कोरोना के प्रकोप से भयभीत यूरोप के लगभग हर देश ने, मार्च का अंत आते-आते, अपनी कारोबारी और शैक्षिक, यातायात और पर्यटन गतिविधियां रोक दीं या बहुत सीमित कर दीं. केवल एक देश ऐसा था, जो यहां सबसे अलग चल रहा था - स्वीडन. वहां तालाबंदी नहीं हुई. संक्रमण से बचाव के आम नियमों के पालन के अलावा यहां कोई विशेष रोक-टोक नहीं थी. यूरोप की सभी सरकारें इसे विस्मय के साथ देख रही थीं और उनकी जनता ईर्ष्या के साथ. लोग कहा करते थे कि काश! हमारे यहां भी ऐसा ही होता! किंतु जिन्हें पहले ईर्ष्या हो रही थी, वे अब शायद सोच रहे होंगे कि अच्छा ही हुआ कि उनकी सरकारें स्वीडन की राह पर नहीं चलीं.
स्वीडन में कोरोना का संक्रमण राजधानी स्टॉकहोम में रहने वाले विदेशी प्रवासियों के द्वारा फैला था. 10 जून 2020 तक देश भर में कुल सवा तीन लाख लोगों के टेस्ट हुए थे. इनमें से 46,814 लोगों में संक्रमण की पुष्टि हुई और इससे 4,795 लोगों की मृत्यु हुई. कोविड-19 का ग्राफ़ जून का महीना शुरू होने के साथ नये संक्रमणों में और भी तेज़ी होते दिखा रहा है. आठ प्रतिशत से भी अधिक की मृत्यु दर स्वीडन जैसे एक उच्चविकसित, लोक-कल्याणकारी और उत्तम स्वास्थ्य व्यवस्था वाले देश के लिए नितांत अशोभनीय है. तुलना के लिए मात्र एक करोड़ की जनसंख्या वाले स्वीडन के बदले उससे 134 गुना अधिक जनसंख्या वाले भारत में यही मृत्यु दर तीन प्रतिशत से भी कम है. जबकि भारत स्वीडन जैसा कोई उच्चविकसित या उत्तम स्वास्थ्य व्यवस्था वाला देश नहीं है.
आशा बनी निराशा
स्वीडन की सरकार आशा कर रही थी कि तालाबंदी नहीं होने से वहां की अर्थव्यवस्था को आंच नहीं पहुंचेगी. यह आशा भी अब निराशा बनने जा रही है. वहां के आर्थिक शोध संस्थान ‘नीयर’ (एनआइईआर) का आकलन है कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) इस वर्ष सात प्रतिशत तक लुढ़क जायेगा और बेरोज़गारी भी 10 प्रतिशत बढ़ जायेगी. संस्थान ने इसके दो मुख्य कारण बताये. पहला यह कि स्वीडन निर्यात पर निर्भर देश होने से अपने माल-सामान के आयातक देशों में होने वाली घटनाओं से तुरंत प्रभावित होता है. आयातक देशों की मुख्य चिंता इस समय कारोना का कहर है. दूसरा बड़ा कारण है स्वीडन के परिवारों का बुरी तरह कर्ज से दबा होना. ऐसे में वे इस संकट के समय उपभोग या निवेश के लिए बहुत संकोच के साथ ही ख़र्च करेंगे. यहां 18 से 25 वर्ष तक के युवाओं के बीच बेरोज़गारी का स्तर 11 प्रतिशत से भी अधिक है. ऐसे में उनके हाथ सबसे अधिक बंधे होंगे.
स्वीडन में किसी वर्ष के आरंभिक चार महीनों में औसतन जितनी मौतें होतीं हैं, कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण उससे 30 प्रतिशत अधिक मौतें हुई हैं. अपनी एक करोड़ की जनसंख्या के साथ स्वीडन ही उत्तरी यूरोप के स्कैंडिनेवियाई देशों (डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे) में सबसे बड़ा देश है. स्वीडन की आधी जनसंख्या के बराबर वाले उसके दक्षिणी सीमांत पड़ोसी डेनमार्क में, 10 जून 2020 तक, कोरोना के 12,216 मामलों की पुष्टि हुई थी और वहां इससे अब तक केवल 593 मौतें ही हुई हैं. उसके उत्तर-पश्चिमी सीमांत पड़ोसी नॉर्वे में ये आंकड़े क्रमशः 8,576 और 293 हैं.
नॉर्वे और डेनमार्क स्वीडन के पर्यटक नहीं चाहते
नॉर्वे की जनसंख्या भी डेनमार्क जितनी ही, यानी स्वीडन की जनसंख्या के आधे के बराबर है. इन दोनों देशों ने अपने यहां तालाबंदी लगायी थी. किंतु उसे अब इस सीमा तक खोल चुके हैं कि 15 जून से अन्य देशों के पर्यटक भी वहां घूमने-फिरने आ सकते हैं. किंतु, दोनों देश स्वीडन के पर्यटक अपने यहां नहीं चाहते. ऐसा पहली बार हो रहा है कि स्वीडन के सीमांत पड़ोसी यह नहीं चाहते कि स्वीडिश नागरिक उनके यहां आयें. उन्हें डर है कि स्वीडन के लोग आयेंगे तो अपने साथ कोरोना वायरस भी लायेंगे. इससे उनके अब तक के सारे किये-धरे पर पानी फिर जायेगा. इसलिए स्वीडन के साथ वाली उनकी सीमाएं या तो बंद रहेंगी या वहां कड़ी जांच होगी. इस कारण कार या ट्रेन द्वारा इन देशों से होकर स्वीडन पहुंचने के इच्छुक या स्वीडन से होकर इन देशों में जाने की इच्छा रखने वाले दूसरे देशों के लोग फिलहाल ऐसा नहीं कर पायेंगे.
