मई के आखिरी हफ्ते में अक्षय कुमार की फिल्म ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने की चर्चा जोरों पर थी. सोशल मीडिया पर अक्षय के कुछ प्रशंसक इस खबर से थोड़े निराश थे और उन्हें कुछ दिन और रुक जाने की नसीहत देते नज़र आ रहे थे. फिल्म के बारे में यह चर्चा भी रही कि एमेजॉन प्राइम ने ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ के प्रसारण अधिकार सवा सौ करोड़ रुपए में खरीद लिये हैं. लेकिन हाल ही में फिल्म क्रिटिक और ट्रेड एनालिस्ट कोमल नाहटा ने इन सारी खबरों को खारिज करते हुए बताया कि ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ फिलहाल किसी भी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर नहीं दिखाई देने वाली है क्योंकि इसके मेकर्स ने फिल्म की रिलीज के लिए थोड़े समय और इंतज़ार करने का फैसला किया है. लक्ष्मी बॉम्ब को एमेजॉन प्राइम को ऊंची कीमत पर बेचे जाने की खबरों पर नाहटा का कहना था कि डिज्नी फॉक्स इस फिल्म के निर्माताओं में से एक है जिसके पास अपना ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म हॉटस्टार (डिज्नी प्लस हॉटस्टार) है. ऐसे में एमेजॉन प्राइम पर इस फिल्म को रिलीज किए जाने का सवाल ही नहीं उठता है.

‘लक्ष्मी बॉम्ब’ ना सही लेकिन ‘गुलाबो सिताबो’ एमेजॉन प्राइम पर रिलीज हो चुकी है. यही नहीं, आने वाले दिनों में ‘शकुंतला देवी’ समेत तमिल, तेलुगु, कन्नड़ की कई बड़ी फिल्में जल्दी ही सीधे ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर रिलीज होने जा रही हैं. किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने जा रही देश की पहली मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म बनने वाली ‘गुलाबो सिताबो’ में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और इस दौर में हिट की गारंटी माने जाने वाले अभिनेता आयुष्मान खुराना हैं. वहीं, ह्यूमन कम्प्यूटर कही जाने वाली भारतीय गणितज्ञ और लेखक शकुंकला देवी की इसी नाम की बायोपिक में विद्या बालन ने मुख्य भूमिका निभाई हैं. यानी, ये फिल्में सैकड़ों करोड़ वाले भारी-भरकम बजट की न भी हों तो भी अपने विषय, प्रमुख अभिनेताओं और प्रोडक्शन हाउस से इस बात का अंदाज़ा तो दे ही देती हैं कि अगर ये सिनेमाघरों तक पहुंचतीं तो ठीक-ठाक बिजनेस कर सकती थीं.

लेकिन डिजिटल मंचों पर रिलीज होने वाली ये फिल्में अब कितनी कमाई कर सकती हैं, इसका लेखा-जोखा समझने से पहले यह जान लेते हैं कि असल में फिल्में अब तक कैसे बिजनेस करती रही हैं. यहां पर सबसे पहले जानने वाली बात यह है कि फिल्म बनाने का काम जहां प्रोड्यूसर करते हैं, वहीं उन्हें सिनेमाघरों तक पहुंचाने का काम वितरक (डिस्ट्रीब्यूटर) करते हैं. इसे इस तरह से भी कहा जा सकता है कि निर्माता कोई फिल्म बनाने के बाद उसे सिनेमाघरों में प्रसारित करने के अधिकार वितरक/वितरकों को बेच देता है. आगे वे ही फिल्म को एग्ज़ीबिटर्स यानी सिनेमा मालिकों तक पहुंचाते हैं जिनके जरिए वह दर्शकों तक पहुंचती है और फिर बॉक्स ऑफिस पर होने वाली कमाई के आंकड़े आने शुरू होते हैं.

बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की बात करें तो अक्सर यह मान लिया जाता है कि फिल्म ने जितना पैसा कमाया है, वह सारा का सारा निर्माता की जेब में वापस जाता है, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है. अगर किसी फिल्म ने 100 करोड़ का बिजनेस किया है तो कहा जाएगा फिल्म का ग्रॉस कलेक्शन 100 करोड़ था जिसमें फिल्म पर लगने वाला जीएसटी (मनोरंजन कर) भी शामिल होता है. मान लीजिए टैक्स की यह रकम 20 करोड़ है तो बचे हुए 80 करोड़ को फिल्म का नेट कलेक्शन कहा जाएगा. नेट कलेक्शन में लगभग आधा-आधा हिस्सा एग्ज़ीबिटर और डिस्ट्रीब्यूटर का होता है.

इसके आगे प्रोड्यूसर तक कितने पैसे पहुंचते हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसने डिस्ट्रीब्यूटर को किस तरह से फिल्म के अधिकार बेचे हैं. कई बार डिस्ट्रीब्यूटर अपना मेहनताना भर लेता है तो कई बार मुनाफे की रकम का बंटवारा किसी दूसरी तरह से किया जाता है. इस हिसाब से देखें तो लगभग 100 करोड़ रुपए कमाने वाली एक फिल्म से निर्माता को 20 से 30 करोड़ रुपए मिलने की ही संभावना होती है. ऐसे में कई बार बड़ी बजट की फिल्मों के मामले में, बॉक्स ऑफिस की कमाई से उनकी लागत तक नहीं निकल पाती है. इसकी भरपाई निर्माता फिल्म के सैटेलाइट अधिकार (टीवी), डिजिटल अधिकार और ओवरसीज राइट्स (विदेशों में प्रदर्शन के अधिकार) बेचकर करते हैं.

डिजिटल अधिकारों की बात करें तो कुछ प्लेटफॉर्म तीन से पांच सालों के लिए फिल्म के प्रसारण अधिकार खरीदते हैं और उसके लिए प्रोड्यूसर को एक निश्चित रकम का भुगतान करते हैं. वहीं कई बार यह व्यवस्था की जाती है कि एक निश्चित संख्या के व्यूज आने तक प्रोड्यूसर को रॉयल्टी दी जाएगी. यही वजह है कि बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरने वाली फिल्में भी किसी न किसी तरह अपनी लागत वसूल ही लेती हैं.

खबरों की मानें तो लगभग 30-35 करोड़ के बजट में बनी ‘गुलाबो सिताबो’ के प्रसारण अधिकार एमेजॉन प्राइम को लगभग 60 करोड़ रुपए में बेचे गए हैं. अगर मीडिया में बताई जा रही उसकी कीमत एकदम ठीक भी है तो भी यह उस रकम से काफी कम हो सकती है जो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर देश और विदेश में अच्छा बिजनेस करने के साथ-साथ इसके डिजिटल अधिकार बेचने पर हासिल कर सकती थी. जानकार कहते हैं कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स आम तौर पर डिजिटली रिलीज होने वाली फिल्मों की लागत से केवल 20 से 30 फीसदी तक अधिक भुगतान करते हैं. वे आशंका जताते हैं कि बिगड़ी हुई परिस्थितियों के चलते हो सकता है, सीधे ऑनलाइन फिल्में रिलीज करने वाले निर्माताओं को इससे भी कम मुनाफे पर राज़ी होना पड़े. यह सही है कि इसके बाद भी फिल्म निर्माता के पास फिल्म के सैटेलाइट अधिकार बेचकर कुछ पैसे और कमा लेने का रास्ता बचता है. लेकिन बहुत ज़ोर लगाने पर भी यह रकम डिजिटल अधिकारों की आधी या उससे कम ही हो सकेगी.

