राज्यसभा चुनाव के बाद मध्य प्रदेश में एक नई राजनीतिक बिसात बिछना शुरु हो गई है. 24 सीटों के लिए होने वाले विधानसभा उपचुनाव की. इनमें से 22 सीटें उन पूर्व विधायकों की हैं जिन्होंने बीती दस मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया था. वहीं, दो अन्य सीटें जौरा (मुरैना) और आगर यहां के विधायकों के निधन की वजह से खाली हैं. हालांकि अभी तक इन उपचुनावों की तारीख़ की घोषणा नहीं हुई है. लेकिन माना जा रहा है कि ये उपचुनाव जल्द ही करवाए जा सकते हैं. दरअसल किसी भी विधानसभा सीट को छह महीने से ज्यादा समय के लिए लिए खाली नहीं रखा जा सकता है और जोरा सीट पिछली साल के दिसंबर माह से ही रिक्त है. लिहाजा इस सीट के लिए जल्द ही चुनाव करवाना आवश्यक है. लेकिन इन चुनावों की तारीख़ कोरोना वायरस और उसके ख़तरे को ध्यान में रखते हुए ही तय की जाएगी.

जानकारों का मानना है कि कोरोना महामारी के बाद बहुत कुछ पहले जैसा नहीं रहने वाला है! शायद राजनीति भी नहीं. यह बात देश और दुनिया के लिए ही नहीं बल्कि हमारे राज्यों के लिए भी कही जा सकती है. फ़िर मध्य प्रदेश की राजनीति का तो कोरोना से ऐसा जुड़ाव हो चुका है जिसे भूलने में समय लगेगा. मार्च का दूसरा सप्ताह था जब कोविड-19 महामारी दुनिया भर की तरह भारत में भी पैर पसार चुकी थी. इस महामारी की रोकथाम के लिए तब तक भारत में ज्यादा कुछ नहीं किया गया था. लेकिन मध्य प्रदेश इस मामले में देश से एक क़दम और आगे चला गया.

कोरोना वायरस जैसे वैश्विक संकट के दौरान मध्य प्रदेश में सरकार बनाने और गिराने का जो खेल चला वह हताश और नाराज़ करने वाला था. करीब दो हफ़्ते तक चले इस प्रकरण के दौरान सोशल डिस्टेसिंग को धता बताते हुए भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने विधायकों की घेराबंदी में जुटी रहीं. यह वह समय था जब कोविड-19 से उचित ढंग से निपटने के लिए राज्य में एक स्थिर सरकार की ज़रूरत थी. लेकिन इसके उलट भारतीय जनता पार्टी सूबे में कांग्रेस सरकार को गिराने और मुख्यमंत्री कमल नाथ उसे बचाने में व्यस्त रहे. फ़िर जो हुआ वह इतिहास है.

24 मार्च को मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने विश्वासमत साबित कर लिया. ग़ौरतलब है कि इसी दिन शाम को आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान किया था. लेकिन मध्य प्रदेश भाजपा के सैंकड़ों कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की अपील को दरकिनार करते हुए जीत का जश्न मनाने के लिए एकत्रित हो गए. इन कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ महामारी फैलाने में बरती गई लापरवाही से जुड़ी आईपीसी की धारा 269 के तहत कार्रवाई करने की मांग उठी जिसे ज़ाहिर है कि अनसुना कर दिया गया.

मध्य प्रदेश में जो राजनीतिक खींचतान चली उसका ख़ामियाज़ा आम जनता को उठाना पड़ा. सूबे में भाजपा की सरकार बनने के महीने भर बाद तक यहां मंत्रिमंडल का गठन नहीं किया जा सका था. लिहाज़ा कोरोना वायरस के सबसे संवेदनशील दौर में सभी मंत्रालयों का दारोमदार एक तरह से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ही कंधों पर था. विश्लेषक बताते हैं कि मध्य प्रदेश में ऐन ज़रूरत के वक़्त कोई स्वास्थ्य मंत्री न होने की वजह से स्वास्थ्य व्यवस्थाएं लड़खड़ाती चली गईं. आंकड़ों की तरफ़ देखें तो शुरुआत से ही मध्य प्रदेश कोरोना से हुई मौतों के मामले में देश के शीर्ष राज्यों में शामिल रहा है.

