रेमदेसिवियर एक ऐसी दवा है, जो वास्तव में अफ्रीका के कुछ देशों में बार-बार फैलने वाले ‘एबोला’ वायरस से पीड़ितों के इलाज़ के लिए बनी थी. इस समय दुनिया भर में कोहराम मचाए हुए कोरोना वायरस ‘सार्स-कोव-2’ की अपेक्षा ‘एबोला’ वायरस कई गुना प्राणघातक है. किंतु रेमदेसिवियर एबोला वायरस के विरुद्ध उतनी कारगर सिद्ध नहीं हुई, जितनी उससे अपेक्षा थी. इसीलिए अमेरिका की सरकार ने उसे बनाने वाली अमेरिकी कंपनी ‘गिलीएड’ को उसकी बिक्री का लाइसेंस नहीं दिया.
रेमदेसिवियर को भुला ही दिया जाता, यदि कोरोना वायरस के प्रकोप ने सारी दुनिया को पूरी तरह से पस्त नहीं कर दिया होता. जर्मनी सहित कई देशों में देखा गया कि वायरस-प्रतिरोधी सारी दवाओं के बीच वही एक ऐसी दवा है, जो कोविड-19 से पीड़ितों के कष्ट और उपचारकाल को घटाने में सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध हो रही है. इस दवा को खाने वाले रोगी ठीक होने में बाकी लोगों की अपेक्षा चार दिन कम ले रहे हैं. इन अवलोकनों ने जीवनदायी रेमदेसिवियर को एक नया जीवनदान दे दिया है.
रेमदेसिवियर की प्रमुख भूमिका
नये कोरोना वायरस ‘सार्स-कोव-2’ से हो रही कोविड-19 नाम की विश्वव्यापी महामारी के इलाज़ में अब रेमदेसिवियर की सबसे प्रमुख भूमिका तो होगी ही, भारत की भी इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका होने जा रही है. इस दवा को बनाने वाली अमेरिकी कंपनी ‘गिलीएड’ भारत की चार कंपनियों सिप्ला लिमिटेड, हेटेरो लैब्स, जुबिलंट लाइफ़साइन्सेस और मायलन के मिले-जुले कंसोर्टियम को रेमदेसिवियर के उत्पादन का लाइसेंस देने जा रही है. ये कंपनियां कम से कम 2022 तक यूरोप, एशिया तथा विकासशील जगत के कुल 127 देशों के लिए इस दवा का उत्पादन करेंगी. ‘गिलीएड’ इन भारतीय कंपनियों को आवश्यक तकनीकी ज्ञान भी हस्तांतरित करेगी.
रेमदेसिवियर रोगी के शरीर की कोशिकाओं में उस एन्ज़ाइम को निरस्त करने के काम आती है, जिसकी सहायता से वायरस कोशिका के भीतर घुस कर उससे अपनी हू-बहू नकलें बनवाते हुए अपनी संख्या बढ़ाता है. ‘गिलीएड’ और भारतीय कंपनियों के बीच हुए समझौते के अनुसार रेमदेसिवियर के उत्पादन को जल्द से जल्द शुरू करने का प्रयास किया जायेगा.
कोई रॉयल्टी नहीं देनी पड़ेगी
भारतीय कंपनियों को रेमेदेसिवियर बनाने के लिए गिलीएड को तब तक कोई रॉयल्टी नहीं देनी गोगी, जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) जनस्वास्थ्य के लिए इस समय लागू आपात-स्थिति का अंत घोषित नहीं कर देता. या जब तक कोई दूसरी दवा अथवा टीका सर्वसुलभ नहीं हो जाता. भारतीय कंपनियों को आशा है कि जून तक यह स्पष्ट हो जायेगा कि रेमेदिसिवियर का उत्पादन कब शुरू हो पायेगा और इसकी क़ीमत कितनी रखी जाएगी.
रेमदेसिवियर का अमेरिका में 1063 लोगों पर क्लीनिकल परीक्षण किया गया है. इस परीक्षण में कुछ लोगों को सच्ची दवा दी गयी थी और कुछ को प्लासेबो यनी दिखावटी. इस परीक्षण में देखा गया कि जिन्हें सच्ची दवा दी गयी थी, उन्हें ठीक होने में 11 दिन ही लगे जबकि प्लासेबो लेने वालों को कोविड-19 से मुक्त होने में 15 दिन लग गये.
लेकिन अब तक पूरी तरह से यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या इस दवा के सेवन से रोगियों की मृत्यदर भी कारगर ढंग से घटायी जा सकती है? अमेरिका में हुए परीक्षण में यह सामने आया कि जिन रोगियों को सच्ची दवा दी गयी, उनकी मृत्यु दर आठ प्रतिशत रही. और जिन्हें दिखावटी दवा दी गयी, उनके बीच मृत्यु दर 11.6 प्रतिशत पायी गयी. यह अंतर इतना कम है कि इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि रेमदेसिवियर के सेवन से मृत्यु दर भी घट जाती है.
