19 मार्च 2020. यह पहली बार था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोविड-19 महामारी के बारे में बात करने के लिए देश के सामने आए. तब दुनिया भर में कोरोना को दस्तक दिए क़रीब तीन महीने गुज़र चुके थे. भारत में भी इस बीमारी का पहला मामला जनवरी के आख़िर में आ गया था. लेकिन केंद्र सरकार के पास देर से संभलने के पीछे कई दलीलें थीं. इनमें से सबसे प्रमुख दलील यह थी कि इस मामले में हम अमेरिका और इटली जैसे विकसित देशों से आगे रहे!
अपने उस संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में देशवासियों से कई बातें कहीं. लेकिन उनमें सबसे प्रमुख थी जनता कर्फ़्यू लगाए जाने की अपील. प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से 22 मार्च यानी रविवार को सुबह सात से रात नौ बजे तक ख़ुद को घरों में क़ैद करने की बात कही. लेकिन इससे भी ख़ास उनका वह आह्वान था जिसमें उन्होंने कोरोना वॉरियर्स का आभार जताने के लिए शाम पांच बजे पांच मिनट के लिए अपने घरों के दरवाजों, बालकनियों और छतों पर जाकर थाली, ताली और घंटी बजाने की बात कही.
प्रधानमंत्री के संबोधन के तुरंत बाद ही फ़िल्मी सितारों से लेकर समाचार चैनलों तक का एक बड़ा वर्ग 14 घंटे के जनता कर्फ़्यू की तार्किकता और फ़ायदे गिनाने में जुट गया. इस कर्फ़्यू को कोविड-19 के ख़िलाफ़ मास्टरस्ट्रोक बताया गया. दावे किए गए कि चूंकि कोरोना वायरस किसी सतह पर कुछ घंटे ही जीवित रह सकता है इसलिए 14 घटों की सोशल डिस्टेसिंग अपनाने के बाद भारत कोरोना से लड़ाई में बड़ी बढ़त हासिल कर लेगा. वहीं थाली, घंटी बजाने को ध्वनि तरंगों के माध्यम से कोरोना का इलाज़ तक घोषित कर दिया गया.
22 मार्च का भी दिन आ गया. लोगों ने दिन भर जिस तरह से जनता कर्फ़्यू का पालन किया वह संतोषजनक था. लेकिन शाम के पांच बजते ही जो कुछ हुआ वह हम सभी ने देखा. देश भर से ऐसे वीडियो सामने आने लगे जिनमें लोग झुंड के झुंड बनाकर थालियां, शंख बजाते सड़कों पर घूम रहे थे. कुछ जगहों पर इस विवेकहीन भीड़ की अगुवाई करने वालों में पुलिसकर्मियों से लेकर कई नेता भी शामिल थे. और कुछ जगहों पर सड़क पर ही जमकर गरबा भी खेला गया.
असल में यह जनता कर्फ़्यू उस लॉकडाउन का आग़ाज़ था जिसे आगे चलकर चार चरणों में सत्तर दिनों के लिए बढ़ा दिया गया. लेकिन अस्पष्ट संवाद और चारों तरफ तैर रहीं भ्रामक जानकारियों की वजह से जनता कर्फ्यू का जो हश्र हुआ उसी ने लॉकडाउन का अंजाम भी तय कर दिया था. फिर भी आने वाले दिनों में हमारा सामना जिस भयावह और दुखद मंजर से होना था, उसका अंदाज़ तब कम ही लोग लगा पाए होंगे!
जनता कर्फ्यू के दो दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक और बार देश से रूबरू हुए. अपने इस संबोधन में उन्होंने बेहद दमदार शब्दों में जनता कर्फ़्यू को पूरी तरह सफल घोषित किया. उन्होंने कहा कि जनता कर्फ़्यू में हर वर्ग के लोगों ने पूरी संवेदनशीलता और जि़म्मेदारी के साथ योगदान दिया था जिसमें ग़रीब भी शामिल थे. इसके लिए प्रधानमंत्री ने उनका आभार भी जताया. इसी के साथ पहले चरण के लॉकडाउन की भी घोषणा कर दी गई जो करीब साढ़े तीन घंटे बाद से 21 दिनों के लिए चलना था.