यही नहीं, मध्य प्रदेश में मंत्रिमंडल का गठन होने के बाद भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपना पूरा ध्यान कोरोना पर केंद्रित नहीं रखा. उन्होंने मंत्रियों के एक समूह को कमलनाथ सरकार द्वारा आख़िरी छह महीनों में लिए गए निर्णयों की समीक्षा करने के लिए लगा दिया. हालांकि इस पर शिवराज सिंह सरकार की दलील थी कि उसने ऐसा पुरानी सरकार की नीतियों को समझने के लिए किया ताकि कोरोना वायरस से आगे की लड़ाई और बेहतर ढंग से लड़ी जा सके.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते शिवराज सिंह चौहान | पीटीआई

लेकिन सिर्फ़ कोरोना वायरस या कोविड-19 महामारी ही वह एक मात्र चीज़ नहीं है जो इन उपचुनावों और इनके ज़रिए मध्य प्रदेश की राजनाति और यहां के कई दिग्गज नेताओं के भविष्य को प्रभावित कर सकती है. पर इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले मध्य प्रदेश की विधानसभा का गणित समझ लेते हैं. 230 सदस्यों की क्षमता वाले इस सदन में वर्तमान में 206 सदस्य हैं. इनमें से 107 सदस्य भाजपा और 92 सदस्य कांग्रेस के हैं. इनके अलावा चार विधायक निर्दलीय, एक समाजवादी पार्टी और तीन विधायक बहुजन समाज पार्टी से आते हैं. उपचुनाव के बाद बहुमत साबित करने के लिए किसी भी दल के पास 116 विधायकों का समर्थन हासिल करना आवश्यक होगा. यह भाजपा के मौजूदा विधायकों से सिर्फ़ नौ और कांग्रेस के विधायकों से 24 ही ज़्यादा है.

इस हिसाब से देखें तो आगामी उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना अपेक्षाकृत आसान माना जा रहा है. लेकिन जानकारों की मानें तो स्थिति ऐसी भी नहीं कि भाजपा पूरी तरह निश्चिंत होकर बैठ सके. इसके पीछे कोरोना वायरस से उपजे हालात के आलावा भी कई कारण माने जा रहे हैं.

मध्य प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक शिव अनुराग पटेरिया इस बारे में हमें बताते हैं कि ‘बीते विधानसभा चुनाव में इन 24 में से 23 सीटें कांग्रेस के पास थीं. यह दिखाता है कि इन इलाकों के वोटरों का झुकाव विधानसभा चुनाव में किस पार्टी की तरफ़ था. वहीं अगर सिर्फ़ ज्योतिरादित्य सिंधिया की बात करें तो वे पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी पारंपरिक सीट पर ही बड़ी हार का सामना कर चुके हैं. हालांकि उसके कई कारण थे. फ़िर मालवा-चंबल क्षेत्र में बग़ावत को तो सम्मान मिल जाता है, लेकिन धोखेबाजी के प्रति यहां के लोगों में स्वभाविक नाराज़गी का भाव रहता है. ऐसे में कांग्रेस लोगोें के जेहन में यह स्थापित करने में जी-जान से जुटी हुई है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी के साथ विश्वासघात किया है.’

ग़ौरतलब है कि बीते कुछ दिनों से मध्य प्रदेश में सोशल मीडिया पर ऐसे मैसेज जमकर वायरल हो रहे हैं जिनमें दावा किया जा रहा है कि 1857 की क्रांति में सिंधिया राजघराने की दग़ाबाज़ी की वजह से ही रानी लक्ष्मीबाई को शिकस्त का सामना करना पड़ा था.