स्वीडन की विदेशमंत्री अन लिंदे ने नॉर्वे और डेनमार्क के निर्णय के प्रति नाराज़गी प्रकट करते हुए कहा कि नॉर्डिक देशों (डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड और आइसलैंड) के बीच की सीमाएं खोलने की प्रक्रिया से स्वीडन को बाहर रखना एक राजनैतिक निर्णय है, जिसका स्वास्थ्य संबंधी कोई औचित्य नहीं है. स्वीडन के टेलीविज़न पर अपनी प्रतिक्रिया जताते हुए श्रीमती लिंदे ने यह भी कहा कि स्वीडन तो यही आशा कर रहा था सभी नॉर्डिक देश मिल कर कोई साझा रास्ता निकालेंगे, पर फिलहाल यह असंभव लग रहा है.
स्वीडन के बहिष्कार के समान
कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वीडन की जनता ही नहीं, सरकार भी अपने पड़ोसियों के निर्णय को अपने बहिष्कार के समान देख रही है. स्कैंडिनेवियाई देशों के बीच लंबी एकता और भाईचारे में इससे दरार पड़ने का डर है. स्वीडन की सरकार ने जब अपने यहां तालाबंदी नहीं करने का निर्णय किया, तब उसने यह सब कतई नहीं सोचा रहा होगा. कोरोना के विश्वव्यापी आकस्मिक हमले ने वास्तव में पूरी दुनिया की सरकारों को हक्का-बक्का कर दिया. इसने उन्हें ऐसे-ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया, जिनके दूरगामी परिणाम सोच पाना बहुत ही कठिन था. जिन्होंने तालाबंदी की, वे भी परेशान हैं और जिन्होंने नहीं की, वे भी. दोनों निर्णय ‘आगे कुंआं, पीछे खाई’ के बीच चुनाव के समान थे.
स्वीडन की सरकार ने पू्र्ण तालाबंदी नहीं करने का अपना निर्णय देश के जाने-माने महामारी विशेषज्ञ अंदेर्स तेग्नेल की सलाह पर लिया था. स्वीडिश रेडियो के साथ अपने एक इंटरव्यू में इन्हीं दिनों उन्होंने स्वीकार किया कि उनसे भूल हुई है. उन्होंने कहा, ‘’स्पष्ट है कि हमने स्वीडन में जो कुछ किया है, उसमें निश्चित रूप से सुधार की गुंजाइश है. यदि हमें ठीक-ठीक पता रहा होता कि संक्रमण के फैलने को बेहतर ढंग से कैसे रोका जा सकता है, तो ऐसा नहीं हुआ होता.’’ तेग्नेल ने दुख प्रकट किया कि इस निर्णय के कारण ‘’बहुत अधिक स्वीडिश नागरिकों की बहुत जल्दी मृत्यु हो गयी.’’ सबसे अधिक मौतें स्वीडन के वृद्धावस्था आश्रमों में रहने वालों के बीच हुयीं.
भविष्य में बीच का रास्ता
स्वीडन की सरकार के परामर्शदाता अंदेर्स तेग्नेल का इस रेडियो इंटरव्यू में कहना था कि इस महामारी का यदि हमें फिर से सामना करना पड़े, तो आज की जानकारी के आधार पर हम स्वीडन और शेष दुनिया द्वारा अपनाये गये रास्ते के बीच वाला रास्ता चुनेंगे. स्वीडन में स्कूल, रेस्त्रां या दुकानों वगैरह को कभी बंद नहीं किया गया. 50 की संख्या तक लोग कही भी एकत्रित हो सकते हैं. वहां आने पर रोक केवल उन्हीं विदेशियों के लिए है, जो यूरोपीय संघ के बाहर के किसी देश के होंगे.
शुरू-शुरू में लोगों को यह उदारता बहुत अच्छी लग रही थी. लेकिन नये संक्रमितों और मृतकों की संख्या अन्य देशों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ती देख कर लोगों के हाथ-पैर फूलने लगे. सरकार की आलोचना होने लगी. किंतु सरकार अपने निर्णय पर अब भी अटल है. वह अब भी कोई कठोरता नहीं दिखाना चाहती. सरकार की इस समय सबसे बड़ी चिंता यही है कि वह स्वीडन वालों के लिए बंद नॉर्वे और डेनमार्क की सीमाओं को कैसे खुलवाये. उत्तरी यूरोप के स्कैंडिनेवियाई देशों के बीच की मधुर एकता में पड़ती उस खटास को कैसे टाले, जो नॉर्वे और डेनमार्क के निर्णयों के कारण 15 जून से देखने में आयेगी.
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