जून के आखिरी हफ्ते में ओटीटी प्लेटफॉर्म, डिज्नी प्लस हॉटस्टार द्वारा सात फिल्मों को ऑनलाइन रिलीज किए जाने की घोषणा खासी चर्चा में रही. इनमें से आधी से ज्यादा फिल्मों को इनके मुख्य कलाकारों के लिहाज से देखें तो बड़ी फिल्में कहा जा सकता है – अक्षय कुमार की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘लक्ष्मी बॉम्ब’, भारत-पाकिस्तान युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी अजय देवगन और सोनाक्षी सिन्हा की पीरियड फिल्म ‘भुज-द प्राइड ऑफ इंडिया’, आलिया भट्ट और आदित्य रॉय कपूर के अभिनय वाली ‘सड़क-2’ और अभिषेक बच्चन की बायोपिक ड्रामा ‘द बिग बुल.’ इनके साथ-साथ, रिलीज होने वाली फिल्मों की फेहरिश्त में विद्युत जामवाल की एक्शन-थ्रिलर ‘खुदा हाफिज’ और कुणाल खेमू की कॉमेडी फिल्म ‘लूटकेस’ भी शामिल हैं. वहीं, सातवीं फिल्म सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म ‘दिल बेचारा’ है.
फिल्मों और उनकी स्टारकास्ट के बारे यह जानकारी इतने विस्तार से इसलिए दी गई है ताकि आगे जिक्र किया जा रहा किस्सा आसानी से समझा जा सके और अंदाज़ा लगाया जा सके कि बॉलीवुड में स्टार सिस्टम कितनी गहरी जड़ें रखता है.
किस्सा कुछ यूं है कि फिल्मों की ऑनलाइन रिलीज की घोषणा के बाद हॉटस्टार ने अपने यूट्यूब चैनल पर एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस ‘बॉलीवुड की होम डिलीवरी’ आयोजित की. इस कॉन्फ्रेंस में इन फिल्मों से जुड़े कुछ सितारों यानी अजय देवगन, अक्षय कुमार, आलिया भट्ट, अभिषेक बच्चन के साथ-साथ वरुण धवन ने बतौर होस्ट हिस्सा लिया था. स्वाभाविक था कि देखने वालों ने इसे देखा और आगे बढ़ गए. लेकिन यह कॉन्फ्रेंस तब सुर्खियों का हिस्सा बन गई जब अभिनेता विद्युत जामवाल ने इस पर नाराज़गी जताते हुए, हॉटस्टार पर भेदभाव करने का आरोप लगा दिया. फिल्म क्रिटिक तरण आदर्श के इस कॉन्फ्रेंस से जुड़े एक ट्वीट पर टिप्पणी करते हुए उनका कहना था कि ‘सात फिल्मों का ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आना बेशक एक बड़ी बात है. लेकिन क्या इनमें से सिर्फ पांच फिल्में ही चर्चा के लायक थीं?’
A BIG announcement for sure!!
— Vidyut Jammwal (@VidyutJammwal) June 29, 2020
7 films scheduled for release but only 5 are deemed worthy of representation. 2 films, receive no invitation or intimation. It’s a long road ahead. THE CYCLE CONTINUES https://t.co/rWfHBy2d77
दरअसल, विद्युत जामवाल इस कॉन्फ्रेंस का हिस्सा न बनाए जाने को लेकर नाराज थे. उनका ऐसा करना सही भी लगता है. क्योंकि उनकी फिल्म भी उसी मंच पर रिलीज हो रही है. लेकिन उनके साथ-साथ कुणाल खेमू और ‘दिल बेचारा’ की स्टार कास्ट का जिक्र भी इस कॉन्फ्रेंस में कहीं नहीं मिलता. यह भी देखने लायक बात रही कि इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने वाले पांच सितारों में से चार फिल्मी परिवारों से आते हैं और इस समय नेपोटिज्म को लेकर बहस भी खासी गर्म है. शायद यही वजह रही कि कुणाल खेमू, कंगना रनोट, रणदीप हुड्डा, जेनेलिया डी’सूजा जैसी तमाम हस्तियों समेत आम लोग भी विद्युत जामवाल का जमकर समर्थन करते दिखाई दिए.
सिनेमा व्यवसाय की थोड़ी भी समझ रखने वाला कोई व्यक्ति बता सकता है कि यहां पर सीधे-सीधे बड़े और छोटे सितारों में फर्क किया गया है. इस बहाने यह सवाल किया जा सकता है कि ऐसे समय में जब फिल्में डिजिटल मंचों पर रिलीज हो रही हैं, क्या बॉलीवुड में सितारा संस्कृति जस की तस रह सकती है? ऐसा पूछे जाने की वजह डिजिटल मंचों के आने से, सिनेमा और दर्शकों के बीच बदले समीकरण हैं.