पटेरिया आगे जोड़ते हैं, ‘पूर्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया के जनसंघ से जुड़ाव की वजह से भारतीय जनता पार्टी के आम कार्यकर्ता को तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक (पूर्व) विधायकों का प्रचार करने में कोई परेशानी नहीं होती दिख रही है. लेकिन संबंधित विधानसभा क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले भाजपा के बड़े नेताओं के लिए इसने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी है. उन्हें लग रहा है कि वे अपने क्षेत्र में उन नेताओं का प्रचार कैसे करें जिनकी वजह से उन्हें पिछले चुनाव में शिकस्त का मुंह देखना पड़ा था. फ़िर उन्हें अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर भी कुछ स्वभाविक आशंकाएं घेर रही होंगी. अगर कांग्रेस से आए नेताओं ने इस बार भी उनके क्षेत्र में जीत हासिल कर ली तो भविष्य में इन सीटों पर उनकी (भाजपा नेताओं की) दावेदारी कितनी मजबूत रह पाएगी, कह पाना मुश्किल है.’

जानकार बताते हैं कि कांग्रेस की नज़र उन 22 भाजपा नेताओं पर है जो 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर सिंधिया समर्थक पूर्व विधायकों से चुनाव हार गए थे. इनमें से ग्वालियर सीट से आने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता जयभान सिंह पवैया का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है. वे 2018 में कांग्रेस प्रत्याशी प्रद्युम्न सिंह तोमर से हार गए थे. अगर कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ तो तोमर एक बार फ़िर इसी सीट पर दांव आजमाएंगे और पवैया को इस चुनाव में हिस्सा लेने का मौका नहीं मिलेगा. इस पर सूत्रों का मानना है कि आरएसएस से लंबा जुड़ाव रहने की वजह से पवैया खुलकर तो भाजपा का विरोध शायद ही करें. लेकिन वे अंदरखाने किसी भी तरह की उठापटक से इन्कार नहीं करते.

इस फेहरिश्त में दूसरा बड़ा नाम सांची विधानसभा क्षेत्र (रायसेन) से आने वाले मुदित शेजवार का है. वे भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री गौरीशंकर शेजवार के बेटे हैं. सांची गौरीशंकर शेजवार की परंपरागत सीट रही है. 2018 के चुनाव में उन्होंने मुदित को पार्टी का टिकट दिलवाया था. वहीं दूसरी तरफ़ कांग्रेस की तरफ़ से डॉ प्रभुराम चौधरी मैदान में थे और जीत हासिल करने में सफल रहे. अब चौधरी का भाजपा के टिकट पर सांची में ताल ठोकना लगभग तय है. सूत्र बताते हैं कि मुदित शेजवार इतनी आसानी से डॉ चौधरी के लिए रास्ता छोड़ने वाले नहीं हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे और पूर्व मंत्री दीपक जोशी की हाटपिपल्या सीट (देवास) की भी है. उन्हें 2018 में कांग्रेस के प्रत्याशी मनोज चौधरी के हाथों हार का स्वाद चखना पड़ा था. अब चौधरी के भाजपा टिकट पर हाटपिपल्या से चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है.

अपना इस्तीफा देने से पहले प्रेस को संबोधित करते मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ | पीटीआई

हालांकि भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता रजनीश अग्रवाल संगठन में किसी भी तरह की अंदरूनी नाराज़गी से इन्कार करते हैं. सत्याग्रह से हुई बातचीत में वे कहते हैं, ‘ये सिर्फ़ कांग्रेस द्वारा फैलाया जा रहा प्रोपेगेंडा है क्योंकि इसके अलावा उसके पास अब कुछ और बचा नहीं है. सरकार बनाने के लिए उसे ये सभी 24 सीटें जीतनी पड़ेंगी जो किसी भी हाल में मुमकिन नहीं है.’ रजनीश अग्रवाल के शब्दों में, ‘सिंधिया जी और उनके साथी बड़ा त्याग कर के आए हैं. भाजपा उन्हें यथोचित सम्मान देने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी. ये उपचुनाव राजनीतिक पंडितों के लिए अध्ययन और शोध का विषय साबित होगा कि भारतीय जनता पार्टी कितनी अनुशासित और संगठनात्मक तौर पर कितनी मजबूत है. हम मिलकर चुनाव लडेंगे और जीतेंगे.’

