लेखक-निर्देशक: अन्विता दत्त
कलाकार: तृप्ति डिमरी, अविनाश तिवारी, पाओली दाम, राहुल बोस, परमब्रत चट्टोपाध्याय
रेटिंग: 3.5/5
ओटीटी प्लेटफॉर्म: नेटफ्लिक्स
ऐसा कहा जाता है कि चुड़ैलों के पांव उल्टे होते हैं. लेकिन, क्या कभी किसी ने सच में चुड़ैल देखी है? या फिर, कोई ऐसी शय जिसके पांव उल्टे रहे हों? नहीं! लेकिन, अगर यह पूछा जाए कि क्या आपने चुड़ैल शब्द को संबोधन की तरह इस्तेमाल होते देखा है, तो? जाहिर है कि हम में से ज्यादातर का जवाब हां ही होगा. इसका क्या मतलब हुआ? क्या यह कि चुड़ैलें होती ही नहीं हैं? अगर ऐसा है तो चुड़ैल का संबोधन क्यों और किसके लिए इस्तेमाल किया जाता है? या फिर यह कि चुड़ैलें होती तो हैं लेकिन उनके पांव उल्टे नहीं होते? अगर ऐसा है तो फिर चुड़ैलों के पैर उल्टे होने की अफवाह किसने फैलाई?
कुछ औरतें जो तय पैमानों से थोड़ी अलग जाती दिखती हैं हमारा समाज उन्हें चुड़ैल या डायन बनाता रहा है. अपनी सीमित नज़र से ज्यादातर चीजों को देखने वाले हमारे समाज को एक नई दिशा में बढ़ते इन महिलाओं के कदम अक्सर अलहदा नहीं, उल्टे दिखाई देते हैं. ऐसी औरतों को वह बागी मानता है और उनसे डरता भी है. इसलिए उन्हें गलत, खतरनाक और अजीब साबित कर देने के लिए कुछ भी बाकी नहीं छोड़ता. चुड़ैल और उसके उल्टे पैरों को प्रतीक बनाने वाली ‘बुलबुल’ की रहस्य-कथा, स्त्री जीवन की यही सारी उधेड़बुन हमारे सामने रखती है.
महिला केंद्रित कथानक के अलावा ‘बुलबुल’ की कुछ और खासियतें भी महिलाओं से जुड़ती हैं. जैसे कि इसका लेखन और निर्देशन, स्थापित गीतकार अन्विता दत्त ने किया है और फिल्म की प्रोड्यूसर अनुष्का शर्मा हैं. अनुष्का शर्मा के प्रोडक्शन हाउस में ‘बुलबुल’ से पहले बनी फिल्मों ‘फिल्लौरी’ और ‘परी’, पर गौर करें तो उनकी कुछ खासियतें ध्यान खींचने वाली हैं. मसलन, हॉरर जॉनर की ये फिल्में अपने कथानक को मिले फेमिनिस्ट टच से अनोखापन हासिल करती हैं. साथ ही, एक टाइम पीरियड की किसी सच्ची घटना या काल्पनिक लेकिन प्रचलित कहानी को खुद में शामिल कर उसे आज से जोड़कर सामने रखती हैं और इसी से विशेष बन जाती हैं. इन सबके अलावा, ये फिल्में अपने रंग, रौशनी और डिजाइनिंग से भी रहस्यपूर्ण ढंग से फेमिनिन लगती हैं.
