निर्देशक - शूजीत सरकार
लेखक - जूही चतुर्वेदी
कलाकार - अमिताभ बच्चन, आयुष्मान खुराना, विजय राज, बृजेंद्र काला
रेटिंग - 3.5/5
ओटीटी प्लेटफॉर्म - एमज़ॉन प्राइम

‘गुलाबो खूब लड़यं, सिताबो खूब लड़यं... हलवा खा के लड़यं, बरफी खा के लड़यं.’ इन लाइनों को दोहराते हुए ‘गुलाबो सिताबो’ सड़क किनारे चल रहा कठपुतलियों का एक छोटा सा मजमा दिखाती है. यह नज़ारा लखनऊ शहर की गलियों के लिए आम बात मानी जा सकती है लेकिन यहां पर जो खास और दिलचस्प है, वह इसमें दिखाया जाने वाला किस्सा है. इस रोड-ब्रांड-कठपुतली शो में सिताबो एक हाउसवाइफ है जो घर के काम करते-करते थक और पक चुकी है, वहीं गुलाबो उसके पति की आरामतलब प्रेमिका है और घर में इनकी कभी न खत्म होने वाली लड़ाई दिन-रात चलती रहती है. इसी किस्से को नई तरह से दोहराते हुए ‘गुलाबो सिताबो’ एक बूढ़े मकान मालिक को सिताबो और अड़ियल किराएदार को गुलाबो बनाती है और उनकी छिछली लेकिन चटपटी लड़ाइयों से अपना सिने संसार रचती है.

शूजीत सरकार के निर्देशन में बनी ‘गुलाबो सिताबो’ की पटकथा जूही चतुर्वेदी ने लिखी है. जूही को साधारण कहानियों में असाधारण बारीकियां पिरोने में महारत हासिल है. इसीलिए जब वे अपने होमटाउन का किस्सा लिखती हैं तो किस्से-कहानियों में नज़र आने वाले नवाबी-कबाबी लखनऊ से काफी दूर शहर के उस हिस्से से मिलवाती हैं, जहां रोशनी और सैलानी, दोनों ही ज़रा कम पहुंचते हैं. सबसे अच्छी बात यह है लखनऊ की सारी बारीकियों से लबरेज होने के बावजूद हिंदुस्तान के किसी भी कोने में बैठा दर्शक खुद को इससे जुड़ा हुआ महसूस कर सकता है.

‘गुलाबो सिताबो’ की सबसे दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में हवेली इसका तीसरा मुख्य किरदार बन गया है और इसके इश्क में फिल्म के बाकी दो मुख्य किरदार लड़ते रहते हैं. पिछले दिनों अपने एक इंटरव्यू में जूही चतुर्वेदी ने बताया था कि लखनऊ में उनके पुश्तैनी घर ‘चंपा कुंज’ में उनका बचपन बीता था, इसीलिए ‘पीकू’ में उन्होने भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) के घर को यही नाम दिया था. जूही कहती हैं कि ‘अक्सर पुश्तैनी घर सिर्फ इसलिए बेच दिए जाते हैं क्योंकि उनकी देख-रेख करने वाला कोई नहीं होता है. हमारा घर भी इसीलिए बिका. मैं अपनी कहानियों में घर को बचा लेती हूं. ताकि कहीं तो यह दर्ज रहे कि चंपा कुंज नहीं बिका.’ अपने घर से, भले ही वह किराए का हो, यह प्रेम ही ‘गुलाबो सिताबो’ की मुख्य सामग्री है और शायद लेखिका के निजी अनुभव के चलते ही इसे वह भावनात्मक गहराई मिल पाई है जो इसे देखने लायक बना देती है.