यहीं से लाखों भारतीयों के लिए एक तकलीफों का एक नया अध्याय शुरु हो गया. दरअसल अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिन ग़रीबों को जनता कर्फ्यू में सहयोग देने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया था लॉकडाउन की मुनादी करते वक़्त शायद वे उनके बारे में भूल गये थे. यह आश्चर्यजनक था कि केंद्र सरकार इतनी सी बात का अंदाज़ नहीं लगा पाई कि देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसके सामने कुछ दिनों के लॉकडाउन से ही रोज़ी-रोटी का संकट आ खड़ा होगा! नतीजतन प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे संबोधन के तुरंत बाद ही उन लाखों-लाख लोगों ने अपने-अपने घरों की ओर निकलना शुरु कर दिया जो दूसरे राज्यों में मज़दूरी कर अपने और अपने परिवार का पेट पाल रहे थे. दिल्ली के आनंदविहार टर्मिनल पर इकठ्ठी हुई भीड़ की डरावनी तस्वीरों को भूल पाने में हमें समय लगेगा और आरोपों-प्रत्यारोपों के उस दौर को भी जो इस घटना के बाद दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारों के बीच चला था.
पूरी दुनिया में यह बात स्वीकार्य है कि संकट के समय में संवाद बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए. जबकि भारत सरकार ने इस मुश्किल घड़ी में उस तबके को ही सबसे बड़े असमंजस की स्थिति में छोड़ दिया जिसे सबसे ज़्यादा इत्मीनान और सरल शब्दों में समझाए जाने की ज़रूरत थी. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाद में ट्विटर के ज़रिए लोगों से जहां हैं, वहीं रहने की अपील की थी. लेकिन अव्वल यह बात तुलनात्मक तौर पर बहुत ही ग़ैरप्रभावी और सिर्फ़ औपचारिकता निभाने वाले ढंग से कही गई थी. उनकी यह कोशिश इसलिए भी थोड़ी अजीब मानी जा सकती है क्योंकि जिन लोगों तक यह संदेश सही मायने में पहुंचाया जाना था उनमें से न जाने कितनों ने कभी स्मार्टफ़ोन का इस्तेमाल तक नहीं किया होगा, ट्विटर तो बहुत दूर की बात है.
ऐसा नहीं है कि कोरोना को रोकने या उससे निपटने की तैयारियों के लिए लॉकडाउन ज़रूरी नहीं था. अपने सही प्रबंधन के चलते यह दुनिया भर में मोदी सरकार की सराहना की वजह भी बन सकता था. लेकिन जिस तरह से इसे लागू किया गया उस तरीके को सही कह पाना मुश्किल है. मोदी सरकार कोरोना वायरस के ख़तरे से अनभिज्ञ नहीं थी. मार्च की शुरुआत में ही भारत में कोराना संक्रमितों की संख्या दहाई में पहुंच गई थी. इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किसी भी होली मिलन समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया था. उनके मुताबिक उन्होंने यह फैसला कोरोना वायरस संक्रमण को रोकने के संबंध में विशेषज्ञों की सलाह को ध्यान में रखते हुए लिया था.
ऐसे में जानकारों का कहना है कि मार्च के चौथे सप्ताह तक कोई और ठोस क़दम क्यों नहीं उठाए गए और अगर वे नहीं उठाये गये तो मज़दूरों या उन लोगों को अपने-अपने घर जाने के लिए कुछ दिन की रियायत भी दी ही जा सकती थी जो अलग-अलग कारणों के चलते दूसरे राज्यों में फंसे थे. हालांकि इस पर यह तर्क दिया जा सकता है कि ऐसा करते ही देश में अफ़रा-तफ़री का माहौल पैदा हो जाता. लेकिन वैसा माहौल न पैदा होने से रोका जा सका और न ही उस पर आज तक काबू पाया जा सका है.
रिकॉर्ड्स यह भी बताते हैं कि लॉकडाउन लागू करते समय, सरकार ने अपने शीर्ष वैज्ञानिकों की सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया. फरवरी 2020 में इन वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च के आधार पर लॉकडाउन के बजाय ‘समाज और सिविल सोसाइटी की अगुआई में सेल्फ क्वारंटीन और सेल्फ मॉनिटरिंग’ की सलाह दी थी.’ एक महीने से अधिक समय तक, इन वैज्ञानिकों के शोध और सलाह पर ध्यान नहीं दिया गया. इसके बजाय केंद्र सरकार ने - साढ़े तीन घंटों के नोटिस के साथ - एक ऐसी देशव्यापी तालाबंदी का ऐलान कर दिया जिसने गरीबों और प्रवासियों के सामने आजीविका और खाने-पीने का संकट खड़ा कर दिया.
मोदी सरकार के लॉकडाउन के फैसले की इसलिए भी आलोचना हुई क्योंकि उसने इतना बड़ा क़दम उठाने से पहले राज्य सरकारों या विपक्ष से उचित सलाह-मशवरा नहीं किया था. जनता कर्फ़्यू के समय संसद का सत्र चल रहा था. लेकिन केंद्र सरकार ने सदन में इसकी चर्चा तक करना उचित नहीं समझा. यही नहीं, लॉकडाउन से ठीक पहले संसद के दोनों सदनों को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया. जबकि आपदा के इस दौर में क़रीब सौ देशों की संसदें अपनी-अपनी सरकारों के फ़ैसलों को परख रहीं थीं, उससे सवाल कर रही थीं और व्यवस्थाओं की पारदर्शिता सुनिश्चित कर रही थीं. ऐसा करने में पक्ष-विपक्ष दोनों शामिल थे.