इसके जवाब में कांग्रेस के पास अपने तर्क हैं. पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता अब्बास हाफिज खान सत्याग्रह को बताते हैं, ‘ये 23 सीटें हमने इसलिए जीतीं क्योंकि लोग भाजपा से आजिज आ चुके थे. हमने पंद्रह महीने में जनहित से जुड़े कई काम किए हैं. चाहे बिजली बिलों में राहत हो या किसानों को ऋण की माफ़ी, हमारी हर कोशिश को लोगों ने जमकर सराहा. जिन लोगों ने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को गिराने का काम किया है. हमारे मतदाता उन्हें कभी सत्ता की चाबी नहीं सौपेंगे. इन चुनावों में भाजपा की आपसी फूट भी जगजाहिर हो जाएगी.’ प्रत्याशियों के चयन से जुड़े सवाल पर खान कहते है, ‘पार्टी इसके लिए अलग-अलग स्तर पर सर्वे करवा रही है. जनता जिस किसी नेता को आगे बढ़ाना चाहेगी, संगठन उसी को अपना प्रत्याशी बनाएगा.’

शिव अनुराग पटेरिया इस चुनाव से जुड़े एक और महत्वपूर्ण पहलू की तरफ़ हमारा ध्यान ले जाते हुए कहते हैं, ‘इन 24 सीटों में से नौ सीटें तो अनुसूचित जाति के लिए रिज़र्व ही हैं. इनके अलावा इनमें से प्रत्येक सीट पर दलितों के दस से चालीस हज़ार तक वोट हैं. आम तौर पर इस वोट बैंक का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ रहता है. लेकिन इस उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सभी 24 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने जा रही है. इससे कांग्रेस को थोड़ा-बहुत नुकसान तो होगा ही. लेकिन साथ ही एक संभावना ये भी बनती है कि कहीं उपचुनाव के बाद बसपा मध्य प्रदेश में किंगमेकर की भूमिका में न आ जाए.’

एक नज़र बसपा के हालिया राजनीतिक झुकाव पर डालें तो 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उत्तरप्रदेश में भाजपा के ख़िलाफ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया था. और इन दोनों दलों ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ उसकी पारंपरिक सीट रायबरेली और अमेठी पर कोई प्रत्याशी नहीं उतारा था. लेकिन उसके बाद से स्थिति काफी बदली नज़र आ रही है.

उत्तरप्रदेश में ब्राह्मण और दलितों के गठजोड़ वाला वोटबैंक मायावती की राजनीति का प्रमुख आधार माना जाता है. लेकिन अब प्रियंका गांधी इसी वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश में जुटी हैं. ज़ाहिर तौर पर मायावती को गांधी की यह कवायद कुछ खास नहीं सुहा रही. इसके अलावा मायावती राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा बसपा के छहों विधायकों को कांग्रेस में खींच लेने की वजह से भी आक्रोशित बताई जाती हैं. इसके बाद से मायावती कांग्रेस और गांधी परिवार पर हमलावर होने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती हैं. वहीं, कांग्रेस बसपा को भारतीय जनता पार्टी की बी टीम साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है.