अभिनय पर आएं तो मकान मालिक मिर्ज़ा की भूमिका में अमिताभ बच्चन झुकी कमर और मोटी-सी नकली नाक के साथ इसमें ज़रा भी पहचान में नहीं आते. बाकी, अवधी तो उनके मुंह से मक्खन की तरह निकलती ही है. टुच्चे, थोड़े लालची भी, लेकिन साफ दिल मिर्ज़ा को बच्चन साहब इस तरह जीते हैं कि कभी उससे कोफ्त होती है तो कभी सहानुभूति होने लगती है और यह जिज्ञासा भी कि क्या कभी किसी को उस पर प्यार भी आया होगा. यहां पर उनके अभिनय के बारे में बस यही कहा जा सकता है कि फिल्म के खत्म होने के बाद भी उन्हें और देखने की इच्छा बची रह जाती है. वहीं, किराएदार बांके की भूमिका में आयुष्मान खुराना भी अपनी निकली हुई तोंद और उसी दर से बढ़ रहे तनाव के साथ भरोसेमंद अभिनय करते हैं. हालांकि कई बार जल्दबाज़ी में संवाद बोलते हुए उनके भीतर का दिल्ली वाला बाहर निकलता दिखता है लेकिन उनके एक्सप्रेशन और देहबोली इस खोट से हमारा ध्यान हटाने में सफल हो जाती है.

बाकी किरदारों की बात करें मिर्जा की बीवी फातिमा बेगम उर्फ फत्तो का किरदार निभा रहीं फ़र्रुख़ जाफ़र जितनी बार परदे पर आती हैं, हंसी का फव्वारा लेकर आती है. यह बात पूरी मजबूती के साथ कही जा सकती है कि ‘पीपली लाइव’ की दादी की तरह उनका यह किरदार भी लोगों को याद रह जाने वाला है. उनके अलावा विजय राज़ और बृजेंद्र काला भी ज़रूरी भूमिकाएं निभाते हैं लेकिन नया कहा जा सके, ऐसा कुछ नहीं करते हैं. इंटरनेट एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का जाना-पहचाना चेहरा बन चुकीं सृष्टि श्रीवास्तव भी फिल्म का हिस्सा हैं और अपने काम से ध्यान खींचती हैं.

कहानी और अभिनय के अलावा, अविक मुखोपाध्याय की सिनेमैटोग्राफी भी ‘गुलाबो सिताबो’ को नायाब बनाती है. कहना चाहिए कि हवेली को फिल्म का तीसरा किरदार बना देने में जितना योगदान जूही चतुर्वेदी की लिखाई का है, उतना ही मुखोपाध्याय के कैमरे का भी है. उनका कैमरा हवेली को कुछ इस तरह दिखाता है कि उसके कल का भी अंदाजा लगता है और आज का भी. फिल्म में कई शॉट ऐसे है जिनमें इसके पुरानेपन और सीलन को देखकर इमारत का अकेलापन महसूस होने लगता है.

कुल मिलाकर, मुखोपाध्याय समेत जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार की यह टीम धीमी गति का सिनेमा रचने की विशेषज्ञ कही जा सकती है. ‘अक्टूबर’ और ‘पीकू’ की तरह ही ‘गुलाबो सिताबो’ भी सुंदर और संवेदनाओं से भरा एक ऐसा ज़रूरी सिनेमा है. ऐसा जिसके न होने की शिकायत जाने कब से सिनेप्रेमी बॉलीवुड से करते आ रहे थे. ऐसा अद्भुत सिनेमा जो जिंदगी के एक छोटे से हिस्से को उसकी खूबियों-खामियों के साथ इतनी ईमानदारी से दिखाता है कि यह जिज्ञासा बनी रहती है कि इससे पहले या बाद में क्या हुआ होगा?

चलते-चलते: ‘गुलाबो सिताबो’ पहली मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म है जो सिनेमाघरों की बजाय सीधे किसी डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई है. ऐसा होना न सिर्फ सिनेमा के व्यवसाय और दर्शकों के फिल्म देखने के अनुभव को बदलने वाला है बल्कि फिल्म समीक्षाओं और समीक्षा के मानकों को भी बदलने वाला साबित हो सकता है. ऐसा इसलिए कि अब फिल्में ज्यादातर समीक्षकों और दर्शकों के लिए एक साथ, एक ही समय पर उपलब्ध होंगी. टिकट पर पैसे खर्च नहीं होंगे तो फिल्मों के पैसा वसूल होने की शर्त भी ज़रूरी नहीं रह जाएगी, ऐसे में आने वाले वक्त में फिल्म समीक्षाएं कैसे बदलने वाली हैं, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए. लेकिन ये सब फिर कभी.

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