और यदि कुछ देशों ने ऐसा न भी किया हो तो हमारे पास एक मौका था, कि इस अभ्यास को अपनाकर हम ‘आपदा को अवसर में बदलने’ की एक नज़ीर पेश कर सकते थे. इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) नाम की एक संस्था दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद और समन्वय के लिए एक मंच उपलब्ध करवाती है. कोरोना महामारी के दौरान विश्व के तमाम छोटे-बड़े देशों की संसदीय गतिविधियों का ब्यौरा इस संस्था की वेबसाइट पर उपलब्ध है. लेकिन भारत की संसदीय गतिविधि से जुड़ी कोई जानकारी आपको यहां नहीं मिलेगी.
ऐसे में सरकार की जवाबदेही तय करने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ न्यायपालिका के ही जिम्मे रही जिसकी अपनी सीमाएं हैं जो दिखी भीं. क्या यह सही नहीं होता कि केंद्र सरकार ‘20 लाख करोड़ रुपये’ की राहत और आर्थिक सुधार की घोषणा करने से पहले संसद में या उसके एक हिस्से से इस बारे में चर्चा कर लेती! चूंकि इस पैकेज पर सदन में कोई चर्चा नहीं हुई इसलिए यह जानकारी अब तक स्पष्ट नहीं हो पाई है कि इसमें से कितनी राशि सही मायने में आपदा राहत के तौर पर ज़ारी की गई और कितनी राशि पहले से ही तय योजनाओं और खर्चों के अधीन आती है. और इसके लिए अतिरिक्त धन कहां से आएगा? हाल ही में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने कनाडा का उदाहरण देते हुए ट्वीट किया था कि जब वहां संसद के वर्चुअल सेशन हो सकते हैं तो हमारे देश में क्यों नहीं?
Canada’s Parliament meets virtually while India’s cannot even permit Committee meetings with much smaller numbers. Since confidentiality is supposedly the issue with Committees, why not convene the whole Parliament, whose proceedings are normally televised anyway? @ombirlakota https://t.co/ckOihy55bv
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) May 18, 2020
यह पहली बार है जब देश में डिजास्टर मैनेजमेंट (डीएम) एक्ट लगाया गया है. यानी कोरोना वायरस से निपटने के लिए केंद्र ने ख़ुद को असीम अधिकार सौंप दिए और राज्य शक्तिविहीन हो गये. इस संकट से निपटने की कमान पूरी तरह नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी को सौंप दी गई. इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं. विश्लेषकों का मानना है कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वन मैन शो के बजाय विशेषज्ञों और देश के दूसरे राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर के लॉकडाउन लागू करते तो शायद हालात इतने खराब नहीं होते.
इससे पहले जब 2009 में एच-1एन-1 वायरस ने भारत में अपने पैर पसारे थे उस समय की समाचार रिपोर्ट्स बताती हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार (प्रथम) सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों और स्वास्थ्य मंत्रियों के लगातार संपर्क में रहती थी, उनसे रायशुमारी करती थी. जबकि एच-1एन-1 तो कोरोना के मुक़ाबले कहीं ठहरता ही नहीं था.
फिर, मोदी सरकार में कोरोना की वजह से हुए नुकसान और उससे निपटने की तैयारियों से जुड़े ताजा ब्यौरे को हर रोज मीडिया के माध्यम से देशवासियों के साथ साझा करने का काम भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन की बजाय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने किया. जबकि अमेरिका समेत दूसरे सभी देशों में यह जिम्मेदारी वहां के सबसे बड़े नेताओं ने ही निभाई. लेकिन 11 मई के बाद से भारत में इस औपचारिक प्रेस ब्रीफिंग को भी बिना कोई कारण बताए ही लॉकडाउन यानी बंद कर दिया गया है.
ग़ौरतलब है कि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के सदस्यों ने 23 अप्रैल से ही इस ब्रीफिंग में हिस्सा लेना बंद कर दिया था. उनका आरोप था कि उस बैठक में भाग लेने वाले नौकरशाह चीन से आई कोरोना रेपिड टेस्टिंग किट की गड़बड़ियों और उनके आयात के बारे में अस्पष्ट जानकारी देने लगे थे. आईसीएमआर के सदस्यों के मौज़ूद न होने की वजह से इस प्रेस ब्रीफिंग में ऐसा कोई विशेषज्ञ नहीं होता था जो स्वास्थ्य संबंधी नीतियों से जुड़े सवालों का जवाब दे सके. यानी यह मुश्किल काम नौकरशाहों के ही कंधों पर आ गया था. जानकार इसे प्रेस ब्रीफिंग बंद होने के पीछे एक बड़ी वजह मानते हैं.
