कह सकते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज, 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध के अंत में, 1919 में हुई वर्साई संधि में ही बो दिये गये थे. युद्ध ऑस्ट्रिया और जर्मनी के सम्राटों ने मिल कर छेड़ा था. दोनों की हार हुई थी. हिटलर ऑस्ट्रिया का नागरिक था, पर युद्ध में जर्मनी की ओर से लड़ा था. वर्साई संधि में पराजित देशों की सीमाएं बदलने और विजेताओं को क्षतिपूर्ति देने की कई ऐसी शर्तें थीं, जो इन दोनों देशों की जनता को बहुत अपमानजनक लग रही थीं. जनता को बहकाने-भड़काने में वे हिटलर के बड़े काम आयीं.
हिटलर जर्मनी में ही बस गया. युद्ध के अंत के साथ ही जर्मनी में राजशाही का भी अंत हो गया. देश के इतिहास में पहली बार एक संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना हुई. परिस्थितियां बहुत विकट थीं. नेता लोकतंत्र के नौसिखुआ थे. राजनैतिक स्थिरता का अभाव था. इससे हिटलर की घोर राष्ट्रवादी-नस्लवादी ‘राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रमिक पार्टी’ (एनएसडीएपी/ नाज़ी पार्टी) को जनता के बीच अपने पैर जमाने में आसानी हुई. 1929 से शुरू हुए विश्व आर्थिक संकट की मार ने लोक-लुभावन बातों द्वारा जनता को बरगलाना और भी आसान बना दिया. मार्च 1930 में उस समय की गठबंधन सरकार गिर गयी. नये चुनाव हुए. हिटलर की नाज़ी पार्टी के सांसदों की संख्या 12 से बढ़ कर 107 हो गयी. संसद में वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी.
चुनावों के बाद भी राजनैतिक स्थिरता नदारद
इन चुनावों के बाद भी राजनैतिक स्थिरता नदारद रही. तत्कालीन राष्ट्रपति हिंडेनबुर्ग ने 1932 में दो बार संसद भंग कर नये चुनाव करवाये. दोनों बार हिटलर की नाज़ी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, पर संसद में वही सबसे बड़ी पार्टी थी. चुनावों ने देश में गृहयुद्ध-जैसी स्थिति और भी गंभीर बना दी. भारी उथल-पुथल के बीच हिंडेनबुर्ग ने अंततः फ़रवरी 1933 में हिटलर को जर्मन राइश(साम्राज्य) का नया चांसलर (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया. कहा जाता है कि जिस दिन उसने चांसलर कार्यालय में पैर रखा, उसी दिन कह दिया था कि ‘’दुनिया की कोई शक्ति अब मुझे जीते-जी यहां से हटा नहीं सकती.’’ 12 वर्ष बाद यही हुआ.
अराजकता थम नहीं रही थी. इसलिए जल्द ही एक बार फिर संसद भंग कर दी गयी. हिटलर अध्यादेशों द्वारा राज करने लगा. कम्युनिस्टों एवं अन्य विरोधियों की धरपकड़ या हत्याएं होने लगीं. 5 मार्च 1933 को फिर से चुनाव हुए. नाज़ी पार्टी को संविधान में मनमाने संशोधनों के लिए दो-तिहाई बहुमत फिर नहीं मिला. तब सड़कों पर अपने समर्थकों की उमड़ती भीड़, कम्युनिस्टों को संसद से निकाल बाहर करने की चाल और कई दूसरी तिकड़मों के साथ हिटलर, 23 मार्च 1933 को, संसद से एक ऐसा क़ानून पारित करवाने में सफल हो गया, जो उसे अगले चार वर्षों तक अध्यादेशों द्वारा राज करने का प्रच्छन्न अधिकार देता था. सारे विधायकी अधिकार हिटलर को मिल जाने से उस पर विधि-विधान का कोई अंकुश नहीं रहा. निरंकुश तानाशाही का रास्ता बिल्कुल साफ़ हो गया था.