अगर हम यह मानकर चलें कि कोरोना त्रासदी के चलते बना यह माहौल एक लंबे वक्त तक चलने वाला है तो यह तय है कि इतने वक्त तक परंपरागत तरीके से थिएटर में फिल्में रिलीज करने का विकल्प बड़े से बड़े निर्माता या अभिनेता के पास नहीं है. इसका मतलब एक लंबे समय तक फिल्में ओटीटी प्लेटफॉर्म के जरिए ही दर्शकों तक पहुंचने वाली हैं. ऐसे में वह पहली वजह ही खत्म हो जाती है जो अभिनेताओं को स्टार बनाती है, और वह है - बॉक्स ऑफिस. दरअसल, फिल्म बनाने का काम तो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर करते हैं लेकिन उन्हें सिनेमाघरों तक पहुंचाने का काम वितरक (डिस्ट्रीब्यूटर) करते हैं. यहां पर पेंच यह है कि डिस्ट्रीब्यूटर उन्हीं फिल्मों पर पैसा लगाते हैं या कहें कि उन्हीं फिल्मों को सिनेमाघर तक पहुंचाने का रिस्क उठाते हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता हो कि ये पैसा वसूल साबित होने वाली हैं. और, हिंदी फिल्म उद्योग यानी बॉलीवुड की फिल्मों में किसी बड़े सितारे की उपस्थिति को इस बात की गारंटी माना जाता है.
इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि बड़े सितारों की फिल्मों को वितरक आसानी से मिल जाते हैं और वे अधिक से अधिक सिनेमाघरों/स्क्रीन्स तक पहुंचती हैं. नतीजतन, बॉक्स ऑफिस पर अच्छी खासी कमाई कर पाती हैं और आगे भी यह चक्र चलता रहता है. जबकि नए या कम चर्चित सितारों के साथ इसका उल्टा होता रह जाता है. लेकिन अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर फिल्में रिलीज होने से बॉक्स ऑफिस पर सफल होने की यह शर्त ही खत्म हो गई है. यानी, यह मंच अमिताभ बच्चन से लेकर संजना संघी तक के लिए एक बराबर रिस्की और नया है.
सितारा संस्कृति के खतरे में आ जाने की यह आशंका हालिया रिलीज ‘गुलाबो-सिताबो’ और ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल’ के डिजिटल अधिकारों की बिक्री से भी जागती है. सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन और इस दौर के सबसे पॉपुलर अभिनेता आयुष्मान खुराना की फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ के डिजिटल अधिकार, पिछले दिनों 60 करोड़ रुपए में बेचे गए थे, वहीं नवोदित जाह्नवी कपूर की दूसरी ही फिल्म ‘गुंजन सक्सेना-द कारगिल गर्ल’ की डील भी 50 करोड़ रुपयों में हुई. हालांकि जाह्नवी कपूर के पास श्रीदेवी की लीगेसी के साथ-साथ अपनी फैन फॉलोइंग भी है, लेकिन अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना के सामने तो उनके कद को अदना ही माना जाना चाहिए. ऐसे में इनकी फिल्मों की कमाई के कम अंतर को देखते हुए कहा जा सकता है कि बड़े और छोटे सितारों के बीच का फर्क शायद अब कम हो रहा है.
अब अगर सबसे ऊंची कीमत पर बिकने वाली फिल्मों ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ (125 करोड़) और ‘भुज-द प्राइड ऑफ इंडिया’ (112 करोड़) की बात करें तो एक तरफ जहां अक्षय कुमार और अजय देवगन दोनों की ही आखिरी फिल्में (‘गुड न्यूज’ और ‘तानाजी - द अनसंग वॉरियर’) 350 करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई करने वाली फिल्में रहीं थीं. वहीं, दूसरी तरफ अब इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इनकी नई फिल्मों को बाकी फिल्मों से कई गुना अधिक दर्शक मिल ही जाएंगे. यानी, अब सबसे बड़े माने जाने वाले सितारों की फिल्मों के लिए भी कमाई का आंकड़ा, लागत वसूल होने और थोड़ा फायदा हो जाने तक ही सीमित होता दिख रहा है.