बहरहाल, स्थिति क़ाबू से बाहर जाते देख अप्रैल के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रतिभा पाटिल, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और एचडी देवगौड़ा के अलावा कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह और शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख प्रकाश सिंह बादल जैसे विपक्षी नेताओं के साथ चर्चा की. इसके अलावा प्रधानमंत्री ने कोरोना वायरस से निपटने की रणनीति बनाने के लिए आठ अप्रैल को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई. एक लोकतांत्रिक देश होने के नाते उनका यह करना संतोषजनक और ज़रूरी था.
लेकिन ये सारी बातें इन्हीं दिनों की एक अन्य घटना के आगे फीकी पड़ जाती हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड-19 को लेकर देश को तीन अप्रैल को तीसरी बार संबोधित किया. इस बार भी उन्होंने अपने संबोधन में कोरोना से निपटने की सरकार की रणनीतियों के बारे में कोई चर्चा नहीं की. बल्कि अगले रविवार यानी पांच अप्रैल के लिए देश की जनता को एक नया टास्क दे दिया. इसमें सभी देशवासियों को अपने घरों की लाइटें बंद कर, दरवाजे पर या बालकनी में खड़े रहकर मोमबत्ती, दिया, टॉर्च या मोबाइल की फ्लैशलाइट जलानी थी. इसके लिए भी प्रधानमंत्री ने रात नौ बजे, नौ मिनट के लिए जैसी तुकबंदी का इस्तेमाल किया और इस बार उन्होंने अपना भाषण भी सुबह नौ बजे ही दिया था. लेकिन उनके समर्थक एक बार फिर उनसे कई क़दम आगे चले गए. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आवाहन में नौ जोड़ने की कुछ और संभावनाएं निकालीं और फिर इस अंक में मोमबत्ती के प्रकाश का मिश्रण करके इसे एक पारलौकिक घटना में तब्दील कर दिया.
इसके बाद पांच अप्रैल को कुछ अति-उत्साही लोगों ने आतिशबाज़ी करते हुए हाथों में मशालें लेकर एक बार फ़िर उसी तरह के जुलूस निकाले मानो भारत ने कोरोना का ख़ात्मा कर लिया था. उत्तर प्रदेश की भाजपा नेता मंजू तिवारी तो इनसे भी एक क़दम आगे निकल गईं. उन्होंने पिस्तौल से हवाई फ़ायरिंग की और उसका वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया. आलोचकों ने इसे आपदा का जश्न मनाने के तौर पर देखा. इसे एक ऐसे उथले प्रतीकवाद के तौर पर भी देखा गया जो अक्सर उथल-पुथल लाने का कारण बनते हैं. उधर देश का एक बड़ा तबका कई दिन गुज़रने के बाद तब भी अपने-अपने परिवारों के साथ पैदल ही देश की सड़कें नापने को मज़बूर था.
यही वह समय भी था जब दिल्ली के निज़ामुद्दीन में तब्लीगी जमात के सम्मेलन और उसके कई सदस्यों के कोरोना संक्रमित होने की बात बता चली. जमात की गैरजिम्मेदाराना हरकतों की आड़ में देश भर के सारे मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल खड़ा किया गया. इस दौरान गली-मौहल्लों में मुसलमान सब्जी वालों से उनके पहचान पत्र मांगे जाने लगे. उनके साथ मारपीट की गई. हालांकि बाद में जब खाड़ी देशों की तरफ़ से भारत में मुसलमानों के साथ हो रही ज़्यादती और भेदभाव पर नाराज़गी जताई गई तो प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों से एकता और भाईचारा बनाए रखने की अपील की. उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस हमला करने से पहले धर्म, जाति, रंग, भाषा और सीमाएं नहीं देखता, इसलिए साथ मिलकर इसका मुकाबला करें.
लॉकडाउन के कुछ काले पन्ने वे भी थे जब मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य और सफ़ाई कर्मचारियों पर हमले हुए. बच्चा चोर समझकर महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं सहित तीन लोगों की मॉब लिंचिंग कर दी गई.