हिटलर के नाम पर शपथ
हिटलर ने सबसे पहले अपनी पार्टी के अलावा बाक़ी सभी पार्टियां भंग या प्रतिबंधित कर दीं. राष्ट्रपति हिंडेनबुर्ग मरणासन्न थे. 1 अगस्त 1934 को, उनके पद सहित सारे अधिकार हिटलर को मिल गये. वही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों बन बैठा. राष्ट्रपति का अगले ही दिन देहांत हो गया. सेना से कहा गया कि अब उसे संविधान के बदले हिटलर के नाम पर शपथ लेनी होगी. और भी कई बदलावों के साथ हिटलर की अंतहीन व्यक्तिपूजा का रथ चल पड़ा.
जर्मनी के भीतर अपने आलोचकों व विरोधियों का सफ़ाया करने के बाद हिटलर ने जर्मनी के बाहर अपने इरादे दिखाने शुरू किये. अक्टूबर 1933 में उसने ब्रिटेन और फ़्रांस के साथ चल रही निरस्त्रीकरण की वार्ताएं भंग कर दीं. उस समय के ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ (राष्ट्र संघ) की सदस्यता भी त्याग दी. वर्साई संधि में तय की गई सीमा को तोड़ते हुए, मार्च 1934 में सेना का बजट बढ़ा दिया. मार्च 1935 में वयस्कों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा फिर से लागू कर दी गई. जर्मन सेना और अर्थव्यस्था को युद्ध के सक्षम बनाने के लिए 1936 में हिटलर ने चार वर्षीय योजना शुरू की. उसी वर्ष उसने जर्मनी के राइनलैंड प्रदेश पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया, जिसे वर्साई संधि के अंतर्गत विसैन्यीकृत क्षेत्र बना दिया गया था.
जर्मनों को चाहिये बड़े जीवनक्षेत्र का अधिकार
यह सब बिना किसी ख़ास अंतरराष्ट्रीय प्रतिरोध के जिस सरलता से हो गया, उससे हिटलर की महत्वाकांक्षाओं को ऊंची उड़ान वाले पंख लगना स्वाभाविक था. 5 नवंबर 1937 को उसने अपनी सेना के तीनों अंगों के सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा, “साढ़े आठ करोड़ जर्मनों को अपने लिए एक बड़ा जीवनक्षेत्र पाने का अधिकार है.’’ अतः “जगह की कमी के हल” पर ही अब जर्मनी की भावी नीतियों का बल होगा. यह दुनिया को एक स्पष्ट संदेश था कि जर्मनी अब क्षेत्रीय विस्तार की दिशा में कूच करने जा रहा है. दो घंटे के इस एकालाप में हिटलर ने यह भी बताया कि वह चेकोस्लोवाकिया और अपनी मातृभूमि ऑस्ट्रिया को जर्मनी में मिलाने के साथ ‘’जीवनक्षेत्र’’ के विस्तार का अभियान शुरू करेगा.
मार्च 1938 में ऑस्ट्रिया और जर्मनी का एकीकरण हो गया. यह कोई कठिन काम नहीं था, क्योंकि ऑस्ट्रिया भी एक जर्मनवंशी और जर्मन-भाषी देश है. हिटलर का जन्म जर्मनी की दक्षिणी सीमा के पास के ऑस्ट्रियाई शहर ब्राउनाऊ में हुआ था. 15 मार्च 1938 को उसने ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में एकत्रित भारी भीड़ से कहा, ‘’आज मेरा जीवन सार्थक हो गया है.’’ उसने दोनों देशों के इस विलय को ‘’घर-वापसी’’ बताया. चेकोस्लोवाकिया अगला निशाना था. उसके ‘ज़ुडेटलैंड’ हिस्से में जर्मनों का बोलबाला हुआ करता था.
