को समझने के लिए विदेशी निवेश संबंधित कुछ बुनियादी बातों को जानना जरूरी है. भारत में विदेशी निवेश के लिए दो तरीके हैं. कुछ क्षेत्रों की कंपनियों में एक निश्चित प्रतिशत तक निवेश करने की सीधी छूट सरकार ने दी है. इसके लिए सरकार की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है. तकनीकी भाषा में इस तरह के निवेश के रास्ते को ऑटोमैटिक रूट कहा जाता है. वहीं दूसरी तरफ कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें विदेशी निवेश के लिए सरकार से मंजूरी लेनी होती है. जिन क्षेत्रों में सीधे निवेश की छूट है, उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनमें एक निश्चित सीमा से अधिक निवेश के लिए सरकार की मंजूरी अनिवार्य होती है.
इस जानकारी के संदर्भ में अगर सरकार के हालिया निर्णय को देखेंगे तो पता चलता है कि भारत सरकार ने किसी भी देश से होने वाले निवेश को रोका नहीं है. दरअसल उसने अपने पड़ोसी देशों से होने वाले निवेश का ऑटोमैटिक रूट बंद कर दिया है. इसका मतलब यह है कि अगर इन देशों से भारत में किसी तरह का निवेश अब होगा तो उसके लिए सरकार की मंजूरी अनिवार्य होगी.
सरकार ने निवेश के नियमों में बदलाव करने की जो घोषणा की, उसमें चीन के नाम का जिक्र नहीं किया गया है. लेकिन इस निर्णय के बाद यह माना गया कि केंद्र सरकार ने यह फैसला उसे ही ध्यान में रखकर किया है. चीन से इसकी प्रतिक्रिया भी आई. उसने कहा गया कि वह इस मसले को विश्व व्यापार संगठन में उठाएगा.
लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के इस निर्णय से भारतीय कंपनियां इस संकट काल में चीनी कंपनियों की आक्रामकता से सुरक्षित रह पाएंगी? क्या इस आदेश के जरिए चीन की कंपनियों की ओर से भारत में होने वाले निवेश को प्रभावी ढंग से रोकना संभव हो पाएगा?
सतही तौर पर देखने से इन सवालों का जवाब सकारात्मक लगता है. लेकिन चीनी कंपनियों की ओर से भारत में हुए निवेश के ट्रेंड का विश्लेषण किया जाए तो जो तस्वीर सामने आती है, वह डराने वाली है. उससे यह पता चलता है कि इस आदेश के जरिए चीन से भारत में होने वाले निवेश को प्रभावी ढंग से रोक पाना बेहद मुश्किल काम है. चीनी कंपनियों के भारत में निवेश से जुड़ी कुछ और चिंताजनक बातें भी हैं लेकिन उनकी चर्चा करने से पहले यह समझते हैं कि कैसे सरकार के इस आदेश के बावजूद भारत में चीनी निवेश को रोक पाना टेढ़ी खीर साबित होने जा रहा है.
भारत में चीनी कंपनियों के निवेश का जो ट्रेंड रहा है उसे देखने से यह पता चलता है कि वहां की अधिकांश कंपनियां भारत में निवेश करने के लिए अपनी उन सहयोगी कंपनियों का सहारा लेती हैं, जो चीन के बजाय कहीं और रजिस्टर्ड हैं. इससे यह निवेश सीधा चीनी कंपनियों का न होकर दूसरे देशों के जरिए आने वाला निवेश बन जाता है. इस वजह से चीनी निवेश को लेकर जो नियम भारत सरकार ने बनाए हैं, उनसे ये कंपनियां बच निकलेंगी और किसी दूसरे देश के माध्यम से भारत में चीनी कंपनियों का निवेश होता रहेगा. दूसरे देशों से निवेश करने की इस प्रक्रिया में स्वामित्व अंततः चीनी कंपनियों के हाथों में ही चला जाता है.
इसे भारत की कुछ प्रमुख कंपनियों के उदाहरण के जरिए समझते हैं. पेटीएम भारत में नए दौर की प्रमुख कंपनियों में से एक है. इसकी मुख्य कंपनी का नाम है वन97 कम्युनिकेशन लिमिटेड. चीन की सबसे बड़ी ई-काॅमर्स कंपनी अलीबाबा ने पेटीएम में निवेश किया है. लेकिन अलीबाबा ने यह निवेश चीन की अपनी मूल कंपनी के जरिए नहीं किया है. उसने पेटीएम में निवेश चीन की अपनी मुख्य कंपनी की एक सहयोगी कंपनी, जो सिंगापुर में रजिस्टर्ड है, उसके जरिए किया है. पेटीएम में निवेश करने वाली कंपनी का नाम है - अलीबाबा सिंगापुर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड. अलीबाबा ने 2015 में पेटीएम में 40 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की थी.
