रेमदेसिवियर को भुला ही दिया जाता, यदि कोरोना वायरस के प्रकोप ने सारी दुनिया को पूरी तरह से पस्त नहीं कर दिया होता. वह वास्तव में अफ्रीका के कुछ देशों में बार-बार फैलने वाले ‘एबोला’ वायरस से पीड़ितों के इलाज़ के लिए बनी थी. किंतु कोरोना वायरस का प्रकोप होते ही देखा गया कि वायरस-प्रतिरोधी सारी दवाओं के बीच यही एक ऐसी दवा है, जो कोविड-19 से पीड़ितों के कष्ट और उपचारकाल को घटाने में उपयोगी सिद्ध हो रही है. इस दवा को पाने वाले रोगी ठीक होने में दूसरों की अपेक्षा चार दिन कम लेते हैं. इन अवलोकनों ने जीवनदायी रेमदेसिवियर को एक नया जीवनदान दे दिया.
इस दवा की मूल निर्माता अमेरिकी कंपनी ‘गिलिएड साइन्सेस’ से मिले लाइसेंस के आधार पर बने जेनेरिक संस्करण को, भारत के औषधि नियंत्रण विभाग ने, आठ जुलाई को बिक्री की अनुमति प्रदान कर दी. दवाओं के संकटकालीन उपयोग संबंधी भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के नियमों के अनुसार अब उपयोग में लाया जा सकता है. इसे सिप्ला कंपनी ने सिप्रेमी के नाम से बनाया है. इस दवा की प्रति 100 मिलीग्राम शीशी का मूल्य चार हजार रूपये रखा गया है. सिप्ला का कहना है कि वह पहले महीने ही इसकी 80 हजार खुराकें अस्पतालों को उपलब्ध कराने वाली है. दवा की अंतराराष्ट्रीय निर्माता कंपनी मायलन की भारतीय इकाई भी शीघ्र ही भारत में रेमदेसिवियर लॉन्च करने जा रही है. उसका कहना है कि भारत में इस दवा का मूल्य, यूरोप-अमेरिका जैसे विकसित देशों की तुलना में, 80 प्रतिशत कम रखा गया है.
इलाज़ प्रायः पांच दिन चलता है
गंभीर मामलों में रेमदेसिवियर से इलाज़ प्रायः पांच दिन चलता है, जिसके लिए 600 मिलीग्राम दवा की ज़रूरत पड़ती है. इसे रोगी के शरीर में इनफ्यूज़न के द्वारा, यानी मुख या इन्जेक्शन के द्वारा नहीं, बल्कि उस तरह धीरे-धीरे और सतत पहुंचाया जाता है, जिस तरह शरीर में ग्लूकोज़ या रक्त चढ़ाया जाता है. शरीर में पहुंच कर यह दवा कोरोना वायरस के उस एन्जाइम को बाधित करती है, जिसकी सहायता से वह अपनी संख्या बढ़ाता है. ‘न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ़ मेडिसिन’ में प्रकाशित एक अध्ययन से पुष्टि हुई है कि रेमदेसिवियर, बीमारी की गंभीर अवस्था में राहत पहुंचाती है और इलाज़ में लगने वाले दिनों में चार दिनों तक की कमी ला सकती है.
रेमदेसिवियर को पाने के लिए दुनिया में इस समय अच्छी-ख़ासी छीना-झपटी चल रही है. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने अपने यहां मूल दवा के तीन महीने के पूरे उत्पादन का 90 प्रतिशत पहले ही आरक्षित कर लिया है. उनका कहना था, ‘’जहां तक हो सके, हमें पहले ही यह सुनिश्चित कर लेना है कि ऐसे हर अमेरिकी बीमार को, जिसे रेमदेसिवियर की ज़रूरत पड़ सकती है, यह दवा मिले.’’ अमेरिका में पांच दिनों के मानक उपचार के लिए इस दवा की जो मात्रा चाहिये, उस पर प्रति बीमार 2340 डॉलर के बराबर ख़र्च बैठेगा. अमेरिकी ने जिस तरह तीन महीने - जुलाई, अगस्त और सितंबर - का लगभग पूरा उत्पादन अपने नाम किया है उसी तरह के प्रयास जर्मनी सहित कई अन्य यूरोपीय देशों की सरकारें भी कर रही हैं.
भारत का अपना टीका
लेकिन कोविड-19 के इलाज के लिए रेमदेसिवियर की उपलब्धता तो है ही, कोविड-19 से बचाव के लिए भी भारत में एक टीके की खोज की खबर चर्चा में है. हैदराबाद की एक वैक्सीन निर्माता कंपनी ‘भारत बायोटेक’ के अध्यक्ष और प्रबंधनिदेशक कृष्णा एल्ला ने इसी सप्ताह घोषित किया कि उनकी कंपनी ने कोविड-19 से बचाव के अपने टीके की मनुष्यों पर परीक्षण की प्रक्रिया शुरू कर दी है. ‘भारत बायोटेक’ के टीके का नाम है ‘कोवैक्सिन.’ छह सप्ताह के भीतर ही, यानी भारत के स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त तक, उसे सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध कर देने का लक्ष्य रखा गया है.