ब्रिटेन- फ्रांस की तुष्टीकरण नीति
हिटलर ने उसी वर्ष चेकोस्लोवाकिया को धमकाया कि या तो वह ‘ज़ुडेटलैंड’ जर्मनी के हवाले कर दे, या फिर जर्मन सैनिकों का सामना करे. ब्रिटेन और फ्रांस उन दिनों चेकोस्लोवाकिया की स्वतंत्रता के संरक्षक हुआ करते थे. 29 सितंबर1938 को जर्मनी के म्युनिक शहर में एक शिखर सम्मेलन हुआ. तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन और फ्रांसीसी प्रधानमंत्री एदुआर्द दलादियेर संभावित युद्ध को टालने के विचार से राज़ी हो गये कि जर्मनी यदि बाक़ी चेकोस्लोवाकिया को बख्श दे, तो ‘ज़ुडेटलैंड’ उसे दिया जा सकता है. हिटलर का मन बनाये रखने की ब्रिटेन और फ्रांस की यह घुटना-टेक नीति इतिहास में ‘’तुष्टीकरण (अपीज़मेन्ट) नीति’’ के नाम से प्रसिद्ध हुई. उस समय तो हिटलर ने इसे मान लिया, पर मार्च 1939 में चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर उस पर क़ब्ज़ा भी आख़िर कर ही लिया.
चेकोस्लोवाकिया के प्रसंग में अपनी ‘’तुष्टीकरण नीति’’ से मुंह की खाने के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने, पोलैंड को हिटलर की भूख से बचाने के लिए, उसके साथ 13 अप्रैल 1939 को, कई समझौते किये. दो ही दिन पहले हिटलर ने अपने सेनाध्यक्षों को आदेश दिया था कि वे, 1939 की हेमंत ऋतु आने तक, पोलैंड पर आक्रमण की तैयारी पूरी कर लें. पोलैंड के साथ जर्मनी की एक अनाक्रमण संधि थी, जिसे हिटलर ने 28 अप्रैल को रद्द घोषित करते हुए कहा कि पोलैंड का ग्दांस्क इलाका जर्मनी को मिलना चाहिये. अपने जनरलों को हिटलर ने समझाया कि ग्दांस्क अपना ‘’जीवनक्षेत्र’’ बढ़ाने और जर्मनी की जनता के लिए खाद्यपूर्ति में आत्मनिर्भरता पाने की नीति का एक बहाना भर है.
हिटलर नागनाथ, तो स्टालिन सांपनाथ
ब्रिटेन और फ्रांस ने पोलैंड को उसकी रक्षा का संधिबद्ध वचन दे तो दिया था, पर उनकी पोलैंड के साथ कोई साझी सीमा नहीं थी. पोलैंड और फ्रांस के बीच में जर्मनी था. वे अपने सैनिक और अस्त्र-शस्त्र भूमार्ग से पोलैंड भेज नहीं पाते. उन्हें ज़रूरत थी पोलैंड के पूर्वी सीमांत पड़ोसी सोवियत संघ के सहयोग की. सोवियत तानाशाह स्टालिन ने, अगस्त 1939 में, कहा कि वह ब्रिटेन और फ्रांस की सहायता के लिए अपनी 120 इनफ़ैन्ट्री डिविज़न भेजने को तैयार है, पर पोलैंड को गारंटी देनी होगी कि वह सोवियत सेना को अपने भूभाग से होकर गुज़रने देगा. पोलैंड ने इसे ठुकरा दिया. उसके लिए हिटलर नागनाथ था तो स्टालिन भी सांपनाथ था. स्टालिन भी पोलैंड को हड़पने के चक्कर में था. स्टालिन ने तब 24 अगस्त 1939 को हिटलर के साथ एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करने की एक दुरभिसंधि कर ली.
स्टालिन ने 1937 से 1939 के बीच अपनी लाल सेना के इतने सारे अफ़सरों को मरवा डाला था कि उसे सेना के पुनर्गठन के लिए समय चाहिये था. वह समझ रहा था कि हिटलर के साथ अनाक्रमण संधि से उसे यह समय मिल जायेगा. एक जल्लाद दूसरे जल्लाद से आशा कर रहा था कि वह भलामानुस सिद्ध होगा. दोनों ने अनाक्रमण संधि के गोपनीय संलग्नों में पोलैंड और बाल्टिक सागरीय देशों के व्यापक भूभागों की आपस में बंदरबांट तय कर रखी थी. इस घिनौनी संधि के एक ही सप्ताह बाद, 1 सितंबर 1939 की सुबह पौने पांच बजे, पोलिश सैनिकों-जैसी वर्दी पहने जर्मन सैनिकों ने पोलैंड के एक रेडियो ट्रांसमिटर स्टेशन पर धावा बोल कर द्वितीय विश्वयुद्ध का बिगुल बजा दिया. स्टालिन को इसकी भनक नहीं थी.