पेटीएम की गिनती देश के प्रमुख फिनटेक कंपनियों में होती है. फिनटेक वे कंपनियां होती हैं जो वित्तीय क्षेत्र में आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अपना काम करती हैं. सरल भाषा में समझें तो तकनीकी विशेषज्ञता का इस्तेमाल करके वित्तीय सेवाएं देने वाली कंपनियों को फिनटेक कंपनियां कहा जाता है. पेटीएम के पूरे नाम से ही पता चलता है कि यह किस तरह की तकनीक का इस्तेमाल करके वित्तीय सेवाएं दे रही है. उसका पूरा नाम है पे थ्रू मोबाइल यानी मोबाइल के जरिए भुगतान. मोबाइल के जरिए होने वाले छोटे-बड़े भुगतानों के मामले में पेटीएम बहुत समय से सबसे आगे रहा है. 9 अप्रैल, 2020 को फाॅर्च्यून इंडिया में पेटीएम के संस्थापक विजय शेखर शर्मा का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ. इसमें वे यह दावा करते दिखते हैं कि ऑनलाइन भुगतान में अब भी पेटीएम की हिस्सेदारी 70 से 80 फीसदी है. इससे पता चलता है कि भारत में पैसों के भुगतान के मामले में पेटीएम की क्या स्थिति है.
2016 में जब भारत में 500 और 1,000 रुपये के पुराने नोट बंद हुए थे तो उस वक्त सबसे अधिक लेन-देन पेटीएम के जरिए ही हो रहा था. उस वक्त जानकारों ने कहा था कि अचानक से भुगतानों की संख्या में हुई बढ़ोतरी को पेटीएम इसलिए ही संभाल पाया क्योंकि उसमें साल भर पहले 40 फीसदी निवेश करने वाली कंपनी अलीबाबा के पास ऐसी तकनीकी क्षमता थी. पेटीएम ने भारत में इसे अपनाया और वह पहले से कहीं बड़ी कंपनी बनकर उभरी. हालांकि, उस वक्त साइबर सुरक्षा से संबंधित कुछ विशेषज्ञों ने इस पर सवाल भी उठाया था कि भारत में लेन-देन संबंधित आर्थिक जानकारियां अलीबाबा तक पहुंच सकती हैं. लेकिन बात आई-गई हो गई. भारत की इस प्रमुख कंपनी में आज चीन की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है लेकिन अगर तकनीकी तौर पर देखें तो इसे चीनी निवेश नहीं माना जाएगा.
भारत में खाने-पीने की चीजों की डिलीवरी के मामले में दो सबसे बड़ी कंपनियां हैं जोमैटो और स्विगी. जोमैटो में भी अलीबाबा ने भारी निवेश किया है. लेकिन इसमें निवेश के लिए भी उसने सिंगापुर का ही रास्ता चुना है. अलीबाबा ने चीन की अपनी प्रमुख कंपनी के जरिए जोमैटो में निवेश न करके सिंगापुर की अपनी सहयोगी कंपनी ऐंटफिन सिंगापुर होल्डिंग्स प्राइवेट लिमिटेड के जरिए ऐसा किया है. जोमैटो में इस कंपनी की हिस्सेदारी 23 फीसदी है.
भारत की कई और ऐसी कंपनियां हैं, जिनमें चीनी कंपनियों ने अपनी उन सहयोगी कंपनियों के जरिए निवेश किया है जो चीन से बाहर सिंगापुर, माॅरीशस या हांगकांग में रजिस्टर्ड हैं. इन देशों से आने वाला चीनी निवेश भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के स्रोतों की गणना में चीन से आने वाले निवेश में नहीं गिना जाता. इससे एक बड़ी परेशानी यह भी हो रही है कि चीन का भारत में वास्तविक निवेश कितना है, यह ठीक से पता ही नहीं चल पाता है.