कृष्णा एल्ला ने आणविक जीवविज्ञान (मॉलिक्युलर बायोलजी) में अमेरिका से पीएचडी की है और जर्मनी की बायर कंपनी की भारतीय शाखा के लिए काम कर चुके हैं. बायर की ही एक छात्रवृत्ति के आधार पर वे अमेरिका गये थे. ‘भारत बायोटेक’ की स्थापना उन्होंने 1996 में की थी. तब से अब तक उनकी कंपनी इऩफ्लुएन्ज़ा वायरस एच1एन1 सहित 16 प्रकार के टीकों की चार अरब से अधिक खूराकें (डोज़) दुनिया भर में बेच चुकी है. उनका दावा है कि कोविड-19 से बचाव का उनका नया टीका ‘कोवैक्सिन’ भी एक सुरक्षित टीका सिद्ध होगा. इस पर जिस तेज़ी से काम हुआ है, उसे लेकर अच्छी-अच्छी विदेशी कंपनियां भी आश्चर्यचकित हैं.
चकित भी और शंकालु भी
बाताजा जा रहा है कि भारत में कोविड-19 के फैलने की दिन दूनी रात चौगुनी गति को देखते हुए इस टीके को उपलब्ध करने की तारीख़, 15 अगस्त, ‘इंडियन काउन्सिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च’ ने तय की है. लेकिन कई लोगों का मानना है कि भारत सरकार चाहती थी कि 15 अगस्त के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल क़िले की प्राचीर से जब देश को संबोधित करें, तब उनके पास कोरोना वायरस के प्रकोप से लड़ने में भारत की सफलता का कोई फड़कता हुआ उदाहरण भी होना चाहिये. भारत के कई संक्रमण एवं टीका विशेषज्ञ इस उतावलेपन पर चकित और टीके की उपयोगिता को लेकर शंकालु भी हैं. कृष्णा एल्ला स्वयं भी स्वीकार करते हैं कि इससे पहले उनकी कंपनी को किसी टीके पर कई वर्षों तक काम करना पड़ा है.
‘भारत बायोटेक’ कृष्णा एल्ला की पारिवारिक कंपनी है. उसके क़रीब 700 कर्मचारी हैं. उसके टीके अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपनी सस्ती क़ीमतों के कारण काफ़ी आकर्षक माने जाते हैं. कृष्णा एल्ला का दावा है कि कुत्ते आदि पशुओं के काटने से होने वाली रेबीज़ (जलभीति) नाम की बीमारी के विरुद्ध उनकी कंपनी का टीका दुनिया में सबसे अधिक बिकता है. सभी संदेहों के विपरीत ‘कोवैक्सिन’ को भी यदि ऐसी ही सफलता मिली, तो यह भारत के लिए ‘एक पंथ कई काज’ हो जायेंगे. इससे कोविड-19 के संक्रमण की रोकथाम होगी, टीके के निर्यात से विदेशी मुद्रा मिलेगी, देश सामान्य होने की ओर बढ़ेगा और पूरी दुनिया में भारत एक नई प्रतिष्ठा भी अर्जित कर लेगा. तब यह भी कहा जाएगा कि उसके कड़े प्रतिद्वंद्वी चीन ने जिस महामारी से पूरी दुनिया को संकट में डाला उसका हल भारत ने ढूंढ़ा.
लेकिन अभी यह दूर की कौड़ी है. अभी तो कोवैक्सिन के कई स्तरों पर परीक्षण होने हैं और कहा जा रहा है 15 अगस्त तक इनका पूरा होना संभव नहीं है. तब तक सिर्फ यह हो सकता है कि शायद कौवैक्सिन का पहले स्तर का ट्रायल खत्म हो जाए. इसमें यह देखा जाना है कि इस टीके को लोगों को देना सुरक्षित है या नहीं. इसके बाद इसकी उपयोगिता का पहले कम और फिर ज्यादा लोगों पर परीक्षण करना होगा.
कोरोना से बचाव की नयी चुनौतियां
कोरोना वायरस संबंधी नये अध्ययन दिखाते हैं कि ग्रीष्म ऋतु की गर्मी से उसके प्रसार में न तो कोई उल्लेखनीय कमी आती है और न ही उससे बीमार होने पर ठीक हो जाने के बाद दुबारा संक्रमण से पूरी तरह बचा जा सकता है. देखा यह गया है कि संक्रमण के बाद जिनमें कोई लक्षण नहीं उभरते या बहुत कम लक्षण उभरते हैं, उनके रक्त में एन्टीबॉडी उतनी ही जल्दी ग़ायब भी हो जाते हैं. यानी कोरोना से लड़ने की उनकी प्रतिरक्षण क्षमता बहुत जल्द ही लुप्त हो जाती है.
इसका सबसे बड़ा अर्थ यह है कि रक्त में कोरोना-सापेक्ष एन्टीबॉडी होने-न-होने के आधार पर किये जाने वाले इसके टेस्ट कतई विश्वसनीय नहीं कहे जा सकते. जो लोग संक्रमण या बीमारी को झेल कर उबर चुके हैं, उन्हें ‘इम्युनिटी प्रमाणपत्र’ देने या उनसे मांगने का भी कोई तुक नहीं है. इसके अलावा कोरोना वायरस से लड़ने की प्रतिरोध-क्षमता भी सब में एक जैसी नहीं, बल्कि बहुत अलग-अलग होती है. ऐसा प्रतीत होता है कि बीमारी झेल लेने के बाद भी नये संक्रमण से बचाव की क्षमता बहुत दीर्घकालिक नहीं होती. इससे संदेह पैदा होता है कि क्या कोई टीका भी लंबे समय तक कोरोना वायरस के संक्रमण से सुरक्षा दे पायेगा? या फिर कुछ-कुछ अंतर पर टीका लेते रहना पड़ सकता है.
यानी कि अब तक की समझ और सफलताओं के बावजूद कोरोना अभी भी एक अबूझ पहेली बना हुआ है.
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.