तीन देशों की बनी तिकड़मी तिकड़ी
जर्मनी के पूर्वी पड़ोसियों को निगलने के बाद हिटलर की सेना ने अप्रैल 1940 से उत्तरी और पश्चिमी पड़ोसियों को भी निगलना शुरू कर दिया. जून 1940 तक के केवल तीन महीनों में
क्रमशः डेनमार्क, नॉर्वे, लक्सेमबुर्ग, बेल्जियम, नीदरलैंड और फ्रांस ने उसके सामने घुटने टेक दिये. फ्रांस के आत्मसमर्पण से ठीक पहले मुसोलिनी का इटली भी हिटलर के साथ हो लिया. 27 सितंबर 1940 को बर्लिन में जापान के राजदूत साबूरो कूरुसू तथा हिटलर और मुसोलिनी ने, जापान के भी इस युद्ध में शामिल होने के दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किये. तीन देशों की यह तिकड़ी हिटलर समर्थक देशों वाली ‘धुरी शक्तियां’ (ऐक्सिस पॉवर्स) कहलाई. इस धुरी का लक्ष्य था यूरोप और एशिया में अपने वर्चस्व हेतु एक नये प्रकार की व्यवस्था बनाना. ब्रिटेन और अमेरिका को यूरोप और एशिया से दूर रखना.
ब्रिटेन को यह दिखाने के लिए, कि यूरोप में अब जर्मनी की तूती बोलेगी, 1940 में उस पर 10 जुलाई से 31 अक्टूबर तक हवाई हमले किये गये. विन्स्टन चर्चिल उस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे. वे हिटलर की धौंस में नहीं आये. कोई युद्धविराम स्वीकार नहीं किया. हिटलर ने जब देखा कि वह ब्रिटेन को झुका नहीं पायेगा, तो 1941 के आरंभ में उसने ब्रिटेन पर चौतरफ़ा आक्रमण करने या ब्रिटिश जिब्राल्टर, माल्टा अथवा मिस्र को हथियाने का विचार भी छोड़ दिया. अपने अगले बड़े सैन्य-अभियान के लिए हिटलर का अगला मनभावन अब स्टालिन का सोवियत संघ था.
सोवियत संघ पर बिजली गिरने जैसा हमला
हिटलर के उद्योग मंत्रालय ने उसे बताया कि सोवियत संघ के साथ की अनाक्रमण संधि के अनुसार, जर्मनी को रूसियों से अपने उद्योगों के लिए जो कच्चे माल मिलने हैं, वे किसी लंबे युद्ध के समय कतई पर्याप्त नहीं पड़ेंगे. रूसी कम्युनिस्टों से हिटलर को वैसे भी अपार घृणा थी. दूसरों से संधियां भी वह तोड़ने के लिए ही किया करता था. उसने तय किया कि यूनान और युगोस्लाविया को निपटाने के बाद वह स्टालिन के सोवियत संघ की ही ख़बर लेगा. 22 जून 1941 वह दिन था, जब हिटलर की ‘बार्बारोसा येजना’ के उनुसार, उसके 30 लाख सैनिकों ने सोवियत संघ पर अकस्मात धावा बोल दिया.