कहानी की बात करें तो ‘बुलबुल’ ब्रिटिशकाल के बंगाल में एक जमींदार के घर का किस्सा दिखाती है. जहां उस दौर के हिसाब से महिला-पुरुषों के समीकरण है और साथ ही, उस वक्त की ज्यादतियां और क्रांतियां हैं. भारी गहनों और रेशमी कपड़ों से लदे महिला किरदार, भव्य हवेलियां-फर्नीचर और रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों में नज़र आने वाला घरेलू माहौल इस फिल्म की खासियत हैं. कहानी में दिखने वाली प्रेम अभिव्यक्ति, राजनीति और छल-कपट भी टैगोर से उधार लिया हुआ ही लगता है. लेकिन पटकथा उस दौर की छिछली नैतिकता से भरपूरी दूरी बनाने का कारनामा कर विशेष हो जाती है. हालांकि फिल्म देखते हुए शुरूआत के आधे घंटे में ही आपको इसके सबसे बड़े सस्पेंस का अंदाज़ा लग जाता है जो फिल्म के रोमांच को कुछ डिग्री कम कर देता है. लेकिन इसके बावजूद क्लाइमैक्स में आने वाले दृश्यों को आप आंखे फाड़कर देखते हैं.
आंखे फाड़कर देखने वाली एक और चीज जो यहां पर है, वह तृप्ति डिमरी का कमाल का अभिनय है. मासूमियत भरे चेहरे पर, रहस्य की परछाईं और उसी में शोखी मिलाकर तृप्ति, रौबदार बड़ी ठकुराइन के किरदार को कई परतें देती हैं. आपस में मिले हुए गम और खुशी, जिसे अंग्रेजी में मेलन्केली कहा जाता है, यहां पर उनके अभिनय की खासियत बनता है. वहीं, उनके साथ नज़र आ रहे अविनाश तिवारी अपनी उपस्थिति से ‘लुटेरा’ वाले रणवीर सिंह की याद दिलाते हैं. गुज़रे जमाने के फॉरेन-रिटर्न बैरिस्टर बाबू बनकर वे भी बेहतरीन कहा जाने वाला अभिनय करते हैं और बांग्ला टोन के साथ बॉडी लैंग्वेज का भी खास ख्याल रखते हैं. साल 2018 में साजिद अली निर्देशित ‘लैला मजनू’ से बॉलीवुड में कदम रखने वाली इस जोड़ी - अविनाश तिवारी और तृप्ति डिमरी - के पक्के अभिनय को देखकर जरा भी यह ख्याल नहीं आता कि यह उनकी दूसरी ही फिल्म है.
इन दोनों के अलावा, राहुल बोस, पाओली दाम और परमब्रत चट्टोपाध्याय फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में दिखाई देते हैं और ठहरकर देखने वाला काम करते हैं. इनमें पाओली का जिक्र अलग से किया जा सकता है. अपने ग्रे-शेड किरदार में खुद को सताए जाने का दर्द और उससे उपजे कड़वेपन को पाओली अपने चेहरे और आंखों से कुछ यूं दिखाती हैं कि आपको भीतर कुछ चुभता-गड़ता हुआ सा महसूस होता है.
बढ़िया कहानी और कमाल के अभिनय के अलावा, ‘बुलबुल’ की खासियत उसका लाल रंग है. यह रंग फिल्म में इतनी अधिकता में इस्तेमाल किया गया है कि साड़ी, सिंदूर और आलता से लेकर कई बार बादल, चांद और यहां तक कि कोहरा भी लाल-लाल ही दिखाई देता है. बढ़िया बात यह है कि ध्यान खींचने के बावजूद यह एक पल के लिए भी अटपटा नहीं लगता है और इसी के चलते खून-खराबे वाले दृश्य जुगुप्सा (घृणा भाव) कम, उत्सुकता और डर ज्यादा जगाते हैं. और, इन सबके साथ अमित त्रिवेदी का संगीत इस हॉरर-सोशल ड्रामा को थोड़ी और ज़रूरी गहराई दे देता है.
कुल मिलाकर, अन्विता दत्त की यह फिल्म देखी जानी चाहिए - यह समझने के लिए कि पांव में पड़ा बिछुआ उड़ने वाली लड़कियों को रोक नहीं सकता है. यह मानने के लिए कि बहुत सी नाइंसाफियां तमाम दावों, वादों और कोशिशों के बावजूद जैसी कल थीं, आज भी जस की तस हैं. और, यह जान लेने के लिए कि वे कहानियां जिन्हें कभी चुड़ैलों की बताया गया, उनमें से कुछ असल में परीकथाएं थीं!
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