कीमत के अलावा, एक फैक्टर जो फिलहाल फिल्म व्यवसाय से गायब होता दिख रहा है, वह है फिल्मों का सफल या असफल होना. बॉक्स ऑफिस की तरह डिजिटल मंच कोई ऐसे आंकड़े जारी नहीं करते हैं जिनसे यह पता चल सके कि किस फिल्म ने कितनी कमाई की. फिल्म उद्योग के एक तबके से अब इस तरह की मांगें भी उठने लगी हैं. कहा जाने लगा है कि एक स्वस्थ प्रतियोगिता का माहौल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कुछ इस तरह के आंकड़े बताये जाएं जिनसे यह पता चल सके कि लोगों ने किसी फिल्म को कितना पंसद किया. उदाहरण के लिए यह बताया जा सकता है कि फिल्म को कुल कितने लोगों ने देखा, कितने लोगों ने इसे शुरूआती 20 मिनिट देखकर छोड़ दिया और कितने लोग इसे टुकड़ों में देख रहे हैं.
ऊपर बताए गए इन आंकड़ों को जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि न सिर्फ ये फिल्मों की सफलता-असफलता के निर्धारक हैं, इस बात को भी तय करने वाले महत्वपूर्ण घटक होंगे कि आने वाले समय में मनोरंजन उद्योग में किसका बोलबाला होगा. स्टार्स का या अभिनेताओं का? मसाला फिल्मों का या धीर-गंभीर कॉन्टेंट का? या फिर यह कि अब कौन कितना बड़ा स्टार होगा.
हो सकता है, डिजिटल रिलीज के शुरूआती दौर में बड़े सितारों को उनकी पॉपुलैरिटी का थोड़ा फायदा मिल जाए. लेकिन डिजिटल मंचों पर तो दर्शक ही सर्वशक्तिमान होता है. अगर उसे कोई फिल्म नहीं पसंद आई तो वह 15 मिनट बाद उसे बंद कर सकता है, फिर चाहे वह सलमान खान की हो या नवाजुद्दीन सिद्दीकी की. ऐसा करते हुए उसे अपने 400 रुपए खर्च करने का अफसोस तो होगा नहीं, साथ ही दो घंटे बचा लेने का सुख भी मिलेगा.
ऑनलाइन दर्शक के बारे में फिलहाल यह भी कहा जा सकता है कि यह एक तरह का अभिजात्य वर्ग है. छोटे शहरों या कस्बों में जहां सितारे चलते हैं, या एक खास तरह की बिना दिमाग लगाए देखी जाने वाली फिल्में भी सफल होती हैं, वहां डिजिटल बस अभी पहुंचना शुरू ही हुआ है. ऐसे में माना जा सकता है कि फिलहाल फिल्मों को हिट-फ्लॉप बनाने वाला दर्शक बड़े या थोड़े कम बड़े शहरों में बैठा हुआ है. यह दर्शक न सिर्फ सार्थक सिनेमा देखना चाहता है बल्कि डिजिटल के माध्यम से उसके पास दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ सिनेमा तक पहुंचने की क्षमता भी है. इस उपलब्धता ने उसकी सिनेमाई पसंद को बेहतर किया है, ऐसे में बिना पटकथा की किसी फिल्म जैसे कि दबंग-3 या भारत में सलमान खान को नकली कारनामे करते देखने की बजाय, वह हिंदी डब या अग्रेंजी/हिंदी सबटाइटल्स के साथ किसी अनजान विदेशी भाषा-संस्कृति वाली उत्कृष्ट फिल्म देखने को वरीयता दे सकता है. या सेक्रेड गेम्स या पाताल लोक जैसी कोई वेब सीरीज.
इन सबके अलावा, डिजिटल मंच मनोरंजन उद्योग में लैंगिक बराबरी लाने वाला ज़रूरी घटक भी बन सकता है. जाह्न्वी कपूर की ‘गुंजन-सक्सेना – द कारगिल गर्ल’ को अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खरराना की फिल्म की लगभग बराबर कीमत पर खरीदा जाना और पिछले दिनों, नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘बुलबुल’ के बाद केवल तृप्ति डिमरी के ही जमकर चर्चे होना, इस बात का इशारा भी देते हैं. आम तौर पर महिलाओं के साथ बड़े बजट की फिल्में यह मानकर नहीं बनाई जाती थीं कि वे पुरुषों के बराबर भीड़ को सिनेमाघरों तक नहीं खींच सकती हैं. लेकिन बदले हुए हालात में इस मान्यता का भी लिटमस टेस्ट किया जा सकता है कि बराबर मौके, स्क्रीन्स और मार्केटिंग मिलने पर अभिनेत्रियां किस तरह दर्शकों को प्रभावित कर सकती हैं.
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