योजना थी कि रूस में कड़ाके की बर्फीली सर्दी शुरू होने से पहले ही मॉस्को पर अधिकार कर लेना है. जर्मन सैनिक 2 अक्टूबर तक मॉस्को से केवल 20 किलोमीटर दूर रह गये थे. पर पहले ज़ोरदार बारिश ने और उसके तुरंत बाद – 22 डिग्री सेल्सियस के तापमान ने उनकी तोपों-टैंकों के चक्के जाम कर दिये. दिसंबर आते-आते तापमान – 40-50 डिग्री तक गिरने लगा. जर्मन सैनिकों की रगों में खून तक जमने लगा. तब तक रूसी सैनिक भी ज़ोरदार जवाबी हमले करने लग गये थे. शेष रहे जर्मन सैनिकों के पास पीछे हटने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा. इस लड़ाई में 5,81,000 जर्मन सैनिक खेत रहे. मॉस्को में हार ने हिटलर की धार कुंद कर दी. लगातार जीतों का क्रम भंग कर दिया. दो साल बाद, 1943 की गर्मियों में, रूसी और जर्मन सैनिकों के बीच स्टालिनग्राद (अब वोल्गोग्राद) में सबसे घमासान लड़ाई हुई. इस बार जर्मनी की ऐसी हार हुई कि युद्ध की नियति तय हो गयी.
अमेरिका भी युद्ध में कूदा
कहावत है, सियार की जब मौत आती है, तब वह शहर की तरफ़ भागता है. अपनी सनक में हिटलर भी अपनी मौत को ही बुला रहा था. यूरोप में तो वह चारों तरफ लड़ ही रहा था, उत्तरी अफ्रीका में भी लड़ने लगा. 1943 की गर्मियों में ही, 12 मई के दिन, डेढ़ लाख जर्मन और एक लाख इतालवी सैनिकों को ट्यूनीसिया में आत्मसमर्पण करना पड़ा. अमेरिका के नौसैनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर, 7 दिसंबर 1941 को, जापान की बमबारी के चार ही दिन बाद, 11 दिसंबर को, हिटलर ने बिना किसी को पूछे-बताये, अमेरिका के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा कर दी. जापान और जर्मनी का यह आत्मघाती क़दम अमेरिका के लिए भी युद्ध में कूद पड़ने का खुला निमंत्रण बन गया. तब तक वह दूर बैठा तमाशा देख रहा था.
स्टालिनग्राद की हार के बाद पूर्वी यूरोप के देशों से जर्मन सैनिकों के खदेड़े जाने का तांता बंध गया. 1944 आने के साथ जर्मनी के आकाश पर हिटलर-विरोधी गठबंधन के तीन मित्र राष्ट्रों अमेरिका, ब्रिटेन, और सोवियत संघ के विमानों का एकाधिकार होने लगा. जर्मन शहरों पर ऐसी भयंकर बमबारियां होने लगीं कि उस समय के बम आज भी कहीं न कहीं ज़मीन में धंसे मिल जाते हैं. तब सारा यातायात रुकवा कर और आस-पास के सारे स्कूल, मकान, अस्पताल आदि ख़ाली करवा कर उन बमों को निष्क्रिय किया जाता है.
मित्र राष्ट्र सैनिक जर्मनी को रौंदने लगे
जून 1944 में फ्रांस के नोर्मांदी तट पर हिटलर विरोधी पश्चिमी मित्र राष्ट्रों के सैनिक उतारे जाने के साथ, यूरोप के पश्चिमी देशों से भी, जर्मन सैनिकों को खदेड़ा जाना शुरू हो गया.
1945 का जनवरी महीना आने तक सोवियत सैनिक जर्मन राइश की पूर्वी सीमा पार कर बर्लिन की तरफ़ बढ़ने लगे थे. 16 अप्रैल को उन्होंने बर्लिन को घेर लिया. 25 अप्रैल की सुबह पौने पांच बजे पूर्वी जर्मनी की एल्बे नदी के तट पर बसे टोर्गाऊ में रूसी और अमेरिकी सैनिकों ने पहली बार एक-दूसरे से हाथ मिलाया. इससे पहले 23 मार्च को ब्रिटिश सैनिकों ने जर्मनी के सबसे बड़े औद्योगिक इलाके ‘रूअरगेबीट’ को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था. हिटलर ने बर्लिन के अपने बंकर में स्वयं को गोली मार कर 30 अप्रैल को आत्महत्या कर ली. उस समय सोवियत सैनिक उसके बंकर से कुछ सौ मीटर ही दूर रह गये थे. हिटलर उनके हाथों बंदी नहीं बनना चाहता था, इसलिए अंतिम क्षण में आत्महत्या कर ली.