अब यदि मध्यप्रदेश के संदर्भ में बात करें तो हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव में भिंड से बसपा विधायक संजीव कुशवाह ने भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया. दूसरी तरफ़ ग्वालियर-चंबल इलाके में बसपा के दो बड़े नेता नेता प्रागी लाल जाटव और सत्य प्रकाशी सहित दस से ज्यादा नेताओं ने बीते दिनों मायावती का साथ छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया है. इनसे पहले बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप अहिरवार, पूर्व विधायक सत्यप्रकाश और पूर्व सांसद देवराज सिंह पटेल भी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं.

मध्यप्रदेश के एक अन्य वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक अमन नम्र इन उपचुनावों से जुड़ी चर्चा को अलग दिशा में आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘यह सही है कि मध्य प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से शुरुआत में कोरोना महमारी बड़ा मुद्दा बनकर उभरी थी. इस बात का कांग्रेस को फायदा होता भी दिख रहा था. लेकिन संयोग से जिन विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होना है, वहां कोरोना का इतना ज्यादा प्रभाव नज़र नहीं आ रहा है. बल्कि, बीते कुछ दिनों पर नज़र डालें तो अब हालात थोड़े-बहुत काबू में आते दिख रहे हैं. इसके अलावा शिवराज सरकार एक जुलाई से दस हजार टीमों की मदद से राज्य में कोरोना को लेकर एक बहुत बड़ा सर्वे शुरु करने वाली है. यह शायद अपनी तरह की देश भर की इकलौती मुहीम होगी. इस तरह भाजपा चुनाव आते-आते शायद इस डैमेज की भरपाई कर सकती है.’

‘लेकिन कोरोना से जुड़ी एक अन्य चुनौती है जो भारतीय जनता पार्टी के लिए उपचुनाव में परेशानी खड़ी कर सकती है. वो है दूसरे राज्यों से अपने घर लौटे लाखों प्रवासियों को रोजगार के साधन उपलब्ध करवाने की. यूं तो सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के लिए मनरेगा के तहत रोजगार उपलब्ध करवाने की कोशिश की है. लेकिन परेशानी ये है कि बाहर से लौट कर आए सभी लोग मज़दूर नहीं हैं. और अन्य वर्गों के लिए रोजी-रोटी के साधन मुहैया करवाना इतना आसान काम नहीं है. अब ये कांग्रेस पर है कि वो इस मुद्दे को कितनी मजबूती के साथा उठा पाती है’ अमन नम्र आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती क़ीमतों का मुद्दा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पेशानी पर बल ला सकता है. इन 24 सीटों में से कई ग्रामीण प्रभाव वाली हैं. ऐसे में कांग्रेस पेट्रोल-डीज़ल के दामों को अपनी किसानों की ऋण माफ़ी, बिजली की दरों में कमी जैसी योजनाओं से जोड़कर बड़ा मुद्दा बना सके तो, चुनाव में उसे मदद मिलेगी.’

लेकिन कांग्रेस के सामने भी चुनौतियों की कोई कमी नहीं हैं. ‘इनमें से पहली तो सही प्रत्याशी के चयन की है. भाजपा के बाग़ी नेताओं के अलावा वो उन नेताओं को भी मनाने में जुट गई है जो ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से उसका हाथ छोड़ गए थे. हाल ही में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने वाले बालेंदु शुक्ल और सुरेश सिंह ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं’ अमन नम्र कहते हैं.

ग़ौरतलब है कि बालेंदु शुक्ल माधवराव सिंधिया के बेहद करीबी थे. लेकिन उनकी ज्योतिरादित्य सिंधिया से कभी नहीं बनी. 2008 में कांग्रेस छोड़ने के बाद शुक्ल भाजपा और बहुजन समाज पार्टी के सदस्य रह चुके हैं. जानकार बताते हैं कि शुक्ल को आगे कर कांग्रेस चंबल और ग्वालियर संभाग में ब्राह्मण नेताओं और मतदाताओं को साधने की कोशिश में जुट गई है.