लॉकडाउन के शुरुआती चरण में ही एक बड़ा विवाद पीएम केयर्स फंड की शक्ल में भी सामने आया. प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के रहते कोविड-19 से निपटने के लिए एक नया ट्रस्ट बनाए जाने को लेकर मोदी सरकार को जमकर कटघरे में खड़ा किया गया. ऐसा करने की कुछ ठोस वजहें थीं. बनने के दो महीने बाद भी पीएम केयर्स फंड से जुड़ी अहम जानकारियां सार्वजनिक नहीं की गई हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री कार्यालय ने सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई इस ट्रस्ट की जानकारी उपलब्ध करवाने से यह कहकर इन्कार कर दिया कि पीएम केयर्स फंड सार्वजनिक प्राधिकरण नहीं है. यानी कि इसे लेकर भी मोदी सरकार की पारदर्शिता पर सवाल उठाये जा सकते हैं. एक फंड, जिससे देश का प्रधानमंत्री और कई कैबिनेट मंत्री सीधे जुड़े हैं, जिसमें जनता का पैसा लगा है और जिसे जनता पर ही खर्च किया जाना है उससे जुड़ी जानकारी देने में संकोच का कोई कारण समझ में आ पाना मुश्किल है.
लॉकडाउन का दूसरा चरण 14 अप्रैल को शुरु हुआ. इससे पहले 11 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 13 मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस कर इस बारे में चर्चा की थी. अब तक यह माना जा रहा था कि पहले लॉकडाउन की वजह से सरकार को जो समय मिला उसमें उसने उचित रणनीतियां बनाकर उन्हें ज़मीन पर उतारने की तैयारी पूरी कर ली होगी. लेकिन दूसरे चरण के साथ ही हालात बदतर होते चले गए. इस दौरान हताश, भूखे और बेरोजगार हो चुके प्रवासी मज़दूरों के पलायन ने भी विकराल रूप ले लिया. सरकार की तरफ़ से अपनाई जाने वाली अस्पष्टता और लोगों में भ्रम की स्थिति एक बार फ़िर इसका प्रमुख कारण बनी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले लॉकडाउन के समय कहा था कि महाभारत 18 दिनों में जीता गया था, कोरोना वायरस युद्ध जीतने में 21 दिन लगेंगे. फ़िर केंद्र की तरफ़ से एक और बयान सामने आया जिसमें केंद्रीय कैबिनट सचिव राजीव गौबा ने पहले चरण के लॉकडाउन को आगे बढ़ाए जाने की ख़बरों को महज़ अफ़वाह बताया. इसी बीच भारतीय रेलवे ने भी आईआरसीटीसी के एप और वेबसाइट के ज़रिए पंद्रह अप्रैल के लिए टिकटों की बुकिंग शुरु कर दी. लेकिन जब लोगों को लॉकडाउन के आगे बढ़ने की सूचना मिली तो उनका बचा-खुचा सब्र भी टूट गया.
इसकी परिणति 14 अप्रैल को मुंबई में देखी गई जब बांद्रा रेलवे स्टेशन पर प्रवासी मज़दूरों की भारी भीड़ इकट्ठा हो गई. ये सभी घर जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे थे, इन्हें उम्मीद थी कि लॉकडाउन खत्म हो जाएगा. इस बीच लगातार बढ़ती भीड़ के कारण भगदड़ मच गई जिसे पुलिस को लाठी चार्ज कर नियंत्रण में लाना पड़ा. बाद में इस घटना के लिए महाराष्ट्र पुलिस ने मज़दूरों के एक नेता और एक टीवी पत्रकार सहित 11 लोगों को गिरफ़्तार किया. इन सभी पर अफवाह फैलाने का आरोप लगाया गया. जबकि एबीपी चैनल के मुताबिक़ उसने उस ख़बर को जनहित में प्रसारित किया था और इसका आधार वैध दस्तावेज़ और जानकारियां थीं. चैनल ने उसके रिपोर्टर पर पुलिस की कार्रवाई को हैरान करने वाला बताया. कुछ ऐसा ही वाक़या गुजरात के सूरत में भी देखने को मिला था.
लॉकडाउन के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों से जहां पिछड़े तबकों पर पुलिस द्वारा ज्यादती के वीडियो सामने आ रहे थे वहीं अलग-अलग राज्यों में रसूख़दारों द्वारा सोशल डिस्टेसिंग को बेख़ौफ़ तोड़ने के भी कई मामले सामने आए. इनमें सबसे पहला ज़िक्र मध्यप्रदेश का होता है जहां कमलनाथ सरकार के गिरने की ख़ुशी में भाजपा के सैंकड़ों कार्यकर्ता पार्टी मुख्यालय पर इकठ्ठे हो गए. अचरज़ की बात नहीं कि इनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसी तरह महाराष्ट्र में प्रमुख सचिव (गृह) अमिताभ गुप्ता की मदद से मुंबई के कारोबारी कपिल और धीरज वाधवान अपने साथ 23 लोगों को लेकर प्रदेश के ही हिल स्टेशन महाबलेश्वर पर पहुंच गए थे. हालांकि यस बैंक घोटाले के आरोपों में घिरे इन व्यापारियों को बाद में गिरफ़्तार कर लिया गया था.