कोरोना संकट की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की परेशानियों का फायदा चीन उठा सकता है, इसे लेकर खतरे की घंटी अप्रैल के दूसरे हफ्ते में बजी. इस समय यह जानकारी आई कि निजी क्षेत्र के सबसे प्रमुख बैंकों में शुमार किए जाने वाले एचडीएफसी में पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने अपना निवेश बढ़ा दिया है. पीपल्स बैंक ने मार्च तिमाही में एचडीएफसी के 1.75 करोड़ शेयर खरीदे. हालांकि, यह एचडीएफसी में 1.01 फीसदी हिस्सेदारी के बराबर ही है. लेकिन चिंता वाली बात यह थी कि यह खरीदारी उस दौर में की गई है जब एचडीएफसी के शेयरों की कीमतों में फरवरी के पहले हफ्ते से लगातार गिरावट आ रही थी. फरवरी के पहले हफ्ते से लेकर अप्रैल के दूसरे हफ्ते तक यह गिरावट तकरीबन 41 फीसदी की है. इसका मतलब यह है कि कीमतों में आई गिरावट का फायदा उठाकर चीन के बैंक ने काफी कम पैसों में एचडीएफसी के शेयर खरीदे.
दूसरी कंपनियों के लिए यह खतरे की घंटी इसलिए है कि कोरोना संकट के बाद उनके भी शेयरों की कीमतों में लगातार कमी आई है. इससे कंपनियों का बाजार मूल्य भी प्रभावित हो रहा है. इसे ही देखते हुए भारत सरकार ने चीन से होने वाले आक्रामक निवेश को रोकने के लिए नए नियम जारी किए हैं.
चीन से भारत में जो निवेश पिछले कुछ सालों में हुआ है, उसके ट्रेंड का अगर गहराई से अध्ययन करें तो एक और चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आती है. विदेश मामलों पर अध्ययन करने वाली संस्था गेटवे हाउस ने चीन से भारत में होने वाले निवेश का व्यापक अध्ययन करके इस पर एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट से यह पता चलता है कि चीन की कंपनियों ने पिछले कुछ सालों में भारत की तकरीबन हर यूनिकाॅर्न कंपनी में निवेश किया है. यूनिकाॅर्न कंपनी उन कंपनियों को कहा जाता है जो तकनीक आधारित होती हैं और किसी नए आइडिया को छोटे स्तर पर शुरू करती हैं. इनमें से कई थोड़े ही समय में बहुत कंपनियां बड़ी बन जाती हैं. भारत के संदर्भ में पेटीएम, जोमैटो, बिगबास्केट और बाइजू जैसी कंपनियों को यूनिकाॅर्न कंपनी कहा जा सकता है.
ये ऐसी कंपनियां हैं जिनकी सेवा आम लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए लेते हैं. ऐसी किसी भी प्रमुख कंपनी का नाम लीजिए और उसके शेयरधारकों के नामों का पता लगाइए, यह पता चल जाएगा कि उसमें चीन की किस कंपनी का निवेश है. घर-घर आनलाइन ग्रोसरी पहुंचाने वाली देश की एक प्रमुख कंपनी है बिगबास्केट. 2011 में शुरू हुई यह कंपनी नौ साल में ही बहुत बड़ी हो गई है. गेटवे हाउस की रिपोर्ट से पता चलता है कि इसमें चीन के अलीबाबा और टीआर कैपिटल ने 25 करोड़ डाॅलर से अधिक का निवेश किया है.
शैक्षणिक सेवाएं देने वाली कंपनियों में बाइजू काफी बड़ा नाम हो गया है. इसमें चीन के टेनसेंट होल्डिंग्स ने निवेश किया है. टेनसेंट होल्डिंग और स्टीडव्यू कैपिटल ने फ्लिपकार्ट में भी 30 करोड़ डाॅलर से अधिक का निवेश किया है. मेकमाईट्रिप में चीन के सीट्रिप का पैसा लगा है. कैब सेवा देने वाली प्रमुख भारतीय कंपनी ओला में चीन की टेनसेंट होल्डिंग, स्टीडव्यू कैपिटल, सेलिंग कैपिटल और इटरनल यील्ड इंटरनैशनल लिमिटेड ने भारी निवेश किया है. रहने के सस्ते कमरे उपलब्ध कराने के काम में लगी प्रमुख भारतीय कंपनी ओयो में चीन के दीदी चुक्सिंग चाइना लाॅजिंग ग्रुप ने भारी निवेश किया है. पाॅलिसीबाजार, क्विकर, रिविगो, स्नैपडील, स्विगी और उड़ान जैसी यूनिकाॅर्न कंपनियों में भी चीनी ने निवेश किया हुआ है.
इस ट्रेंड को देखकर एक स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि आखिर चीनी कंपनियां भारत की नई-नवेली यूनिकाॅर्न कंपनियों में ही क्यों हिस्सेदारी खरीद रही हैं? चीन की कंपनियां भारत की पारंपरिक बड़ी कंपनियों में हिस्सेदारी क्यों नहीं खरीद रही हैं? इस संदर्भ में विशेषज्ञ दो बातें कहते हैं.