जानकारों के मुताबिक कांग्रेस के सामने एक और बड़ी चुनौती यह भी है कि उसके नेता राजनैतिक तौर पर अपरिक्व हैं. इसे रौ विधानसभा सीट से उसके विधायक जीतू पटवारी के हालिया उदाहरण से समझा जा सकता है. जीतू कमलनाथ सरकार में उच्च शिक्षा, युवा और खेल मामलों के मंत्री हुआ करते थे. बीती 24 जून को उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर तंज कसते हुए यह ट्वीट किया था कि ‘पुत्र के चक्कर में पांच बेटियां- नोटबंदी, जीएसटी, महंगाई, बेरोजगारी और मंदी पैदा हो गईं लेकिन अभी तक विकास नहीं पैदा हुआ.’ इस पर बाल संरक्षण आयोग (एनसीपीआर) ने पटवारी को उनके आपत्तिजनक ट्वीट के लिए नोटिस भेजकर उनसे राष्ट्र के बच्चों से माफी मांगने का निर्देश दिया था. इस सब की वजह से कांग्रेस की जमकर भद्द पिटी. और जिस मुद्दे पर वह भाजपा को बैकफुट पर ले जा सकती थी, उसे ख़ुद को बैकफुट पर जाना पड़ा.

लेकिन जैसा कि हमने ऊपर कहा ये उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए उतने आसान नहीं रहते दिख रहे हैं. यदि वह उपचुनाव में 24 में से आधी यानी 12 सीटें भी जीत लेती है तो भी उसके पास अब की ही तरह बहुमत (116) से सिर्फ़ तीन सीटें ही ज़्यादा (119) होंगी जो कि किसी सत्ता पक्ष के लिए एक कमज़ोर स्थिति मानी जाती है. और यदि किसी तरह कांग्रेस भाजपा को कुल नौ सीटें भी नहीं जीतने देती है तब उसकी ख़ुद की सरकार भले न बने, लेकिन इससे भाजपा की सरकार ज़रूर अल्पमत में आ जाएगी और सत्ता में बने रहने के लिए उसे नये जोड़-तोड़ करने की जरूरत होगी. इसके बाद की स्थिति का अंदाज़ सामान्य समझ से भी लगाया जा सकता है.

माना जा रहा है कि इतनी जोड़-तोड़ और हो-हल्ले के बाद भी यदि उपचुनाव में भाजपा को किसी ऊंच-नीच का सामना करना पड़ गया तो मामा शिवराज चौहान को मध्यप्रदेश की राजनीति से दूर दिल्ली बुलाकर कोई ज़िम्मेदारी सौंपी जा सकती है. वहीं राज्यसभा पहुंच चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया की मोदी कैबिनेट में सम्मानजनक स्थान हासिल कर पाने की अपेक्षाओं को झटका लग सकता है. क्योंकि इन 24 में से 16 सीटें तो उनके अपने गढ़ कहे जाने वाले ग्वालियर-चंबल इलाके की हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति उनके समर्थक पूर्व विधायकों की भी हो सकती है जो उपचुनाव के बाद प्रदेश सरकार में ख़ुद को बड़े पदों पर देखने की उम्मीद पाले बैठे होंगे.

और यदि इन उपचुनावों के नतीजे भाजपा के मन-मुताबिक़ आए तो मध्यप्रदेश की राजनीति और कांग्रेस पार्टी में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का क़द घटना तय है. क्योंकि राज्य में अपमान की जो फसल कांग्रेस को बैठे बिठाए काटनी पड़ी है, उसके बीज कहीं न कहीं कमलनाथ के ही हाथों बोए गए थे. लेकिन जानकारों का कहना है कि ये नतीजे उनके बेटे और सांसद नकुलनाथ के राजनैतिक भविष्य को और भी ज़्यादा प्रभावित करने वाले साबित हो सकते हैं जिन्होंने राजनीति की डगर पर अभी कुछ ही क़दम आगे बढ़ाए हैं.