राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही तनातनी और उसकी वजह से पैदा हुई सियासी उथल-पुथल के बीच प्रदेश की एक क़द्दावर नेता की ख़ामोशी तमाम नेताओं की बयानबाज़ी से भी ज़्यादा सुर्ख़ियों में बनी हुई है. ये नेता हैं प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी का पर्याय मानी जाने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया. वे बीते कई दिनों से केंद्रीय राजधानी दिल्ली या जबरदस्त राजनीतिक उठापटक का सामना कर रहे जयपुर के बजाय धौलपुर में स्थित अपने राजमहल में मौजूद हैं.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी शुरुआत से ही इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती रही है कि राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार को अस्थिर करने में वह सचिन पायलट की साझेदार है. लेकिन हाल की कई घटनाएं पार्टी के रुख पर बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती हैं. जैसे कांग्रेस की तरफ़ से जारी किए गए एक ऑडियो में कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त से जुड़ी बातचीत करना. सचिन पायलट का हाईकोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे जैसे ऐसे वकीलों को ही अपना पैरोकार चुनना जिनका भाजपा के प्रति स्पष्ट झुकाव किसी से नहीं छिपा है. पायलट का अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा शासित प्रदेश हरियाणा में ही रुके रहना. और बीते कुछ दिनों में मुख्यमंत्री गहलोत के क़रीबियों के यहां अचानक से ईडी और सीबीआई की रेड पड़ना. इसके अलावा राज्यपाल कलराज मिश्र द्वारा गहलोत सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने की इजाजत न देना भी ऐसी ही घटनाओं में से एक है.
यदि भारतीय जनता पार्टी के इस दावे को सही मान भी लें कि ये पूरी खींचतान कांग्रेस की अंदरूनी फूट का ही नतीजा है और इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है. तो भी इतने महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम से वसुंधरा राजे जैसी दिग्गज नेता का दूरी बनाए रखना जानकारों को चौंकाता है. राजे की इस चुप्पी को लेकर सूबे के राजनीतिक विश्लेषक मुख्य तौर पर दो मत रखते हैं.
पहला तो यह कि वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान और खास तौर पर भाजपा में ऐसा कोई भी नया क्षत्रप उभरने नहीं देना चाहती हैं जो आगे चलकर उन्हें चुनौती दे सके. और जब बात सचिन पायलट जैसे युवा, महत्वाकांक्षी और ऊर्जावान नेता की हो तो किसी का भी अतिरिक्त सतर्क होना लाज़मी है. इसके अलावा प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में मुख्यमंत्री गहलोत और वसुंधरा राजे द्वारा अंदरखाने एक दूसरे को समर्थन देते रहने की चर्चा भी आम है. हाल ही में सचिन पायलट ने भी मुख्यमंत्री गहलोत और राजे के बीच गठजोड़ होने के आरोप लगाए थे और लोकसभा में भाजपा की सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) के प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने भी.
पूर्व सीएम वसुन्धरा राजे @ashokgehlot51 की अल्पमत वाली सरकार को बचाने का पुरजोर प्रयास कर रही है,राजे द्वारा कोंग्रेस के कई विधायको को इस बारे में फोन भी किए गए !#गहलोत_वसुंधरा_गठजोड@AmitShah @AmitShahOffice @JPNadda @BJP4India @BJP4Rajasthan @RLPINDIAorg
— HANUMAN BENIWAL (@hanumanbeniwal) July 16, 2020
हालांकि इसके बाद वसुंधरा राजे ने एक ट्वीट के ज़रिए कांग्रेस पर हमला बोला था. लेकिन जानकारों ने उसे महज औपचारिकता के तौर पर ही देखा. क्योंकि इसके बाद वे एक बार फिर पूरे परिदृश्य से नदारद हो गई हैं. कुछ जानकार राजे और पायलट परिवार के बीच के असहज रिश्तों के लिए 2003 के विधानसभा चुनाव का भी हवाला देते हैं. तब सचिन पायलट की मां रमा पायलट ने राजे को उनकी पारपंरिक सीट झालरापाटन पर चुनौती दी थी. हालांकि रमा पायलट वह चुनाव जीत पाने में नाकाम रहीं थीं.
#RajasthanFirst pic.twitter.com/Qzq1iv0Yuy
— Vasundhara Raje (@VasundharaBJP) July 18, 2020
इस पूरे मामले में विश्लेषक वसुंधरा राजे की ख़ामोशी की दूसरी बड़ी वजह के तौर पर भाजपा हाईकमान से उनके असहज रिश्तों को भी गिनवाते हैं. भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ नेता इस बारे में इशारों में हमें बताते हैं, ‘इस सब के लिए हाईकमान ने राज्य में अपनी सबसे प्रमुख नेता को विश्वास में ही नहीं लिया. जबकि मैडम ये सब नहीं चाहती थीं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह से वसुंधरा राजे के असहज रिश्ते ही थे जिनके चलते उनके पिछले कार्यकाल (2013-18) में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चाएं लगभग हर छह महीने में जोर पकड़ने लगती थीं. जानकारों के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री राजे के बीच की अनबन सबसे पहले 2008 में सामने आयी थी. तब राजस्थान-गुजरात की संयुक्त नर्मदा नहर परियोजना के उद्घाटन के समय एक ही पार्टी से होने के बावजूद इन दोनों नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री एक-दूसरे के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया था.