इसी तरह लॉकडाउन के बीच कर्नाटक में हुई एक भव्य शादी भी सवालों के घेरे में रही थी. यह शादी प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी के बेटे निखिल गौड़ा की थी. इस विवाह में आए सैंकड़ों आगंतुकों के बीच सोशल डिस्टेंसिंग या फिर मास्क जैसी सावधानियां दूर-दूर तक नहीं दिखाई दी थीं. संभावना जताई गई मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली प्रदेश की भाजपा सरकार इस मामले में कड़ी कार्रवाई करेगी. लेकिन चौंकाने वाले ढंग से येदियुरप्पा एचडी कुमारस्वामी के बचाव में उतर आए और इस शादी के बारे में ज़्यादा चर्चा न करने की सलाह दे डाली. ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि कुछ ही दिन पहले येदियुरप्पा ख़ुद भाजपा के एक विधायक के बेटे की भव्य शादी में जा पहुंचे थे. हालांकि तब लॉकडाउन लागू नहीं हुआ था. लेकिन कर्नाटक सरकार तब तक शादियों में भीड़-भाड़ नहीं होने देने के निर्देश ज़ारी कर चुकी थी. फ़िर येदियुरप्पा सरकार में मंत्री बी श्रीरामुलु भी इस दौरान अपनी बेटी की शादी पर शानदार आयोजन कर अपनी आलोचना करा चुके थे.
यह जानना दिलचस्प लग सकता है कि निखिल गौड़ा की शादी वाले दिन यानी 17 अप्रैल को ही कर्नाटक के कलबुर्गी जिले में एक मंदिर का रथ खींचने के सालाना आयोजन में काफी लोग जमा हुए थे. इसके चलते संबंधित गांव को सील करने के साथ-साथ मंदिर के ट्रस्ट और 19 अन्य लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली गई थी. इस मामले में कम से कम पांच लोगों को गिरफ़्तार किया गया और एक डिविजनल मजिस्ट्रेट के साथ एक सब इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया. एक ही राज्य में, एक ही सा क़ानून तोड़ने पर शासन-प्रशासन के इस दोहरे रुख़ को बड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था.
वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजस्थान के कोटा में फंसे क़रीब नौ हज़ार बिहारी बच्चों की घरवापसी की अपील को लॉकडाउन की मर्यादा का हवाला देते हुए ख़ारिज कर दिया था. इसके विरोध में पटना से लेकर कोटा तक कई विद्यार्थियों और उनके क़रीबियों ने प्रदर्शन और अनशन किये लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी. किंतु उसी दौरान नवादा ज़िले के भाजपा विधायक अनिल सिंह कोटा में फंसी अपनी बेटी और पत्नी को निजी वाहन से घर ले गए. ऐसा करने के लिए उन्हें बाक़ायदा प्रशासन से इजाज़त मिली थी.
इस सब के बीच बीस अप्रैल बड़ी राहत लेकर आई. तब केंद्र सरकार ने आयुष सहित सभी स्वास्थ्य सेवाओं, खेती, बागवानी और मत्स्य पालन से जुड़े काम, चाय-कॉफी और रबड़ की खेती से जुड़ी गतिविधियों व पशुपालन से जुड़े कामों को शुरू करने की इजाजत दे दी. इनके साथ ही वित्तीय सेवा से जुड़े कार्यों, मनरेगा, हर तरह के सामान की ढुलाई, औद्योगिक गतिविधियों के अलावा निर्माण संबंधी कार्य करने की भी ढील दे दी गई. लेकिन इसी के साथ नए निर्देश जारी करते हुए केंद्र सरकार ने एक बार फ़िर स्पष्ट कर दिया कि कोई भी राज्य लॉकडाउन को लेकर उसके द्वारा जारी किए गए दिशा-निर्देशों में कोई ढील नहीं दे सकेंगे. जबकि जानकारों का मानना है कि इस स्थिति में कुछ निर्णय राज्यों के विवेक पर भी छोड़े जाने चाहिए थे क्योंकि हर राज्य की स्थिति दूसरे से बहुत अलग है.
कोविड-19 संकट के इस समय में एक और अजीब बात हुई. जब यह महामारी बड़ी तेजी से हमारी समस्या बन रही थी उसी दौरान 23 अप्रैल को एक विशेष कमेटी ने सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी. इस प्रोजेक्ट के तहत राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक के क़रीब तीन किलोमीटर लंबे मार्ग के पुनर्निमाण, नए संसद भवन, केंद्रीय सचिवालय और प्रधानमंत्री आवास का निर्माण प्रस्तावित है. इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत बीस हजार करोड़ रुपए आंकी जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक इस क़ीमत में दस लाख से ज़्यादा वेंटिलेटर ख़रीदे जा सकते हैं.