किंतु, यूरोप में युद्ध का पूरी तरह अंत हिटलर की आत्महत्या के एक सप्ताह बाद हुआ. तब तक भारत सहित विश्व के 67 देश जर्मनी के विरुद्ध की स्थिति में थे. विश्व के करोड़ों लोगों ने, 7 से 8 मई 1945 के बीच वाली रात तब राहत की गहरी सांस ली, जब अमेरिकी संवाद एजेंसी ‘एसोसिएटेड प्रेस’ (एपी) ने पेरिस से समाचार दियाः ‘’जर्मनी ने, फ्रांसीसी समय दो बज कर 41 मिनट पर, रीम में पश्चिमी मित्र राष्ट्रों और रूस के आगे बिना शर्त घुटने टेक दिये. आत्मसमर्पण की रस्म अमेरिका के जनरल आइज़नहावर के मुख्यालय – लाल ईंटो वाले एक छोटे-से स्कूल में – संपन्न हुई.’’
जर्मनी ने दो बार किया आत्मसमर्पण
बर्लिन में सोवियत सेना के सर्वोच्च कमांडर का आग्रह था कि जर्मन सेना को उसके आगे भी आत्मसमर्पण करना होगा. अतः जर्मन समय के अनुसार, 8 मई की मध्यरात्रि को, बर्लिन की सोवियत सैनिक कमान के मुख्यालय में जर्मन सेना के तीनों तत्कालीन सर्वोच्च कमांडरों के हस्ताक्षरों के साथ जर्मन आत्मसर्मपण की सारी रस्म दुहरायी गयी. इस समय मॉस्को में रात के दो बज गये थे. इसलिए वहां रूसी विजयपर्व 9 मई को मनाया जाता है. जर्मनी के बिना शर्त आत्मसमर्पण और युद्धविराम के साथ ही यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध का अंत हुआ था. तब तक इस युद्ध को शुरू हुए पांच वर्ष आठ महीने और छह दिन बीत चुके थे.
इस युद्ध से पूरे विश्व में 113 देश प्रभावित हुए थे. यूरोप के केवल छह देशों को छोड़ कर बाक़ी सभी देशों पर जर्मनी का कब्ज़ा हो गया था. कुल मिला कर छह करोड़ लोग मरे थे. इनमें से दो करोड़ तत्कालीन सोवियत संघ के सैनिक व निवासी थे. मरने वालों में जर्मनी के सैनिक-असैनिक नागरिकों की कुल संख्या लगभग 74 लाख आंकी जाती है. हिटलर के ज़हरीले गैस चैंबरों वाले यातनाशिविरों में बंद साठ लाख यहूदी और यूरोप में रहने वाले भारतीय मूल के कम से कम पांच लाख निहत्थे रोमा व सिंती भी मौत के घाट उतार दिये गये थे. इन अभागे भारतवंशियों को शायद ही कोई याद करता है. उनका दोष इतना ही था कि अपने आप को ‘’शुद्ध आर्यवंशी’’ समझने वाले हिटलर की नज़र में वे घटिया नस्ल के लोग थे. इस युद्ध की वजह से दुनिया भर में बेघर, विस्थापित व लापता हुए लोगों की संख्या करोड़ों में जाती है.