कारगरता के बारे में कुछ प्रश्न भी
रेमदेसिवियर की कारगरता के बारे में कुछ और प्रश्न भी हैं, जिनके उत्तर व्यापक इस्तेमाल के बाद ही शायद मिल पायेंगे. उदाहरण के लिए, कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस दवा से जो लोग जल्दी ठीक हो गये, वे इसे खाये बिना भी कुछ जल्दी ही ठीक हो गये होते? क्या इस दवा का इतना ही लाभ तो नहीं है कि उसके उपयोग से सघन देखभाल (इन्टेन्सिव केयर) की ज़रूरत नहीं पड़ती? रेमेदेसिवियर का प्रभाव युवा लोगों में बेहतर देखने में आता है या वयोवृद्ध लोगों में? जो भी हो, कह सकते हैं कि जहां अब तक कोरोना वायरस के लिए कोई दवा नहीं थी, वहां अब कम से कम एक दवा तो है. ठीक हो सकने वाले रोगी यदि चार दिन पहले ठीक हो जाते हैं, तो कम से कम चार दिन का उनका शारीरिक-मानसिक कष्ट घट भी तो जाता है. और इससे अस्पतालों का बोझ भी थोड़ा कम हो सकता है. जितनी जल्दी मरीज ठीक होंने उतनी जल्दी अस्पताल के बिस्तर खाली होंगे. और भारत जैसे देशों में इंटेंसिव केयर वाले बिस्तरों की पहले ही कमी है जिनकी जरूरत शायद रेमेदेसिवियर की वजह से कम ही पड़ती है.
उल्लेखनीय है कि दवाओं और टीकों के क्षेत्र में भारत और अमेरिका के बीच पहले भी कई आपसी सहयोग हो चुके हैं. वे डेंगू बुख़ार, वायरस या बैक्टीरिया से होने वाले पाचनतंत्र रोग, इन्फ्लूएन्ज़ा और क्षयरोग (टीबी) जैसी बीमारियों की रोकथाम के लिए रहे हैं. दूसरी ओर, भारत भी इस बीच, पेटेंट के बंधनों से मुक्त, तथाकथित जेनेरिक दवाओं और टीकों का विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन गया है. भारत की भी आधा दर्जन कंपनियां कोविड-19 का कोई टीका बनाने में जुटी हुई हैं. महाराष्ट्र में पुणे की कंपनी ‘सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया’ टीके बनाने वाली संसार की सबसे बड़ी कंपनी मानी जाती है. वह क़रीब 20 प्रकार के टीकों की हर वर्ष डेढ़ अरब ख़ुराकें (डोज़) बनाती है. नीदरलैंड और चेक गणराज्य में भी उसके दो संयंत्र हैं.
सितंबर-अक्टूबर तक पहला टीका!
‘सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया’ ब्रिटेन की ऑक्सफ़ोर्ड यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिको द्वारा विकसित एक ऐसे टीके का शीघ्र ही बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन करने जा रही है, जो कोविड-19 की रोकथाक के काम आयेगा. कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अदार पूनावाला ने जर्मनी के सार्वजनिक रेडियो-टेलीविज़न नेटवर्क ‘एआरडी’ को बताया कि पिछले अप्रैल महीने में ऑक्सफ़ोर्ड में इस टीके का मनुष्यों पर परीक्षण शुरू हो गया है. उसे चिंपांजी बंदरों में पाये जाने वाले एक वायरस के जीनोम में आनुवंशिक-अंतरण द्वारा विकसित किया गया है. यदि सब कुछ ठीक रहा तो सितंबर महीने तक उसकी 10 लाख ख़ुराकें बन सकती हैं. पूनावाला का कहना था कि उनकी कंपनी इसकी 40 से 50 करोड़ ख़ुराकें बनाने की क्षमता रखती है.
इसी तरह हैदराबाद की ‘भारत बायोटेक’ अमेरिका की विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी और ‘फ्लूजीन’ कंपनी के साथ मिल कर दुनिया भर में वितरण के लिए एक दूसरे टीके की 30 करोड़ ख़ुराकें बनाने जा रही है. तीन और भारतीय कंपनियां अपने अलग टीके विकसित करने में लगी हुई हैं. विदेशी मीडिया में भारत के इन प्रयासों की चर्चा नहीं के बराबर ही है. किंतु जो जानकार दवाओं के क्षेत्र में भारत में हुई प्रगति से परिचित हैं, वे मानते हैं कोरोना से दुनिया के उद्धार में भारत में बनने जा रही दवाओं और टीकों की बहुत बड़ी भूमिका होने जा रही है.
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