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो बीते तीन महीनों में फिल्म इंडस्ट्री को होने वाला नुकसान लगभग 1500 करोड़ रुपए का है. अंदाजा लगाया जा रहा है कि महज तीन महीने में हुए इस नुकसान की भरपाई करने और फिल्म उद्योग को सामान्य हालात में लाने में ही दो साल से भी ज्यादा का वक्त लग सकता है. लेकिन यह तो जब होगा तब होगा और अभी तो यही पता नहीं कि यह दौर कितना चलने वाला है. ऐसे में जिन निर्माताओं ने फिल्में बनाने के लिए कर्ज ले रखे थे और उनकी फिल्में तैयार होने के बावजूद रिलीज नहीं हो पा रहीं हैं, उन पर कर्ज और ब्याज लगातार बढ़ता जा रहा था. यह इकलौती वजह आने वाले समय में बड़े निर्माताओं को भी डिजिटली अपनी फिल्में रिलीज करने पर मजबूर कर सकती हैं. इससे हो सकता है कि वे अपना फायदा न कमा पाएं लेकिन बढ़ते हुए कर्जे से तो बचे रह सकेंगे. लेकिन उनके ऐसा करने से एग्ज़ीबिटर और डिस्ट्रीब्यूटर बड़े नुकसान में जा सकते हैं. इसकी वजह यह है कि हालात सुधरने के बाद अंडर प्रोडक्शन फिल्मों को बनने में वक्त लगेगा और जो तैयार हैं, उन्हें लोग पहले ही घर बैठे देख चुके होंगे. ऐसे में लंबे समय तक सिनेमा हॉल इसलिए भी खाली रह सकते हैं क्योंकि रिलीज करने के लिए उनके पास फिल्में ही नहीं होंंगी.

इसके अलावा, आने वाले समय में कोरोना वायरस से बचाव के लिए जरूरी सुरक्षा उपाय अपनाने की वजह से फिल्म की लागत बढ़ना भी तय ही माना जा रहा है. फिल्मों को बनाने के साथ-साथ दिखाते हुए बरती जाने वाली अतिरिक्त सावधानी भी फिल्म के बजट और रेवेन्यू पर असर डालेगी. उदाहरण के तौर पर हो सकता है कि आने वाले समय में सिनेमाघरों की बैठक व्यवस्था बदल दी जाए और एक समय पर आज की तुलना में आधे या एक तिहाई लोग ही फिल्म देख पाएं. अगर ऐसा हुआ तो इसका असर फिल्म की कमाई पर पड़ना तय है. अगर इसकी भरपाई टिकटों की कीमतें बढ़ाकर करने की कोशिश की गई तो सिनेमा हॉल में जाने वाले दर्शकों की संख्या कम हो सकती है. वैसे यह भी हो सकता है कि बदले हुए माहौल में दर्शक लंबे समय तक सिनेमाघर जाने से बचें और उन्हें फिर से वहां लाने के लिए टिकट की दरों को कम करना पड़ जाए.

इस मामले में एक और आशंका दर्शकों की आदतें बदल जाने को लेकर भी है. लगातार ऑनलाइन प्रीमियर के चलते हो सकता है कि दर्शकों को घर में फिल्में देखना पहले से ज्यादा रास आने लगे. हो सकता है कि एचडी या फोर-के तकनीक से लैस बड़े स्क्रीन के टीवी, डॉल्बी साउंड वाले स्पीकर्स और घर का कंफर्ट लोगों के लिए थिएटर जाना तकरीबन गैर जरूरी चीज़ बना दें. इन सभी चीजों का असर फिल्म के व्यवसाय पर सीधा या परोक्ष रूप से पड़ने ही वाला है. रही-सही कसर इस त्रासदी के बाद, आने वाली मंदी और उससे पैदा हुई पैसों की तंगी पूरा कर सकती है.

हालांकि इस सबके बावजूद फिल्म व्यवसाय से जुड़े लोगों ने उम्मीद छोड़ी नहीं है. ‘गुलाबो सिताबो’ के निर्माताओं में से एक शील कुमार अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘जब सैटेलाइट या वीसीआर आए थे तो लोगों को लगा था कि सिनेमा खत्म हो जाएगा. मल्टी स्क्रीन्स के आने पर भी ऐसा ही कहा गया. हो सकता है कि लोगों की आदतें थोड़ी बदल जाएं लेकिन मुझे लगता है कि आने वाले वक्त में डिजिटल प्लेटफॉर्म और सिनेमाघर दोनों ही को-एग्ज़िस्ट करेंगे.’

लेकिन, यह जिक्र करते हुए शील यह भूल जाते हैं कि वे बदलाव तकनीक के आगे बढ़ने से आए थे और फिलहाल जो हालात हैं, वे सदियों में एक बार होने वाली त्रासदी के चलते अचानक ही बदले हैं.