लेखक-निर्देशक - पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा
कलाकार - नवाजुद्दीन सिद्दीकी, रघुवीर यादव, अनुराग कश्यप, स्वानंद किरकिरे, इला अरुण, रागिनी खन्ना
रेटिंग - 2/5
ओटीटी प्लेटफॉर्म - ज़ी फाइव

‘घूमकेतु’ फिल्म नहीं भसड़ है, अंग्रेज़ी में कहें तो कम्प्लीट केओस. इसलिए क्योंकि फिल्म इतनी परतें, इतने जॉनर, इतने संदेश, इतनी बातें खुद में समेटने की कोशिश करती है कि सबके साथ न्याय हो पाना संभव ही नहीं था. साथ ही घूमकेतु में सिनेमा में होने वाली ज़रूरी नाटकीयता और वास्तविकता की मात्रा बराबर-बराबर रखने की समझदारी तो बरती गई है लेकिन इनके बीच की ताल को मिलाने-जमाने की जिम्मेदारी दर्शकों पर डाल दी गई है.

‘घूमकेतु’ से पुष्पेंद्र नाथ मिश्रा ने बतौर लेखक-निर्देशक डेब्यू किया है. मिश्रा की इस पहली फिल्म की पहली खासियत यह है कि इसकी कहानी थोड़ी-थोड़ी देर में अलग-अलग जगहों और समय में आती-जाती रहती है. (शुक्र है, किरदार वही रहते हैं!) इसके साथ ही, फिल्म का मुख्य किरदार कैमरे की आंखों में झांककर दर्शकों से बात भी करता है. इतना ही नहीं, सिनेमा पर ही सबसे ज्यादा बात करने वाला यह सिनेमा, बॉलीवुड के पटकथा लेखन पर टिप्पणी करते हुए, कई और छोटे-मोटे प्रयोग भी करता चलता है. यानी, ऊपर-ऊपर से देखें तो फिल्म में काफी कुछ नया है. लेकिन इन सबका मेल आपको टुकड़ों में ही खुश करता है.

फिल्म की कहानी लखनऊ के एक गांव में रहने वाले लड़के - घूमकेतु - की है. यह भोला-देहाती लड़का शादी के कार्ड और ट्रकों के पीछे शायरी लिखने का शौकीन है और यह मान बैठा है कि वह आगे चलकर एक बढ़िया फिल्म लेखक बन सकता है. आकाशीय पिंड धूमकेतु की प्रेरणा से अपना नाम पाने वाला यह ‘भावी-लेखक’ एक दिन उसी की तरह भटकता हुआ मुंबई पहुंच जाता है. मुंबई में घूमकेतु का स्ट्रगल दिखाने के बहाने फिल्म, हिंदी सिनेमा की तमाम क्लीशेड (घिसी-पिटी) बातों की जमकर खिल्ली उड़ाती है. फिर चाहे वह ह़ॉरर फिल्मों में हीरोइन का कम कपड़े पहनकर नहाना हो, रोमैंटिक फिल्मों के ट्रेन दृश्य हों या फिर कॉमेडी फिल्मों में मेंडेटरी रहने वाले आइटम गीत. लेकिन यह पटकथा की पहली परत ही है!

फिल्म की दूसरी दिलचस्प परत है, घूमकेतु का परिवार. गुस्सैल पिता, छुटभैया नेता चाचा, बेहद प्यार करने वाली बुआ, एक सौतेली मां और एक अदद पत्नी. इनके साथ घूमकेतु के समीकरण फिल्म का बेहद बारीकी से रचा गया सबसे मनोरंजक हिस्सा है. पिता के बहाने फिल्म जहां उत्तर भारतीय परिवारों में लगभग रोज होने वाले इमोशनल ड्रामों की झलक देती है, तो चाचा के जरिए राजनीति पर कुछ तीखे कटाक्ष करने के मौके भी निकालती है, वहीं बुआ का किरदार फिल्म के इमोशनल कोशंट को बढ़ाने का काम बहुत खूबसूरती से कर जाता है. यह सब देखते हुए लगता है कि अगर इस हिस्से को ही ‘घूमकेतु’ की मुख्य कहानी बनाया जाता तो शायद यह एक शानदार फैमिली ड्रामा बनती!