लॉकडाउन के तीसरे चरण की शुरुआत 18 मई से हुई थी. इससे पहले आसीएमआर ने यह सलाह दी थी कि कोविड -19 के लक्षण वाले लोगों की सक्रिय पहचान करने के लिए हर ज़िले में घर-घर जाकर निगरानी करें. परीक्षणों के परिणामों की प्रतीक्षा किए बिना ऐसे लोगों को जल्द से जल्द क्वारंटीन करें. अगर किसी जिले में ऐसा करने के 14 दिनों बाद कोविड -19 के मामलों में कम से कम 40 फीसदी की गिरावट आती है और वहां की चिकित्सा का बुनियादी ढांचा भविष्य में इस तरह के नये मामलों से निपटने के लिए तैयार है, केवल तब ही लॉकडाउन को ढीला करें.
लेकिन दो एक्सटेंशंस और छह सप्ताह के लॉकडाउन के बावजूद, सरकार ने आईसीएमआर के घर-घर जाकर निगरानी के सुझाव पर अमल नहीं किया और न ही लॉकडाउन को उठाने के लिए उसके “डिसीजन-मेकिंग ट्री” (एक तरह का फ्लोचार्ट) की ही मदद ली. इसके बजाय, उसने लॉकडाउन के असर का आकलन करने और देश भर के जिलों में छूट देने का निर्णय लेने के लिए अपारदर्शी तरीके से फैसले लिये जिनके बारे में पूरी जानकारी राज्य सरकारों को भी नहीं दी गई. विशेषज्ञों की सलाह की अनदेखी का नतीजा है तालाबंदी के बावजूद कोविड-19 के मामलों में भारी उछाल के रूप में देखने को मिला है.
भारत में कोरोना वायरस की शुरुआत के समय से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का गृह राज्य गुजरात स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े तकरीबन हर मोर्चे पर नाकाम नज़र आया. गुजरात हाईकोर्ट ने अहमदाबाद के सिविल अस्पताल को काल कोठरी जैसा बताया और प्रदेश की विजय रुपानी सरकार को कड़ी फटकार लगाई. जबकि कई दूसरे राज्य ऐसे थे जो कोविड-19 के ख़िलाफ़ उचित रणनीति बनाने और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करने के मामले में न सिर्फ़ गुजरात बल्कि केंद्र सरकार से भी एक कदम आगे दिखे. केरल और राजस्थान के नाम इन राज्यों में शामिल माने जा सकते हैं. इनमें से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तारीफ़ ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी की थी.
मौज़ूदा स्थिति की बात करें तो क़रीब 16 हजार मरीज़ों के साथ गुजरात कोरोना संक्रमण के मामले में देश का शीर्ष चौथा राज्य बना हुआ है. जबकि आबादी के हिसाब से यह देश में 10वें स्थान पर आता है. पूरे देश की बात करें तो 24 मार्च को जब प्रधानमंत्री ने देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान किया था उस वक्त कोरोना वायरस के मरीजों का आंकड़ा 500 के करीब था और तब तक इसके संक्रमण से केवल 10 मौतें ही हुई थीं. आज मामलों की संख्या दो लाख से ऊपर जा चुकी है और मौतों का आंकड़ा साढ़े पांच हजार को पार कर चुका है. अब लगभग हर दिन ही मामलों और मौतों के आंकड़े पिछले दिन को पीछे छोड़ रहे हैं.
लॉकडाउन में भारतीय जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने भी अपनी और पार्टी की जमकर किरकरी करवाई. देश में कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे का एक बयान सुर्खियों आ गया. इसमें उन्होंने धूप से कोरोना वायरस के इलाज का दावा किया था. जबकि बीते कुछ दिनों में जब पारा रिकॉर्ड ऊंचाई पर था तब भारत में कोरोना के सबसे ज्यादा मरीज़ सामने आए. अश्विनी चौबे इससे पहले गोमूत्र से कैंसर के इलाज का दावा करने के चलते भी सुर्खियों में रहे थे. इसी तरह मुंबई के एक कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने भी गो-कोरोना, कोरोना-गो के नारे लगाए थे. इस पर उन्हें सोशल मीडिया पर खूब ट्रोल किया गया था.
हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के पश्चिम बंगाल के अध्यक्ष दिलीप घोष ने विशेष रेलगाड़ियों से घर लौटने वाले प्रवासियों की मौत को छोटी घटनाएं बताकर नया विवाद खड़ा कर दिया. ग़ौरतलब है कि बीते कुछ दिनों में ख़ास तौर पर श्रमिकों के लिए चलाई जाने वाली रेलगाड़ियों का रूट कथित तौर पर इतना डायवर्ट कर दिया गया था कि जिस रेल को अपनी यात्रा दो दिन में पूरी करनी थी उसे मंजिल तक पहुंचने में नौ दिन लगे. रेलवे पुलिस फोर्स (आरपीएफ़) के हवाले से आई एक ख़बर के मुताबिक नौ मई से 27 मई के बीच श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में 80 लोगों की मौत हो चुकी है. ऐसी ही एक महिला के प्लेटफॉर्म पर पड़े शव और उसके साथ खेलते उसके नन्हे बच्चे की तस्वीर ने लोगों को झकझोर दिया था.
इस संकटकाल में रेलवे को इसलिए भी तीव्र प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा क्योंकि उसने मज़दूरों से उनके नाम पर चलाई गई विशेष रेलों में सामान्य से ज़्यादा किराया वसूला था. केंद्र सरकार का इस मामले में यह कहना था कि इस किराये का 85 प्रतिशत भाग उसने वहन किया है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस बात को स्वीकार किया केंद्र ने मज़दूरों को ऐसी कोई छूट नहीं दी थी. वहीं एक वायरल ऑडियो में रेलवे के एक अधिकारी उस मज़दूर को ट्रेन से कूद जाने की बात कहते सुनाई दिए जिसने रेल में खाना न मिलने की शिकायत की थी. दूसरी तरफ़ विदेशों में फंसे भारतीयों को मुफ़्त में विमानों के ज़रिए वापिस लाने और श्रमिक एक्सप्रेसों से पहले सिर्फ़ एसी ट्रेनें चलाकर सरकार ग़रीब मज़दूरों के जले पर पहले ही नमक छिड़क चुकी थी.
लॉकडाउन के दौरान जो सबसे भयानक हादसा सामने आया वह भी रेलवे से ही जुड़ा है. हालांकि इसमें रेलवे की कोई ग़लती नहीं थी जब महाराष्ट्र में एक मालगाड़ी की चपेट में आकर 16 लोगों के चिथड़े उड़ गए थे. ये सभी मध्यप्रदेश में अपने घर जाने के लिए निकले थे और पटरियों के सहारे चलते-चलते उन्हीं पर सो गए थे.
महामारी और लॉकडाउन के इस दौर को देश के लिए आर्थिक मोर्चे पर बेहद मुश्किल परिस्थितियों के लिए भी जाना जाएगा. यूं तो भारत की अर्थव्यवस्था पहले से ही लड़खड़ा रही थी. लेकिन कोविड-19 के झटके ने बची-खुची कसर पूरी कर दी. अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक़ कोरोना के संकटकाल में अब तक भारत में बारह करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हो चुके हैं. लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि इस बीमारी के दौरान किसी को भूखा नहीं सोने देंगे. लेकिन अलग-अलग ख़बरों के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान देश भर में अभी तक भूख से सौ से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं. यदि राजमार्गों और रेलवे स्टेशनों पर समाज सेवक बड़े स्तर पर मोर्चा नहीं संभालते तो यह आंकड़ा और बढ़ सकता था. भूख के साथ लॉकडाउन के दौरान सदमे और हादसों की वजह से देश भर में सात सौ से ज़्यादा लोगों के मारे जाने की जानकारी है. इनमें से कई ऐसे भी थे जिनका दम तब टूटा जब वे सैंकड़ों-हजारों मील की यात्रा कर अपने घरों के बहुत पास पहुंच गए थे.
ग़ौरतलब है कि चीन सरकार ने बीते दिनों कोरोना वायरस के बारे में सबसे पहले आगाह करने वाले डॉक्टर ली वेनलियांग के परिवार से माफी मांगी थी. सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की अनुशासन मामलों की समिति ने माना कि डॉक्टर वेनलियांग के मामले में उससे गलती हुई जो समय रहते उनकी बात नहीं मानी. तानाशाही प्रवृत्ति वाली किसी सरकार का यह रुख़ विश्व को चौंकाने वाला था. अब देखने वाली बात होगी दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरने वाले भारत में उन सभी मौतों के लिए कब माफ़ी मांगी जाएगी जो शासन की अदूरदर्शिता और गलत प्रबंधन की वजह से हुईं. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन की शुरुआत में ही मन की बात कार्यक्रम के दौरान देशवासियों को होने वाली तकलीफ़ों के लिए माफ़ी मांग चुके हैं. लेकिन यह माफ़ी लोगों को होने वाली तकलीफ़ों के लिए थी, उनकी मौतों के लिए नहीं.
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