पहली बात तो यह कही जा रही है कि अगर भारत की किसी पारंपरिक कंपनी में चीनी कंपनियां निवेश करने जाएंगी तो उन्हें थोड़ी हिस्सेदारी के लिए भी काफी पैसे खर्च करने पड़ेंगे. उदाहरण के तौर पर अगर कोई चीनी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज में 10 फीसदी हिस्सेदारी खरीदना चाहे तो उसे काफी बड़ा निवेश करना होगा. जबकि इससे काफी कम पैसे में वही चीनी कंपनी भारत की कई स्टार्टअप कंपनियों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद सकती है. स्टार्टअप कंपनियों को भी अपना कारोबार बढ़ाने के लिए पूंजी की जरूरत होती है. इसका फायदा चीनी कंपनियां उठा रही हैं. पूंजी की जरूरत की वजह से भारतीय स्टार्टअप कंपनियां कम पैसे में भी चीन की कंपनियों को बड़ी हिस्सेदारी देने को मजबूर हैं.
इन कंपनियों में चीनी कंपनियों की दिलचस्पी की दूसरी प्रमुख वजह यह बताई जा रही है कि ये सभी कंपनियां आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी तकनीक पर आधारित कंपनियां हैं. इंटरनेट और मोबाइल का इस्तेमाल करके ये कंपनियां अपना दायरा लगातार बढ़ा रही हैं. जिस तरह से दुनिया बदल रही है, उसमें माना जा रहा है कि भविष्य में ये कंपनियां और बड़ी होंगी. इसलिए चीनी कंपनियों का लगता है कि इन कंपनियों में निवेश से भविष्य में बेहतर रिटर्न उन्हें मिल पाएगा.
इन कंपनियों में चीनी कंपनियों की खासी दिलचस्पी की एक और वजह कुछ साइबर विशेषज्ञ यह बताते हैं कि ये कंपनियां जिस तरह से आम लोगों के रोजमर्रा के जीवन में घुस गई हैं, उससे ये हर दिन ऐसा डाटा जुटा रही हैं जिनके विश्लेषण से बाजार और उपभोक्ताओं के व्यवहार के बारे में पक्के तौर पर अंदाज लगाया जा सकता है. इन लोगों का कहना है कि चीनी कंपनियों के लिए भारत एक बहुत बड़ा बाजार है और ऐसे में भारतीय उपभोक्ताओं से संबंधित डाटा का इनके लिए काफी महत्व है. इस दौर में डाटा के महत्व के संदर्भ में कुछ साल पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रमुख मुकेश अंबानी ने कहा था कि डाटा नया तेल है. इस बात के जरिए उन्होंने विभिन्न माध्यमों से एकत्रित किए जा रहे डाटा के महत्व को रेखांकित करने की कोशिश की थी.
ऐसे में अगर इन यूनिकाॅर्न कंपनियों के जरिए चीन की कंपनियों को भारतीय उपभोक्ताओं के व्यवहार से संबंधित पक्की जानकारियां मिलती हैं तो इसका इस्तेमाल न सिर्फ इन भारतीय कंपनियों के कारोबार विस्तार में हो सकता है बल्कि इस आधार पर ये कंपनियां चीन से भारत में होने वाले उत्पादों के निर्यात से संबंधित ज्यादा सही निर्णय ले सकते हैं. हालांकि, अभी तक कोई ऐसा पक्का अध्ययन नहीं है जिससे ये बात साबित की जा सके कि जिन भारतीय कंपनियों में चीनी कंपनियों ने निवेश किया है, उन कंपनियों से उन्हें भारतीय डाटा भी मिल रहा है.
कुल मिलाकर देखें तो चीन से भारत में होने वाले निवेश की कई परतें हैं और इनसे संबंधित कई आशंकाएं भी हैं. इन आशंकाओं से निपटने के लिए भारत सरकार ने हाल ही में निवेश का मार्ग बदलने संबंधित जो निर्णय लिया है, वह नाकाफी दिखता है. पहले से ही अन्य देशों में रजिस्टर्ड सहयोगी कंपनियों के जरिए निवेश कर रही चीनी कंपनियों को इस नए नियम से कोई खास दिक्कत नहीं होगी. इस कदम से भारत में चीनी निवेश के ट्रेंड में बदलाव की भी कोई खास उम्मीद नहीं की जा सकती है.
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