रुकिए, अभी कहानी में एक तीसरी परत भी है, जो एक पुलिस वाले और घूमकेतु का कनेक्शन बिठाते हुए रची गई है. इसके चलते फिल्म में कुछ चटपटे, हंसाने वाले दृश्य तो आते हैं लेकिन यह समझ नहीं आता कि इस हिस्से की फिल्म में क्या जरूरत थी! इसे दिखाते हुए फिल्म मुंबई को एक बाहरी व्यक्ति की नज़र से दिखाने की कोशिश भी करती है लेकिन इस नज़र पर चढ़ा चश्मा इतना पुराना और धुंधला है कि ज्यादा कुछ नज़र नहीं आता है. नया तो बिल्कुल भी नहीं. कुल मिलाकर, जितनी परतें, उतने किरदार और उतनी ही भसड़. यानी, ‘घूमकेतु’ अपने खरे-भदेसी कलेवर से जितना हंसाती है, अपनी अधपकी गंभीरता से उतना ही उकता भी देती है.

अभिनय की बात करें तो यह फिल्म का इकलौता ऐसा पक्ष है जिसमें कोई खोट नज़र नहीं आता है. रघुवीर यादव, इला अरुण, स्वानंद किरकिरे का होना न सिर्फ फिल्म में बहुत सारा ड्रामा और कॉमेडी लाता है, बल्कि किरदारों को विश्वसनीयता और ग्रेस भी देता है. खास तौर पर बुआ बनी इला अरुण, जो भतीजे के लिए प्रार्थनाएं करते हुए, उसकी कहानियां सुनते हुए या भाइयों से झगड़ते हुए अपने मक्खन सरीखे अभिनय से हमें प्रसन्नता से चकित कर देती हैं. घूमकेतु की भूमिका निभाने वाले नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी हमेशा की तरह विश्वसनीय काम करते हैं और घिसे-पिटे चुटकुले भी इतना डूबकर सुनाते हैं कि आप खुद को हंसी आने से रोक नहीं सकते हैं. वहीं, अजीब-सी पिनक में रहने वाले पुलिस वाले की भूमिका निभाते हुए अनुराग कश्यप खिसियाहट और बेशर्मी का बढ़िया कॉम्बिनेशन दिखाते हैं.

अभिनय से काफी कम लेकिन फिल्म के संवादों की भी तारीफ की जा सकती है. इनमें से कुछ इतने कमाल लिखे गए हैं कि उन्हें रिवाइंड करके दोबारा देखने से आप खुद को रोक नहीं पाते हैं. (ऑनलाइन फिल्म देखने के कुछ फायदे भी तो होते हैं!) यहां पर जो चीज़ सबसे ज्यादा खटकती है, वह है फिल्म में टाइमलाइन का अंदाज़ा न मिल पाना. यानी, अगर रणवीर सिंह और सोनाक्षी सिन्हा का जिक्र फिल्म में न होता तो इसे एट्टीज-नाइंटीज किसी भी दौर का बताया जा सकता था. कुल मिलाकर, ‘घूमकेतु’ में बहुत सारी अच्छी बातें शामिल हैं, लेकिन इनमें से कइयों का कोई मतलब न निकल पाना आपको फिल्म देखने के बाद एक खालीपन का एहसास करवाता है. वैसा ही, जैसा किसी भसड़ से बाहर निकलने के बाद होता है.

अगर आप इसे देखना चाहते हैं तो यह सोचकर देख सकते हैं कि अगर फिल्म में भसड़ ही भसड़ है तो कोरोना संकट के इस दौर में बाहर कौन सा राम राज्य चल रहा है!