रूस ने अकेले ही आधे यूरोप को मुक्ति दिलाई
रूस ने जर्मनी सहित आधे यूरोप को अकेले ही हिटलर के कब्ज़े से मुक्ति दिलाई थी. रूसी सैनिकों द्वारा मुक्त कराए गए पूर्वी यूरोप के जिन भूतपूर्व समाजवादी देशों में आठ या नौ मई को ‘मुक्ति-दिवस’ हुआ करता था, उनमें से अब केवल चेक गणराज्य ही उसे इस नाम से याद करता है और सार्वजनिक छुट्टी मनाता है. यूक्रेन ने उसका नाम ‘विजय और स्मरण-दिवस’ कर दिया है. बाक़ी देशों में यह राष्ट्रीय दिवस नहीं रहा. पश्चिमी यूरोप की बात करें तो सिर्फ फ्रांस में आठ मई का दिन 1953 से राष्ट्रीय छुट्टी का दिन है. पूर्वी जर्मनी का जब तक अस्तित्व था, तब तक वहां भी वह ‘मुक्ति-दिवस’ के नाम से छुट्टी का दिन होता था. किंतु न तो उस समय के पश्चिमी जर्मनी में और न आज के एकीकृत जर्मनी में 8 मई को कभी ‘मुक्ति-दिवस’ कहा गया या मनाया गया. केवल बर्लिन, जो जर्मनी की राजधानी और एक राज्य भी है, इस वर्ष (2020) पहली बार 8 मई को एक आधिकारिक छुट्टी-दिवस के तौर पर मनायेगा.
1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध जब छिड़ा था, तब भारत पर अंग्रेज़ों का राज था. दो ही दिन बाद, 3 सितंबर को दिन में 11 बजे, ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी. उसी दिन लॉर्ड लिनलिथगो ने, जो भारत की ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के वाइसरॉय थे, कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के नेताओं तथा देश की जनता को बताया कि भारत भी जर्मनी के साथ युद्ध की स्थिति में है, उसे ब्रिटेन के हाथ मज़बूत करने होंगे.
ब्रिटेन ने भारत को भी युद्ध में घसीटा
जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी ने भारत पर थोपी गई युद्ध की इस एकतरफा घोषणा का विरोध किया. उनका कहना था कि ब्रिटेन यदि भारतीय जनता का समर्थन चाहता है, तो उसे पहले बताना होगा कि युद्ध ख़त्म होने के बाद भारत के प्रति उसके ‘लक्ष्य और आदर्श’ क्या होंगे. ब्रिटिश सरकार प्रथम विश्व युद्ध के समय भी स्वतंत्रता का प्रलोभन देकर भारत को युद्ध में घसीट चुकी थी. इस युद्ध में करीब 48 हजार भारतीय सैनिक खेत रहे थे. भारतीय नेता दुबारा उसके झांसे में नहीं आना चाहते थे.
ब्रिटेन का साथ नहीं देने की नेहरू-गांधी की नीति के बावजूद, 25 लाख से अधिक भारतीय ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर एशियाई, यूरोपीय और अफ्रीकी मोर्चों पर लड़े. किसी दूसरे देश की ओर से इतने विदेशी सैनिक पहले कभी नहीं लड़े थे. 24 हजार से भी ज्यादा भारतीय सैनिक दूसरे विश्व युद्ध में मारे गए. घायल या लापता होने वालों की संख्या इससे करीब तीन गुना अधिक थी. भारत से गये सैनिकों के खाने-पीने, अस्त्र-शस्त्र और लड़ने का सारा ख़र्च, 914 से1918 तक चले प्रथम विश्वयुद्ध की तरह ही, एक बार फिर गुलाम भारत के करदाताओं को ही उठाना पड़ा.
दानवीर भारत
आज के हिसाब से देखा जाए तो ब्रिटेन ने लडाई के लिए भारत से जो धनराशि उधार ली थी, वह आज 150 अरब डॉलर (करीब नौ लाख 75 हजार करोड़ रुपये) से कम नहीं होगी. लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध की तरह इस बार भी, न तो भारत ने इसे कभी वापस मांगा, न ही ब्रिटेन ने कभी इसकी कोई चर्चा की. भारत के जो देश प्रेमी विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन वापस लाने का आये दिन शोर मचाते हैं, उनके मुह पर भी ताला लगा रहता है.
युद्ध के अंत की दृष्टि से तो नहीं, किंतु भारत के स्वतंत्रता संग्राम की दृष्टि से द्वितीय विश्वयुद्ध का एक ऐसा अध्याय भी है, जिससे जुड़ी घटनाएं अगस्त 1945 तक चलीं. नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़े उस अध्याय की चर्चा अगली बार...
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