हालांकि पांच साल बाद इनके बीच रिश्ते सामान्य होने की खबरें भी खूब सुनने को मिलीं जब दोनों ने एक दूसरे के लिए चुनावों में जमकर प्रचार किया था. मोदी लहर कहें या राजे की मेहनत 2013 में भाजपा ने राजस्थान विधानसभा चुनावों में जबर्दस्त बहुमत हासिल किया और अपनी लय बरकरार रखते हुए पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश की सभी 25 सीटों पर कब्जा कर लिया. लेकिन जब इस जीत का श्रेय लेने की बारी आई तो दोनों एक-दूसरे को एक बार फिर खटकने लगे. प्रदेश में इस जीत पर अपना-अपना दावा करते राजे और मोदी समर्थक कई मौकों पर एक दूसरे को आंखे तरेरते भी नजर आए.
लोकसभा चुनाव में पार्टी के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए वसुंधरा राजे को उम्मीद थी कि उनके पुत्र और झालावाड़ से सांसद दुष्यंत सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह जरूर मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रतिक्रिया के तौर पर वसुंधरा राजे खुद दिल्ली पहुंच गयीं और प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण से पहले राजस्थान से चुने गए सभी सांसदों की मीटिंग बुला ली. खबरें तो यह थीं कि राजे नाराज सांसदों को मनाने के लिए दिल्ली आईं थीं. लेकिन कई जानकारों ने इसे उनके शक्तिप्रदर्शन के तौर पर भी देखा. बताया जाता है कि तभी से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नजरों की किरकिरी बन गईं.
उसके बाद 2014 के विधानसभा उपचुनावों में जब भाजपा को चार में से सिर्फ एक सीट मिली तब एक बार फ़िर कयास लगाए जाने लगे कि प्रदेश में वसुंधरा राजे के दिन लद गए हैं. लेकिन उस समय केंद्र के लिए यह कदम आसान नहीं था. दरअसल उसी समय उत्तर प्रदेश में भी उपचुनाव हुए थे और राजस्थान की तरह वहां भी लोकसभा में जबरदस्त प्रदर्शन के बावजूद भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था. इसका मतलब था कि मजबूरन केंद्र को दोनों राज्यों में समान कार्रवाई करनी पड़ती. फ़िर दिल्ली के विधानसभा चुनाव भी सर पर थे. लिहाजा भाजपा हाईकमान ने अंतर्कलह से बचने के लिए तब भी राजे को लेकर कोई फैसला नहीं लिया.
लेकिन वसुंधरा राजे आसानी से चुप होने वालों में से नहीं थी. उपचुनाव हारने के अगले महीने ही उन्होंने मीडिया के सामने एक चौंकाने वाला बयान दिया कि ‘कोई व्यक्ति इस गुमान में न रहे कि उसकी वजह से पार्टी राजस्थान में लोकसभा की 25 और विधानसभा की 163 सीटें जीती हैं. जनता जिताने निकलती है तो दिल खोलकर और हराने निकलती है तो घर भेज देती है.’ हालांकि इस बयान में उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया था लेकिन जानकारों का मानना था कि उन्हें चुनावों में जीत का सेहरा प्रधानमंत्री के सिर बांधना रास नहीं आया था.
इसके अलावा राजे ने केंद्र के महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत भी राजस्थान में देरी से की थी. इसके लिए उनसे दिल्ली से जवाब भी मांगा गया. लेकिन सफाई देने की बजाय उन्होंने किसी विपक्षी मुख्यमंत्री जैसा रुख अपना लिया. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा, ‘ये तो अब कर रहे हैं. हमने अपने बजट में इसका प्रावधान किया है. हमने 2003 में ही झाड़ू लगाकर इसकी शुरुआत कर दी थी.’ हालांकि केंद्र ने राजे के इस बयान को भी दरकिनार करते हुए इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी.
लेकिन फ़िर 2015 की गर्मियां वसुंधरा राजे के माथे पर पसीना लाने वाली साबित हुईं. ललित मोदी कांड में जब उनका नाम उछला तो सभी को लग रहा था कि इस बार केंद्र उन्हें नहीं बख्शेगा. लंबे समय तक केंद्र ने इस पर चुप्पी बनाए रखी और राजे की चारों तरफ जमकर किरकिरी होने के बाद ही उन्हें क्लीन चिट दी गई. लेकिन अपने विधायकों पर जबरदस्त पकड़ के चलते राजे को हटाया फ़िर भी नहीं जा सका. इसके अलावा पहले ही दिल्ली के चुनावों में करारी हार का सामना कर चुकी भाजपा हाईकमान की नज़र उस समय बिहार के चुनावों पर भी थी. ऐसे में राजस्थान में उठाया गया कोई भी बड़ा कदम बिहार में फूंक-फूंक कर कदम रख रहे पार्टी शीर्ष नेतृत्व का ध्यान विचलित कर सकता था.
फ़िर 2017 में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में पड़ोसी राज्य की मुख्यमंत्री होने के बावजूद राजे को हाईकमान ने कोई जिम्मेदारी नहीं दी और जब जीत के बाद वे बधाई देने दिल्ली पहुंची तो उन्हें भीड़ में जगह मिली. लेकिन जल्द ही राजे को अपने अपमान का बदला लेने का मौका मिल गिया. दरअसल 2018 में राजस्थान में हुए दो बेहद महत्वपूर्ण लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद राजे के करीबी माने जाने वाले पार्टी प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी को इस्तीफा देना पड़ा था. सूत्र बताते हैं कि परनामी की जगह अमित शाह ने तत्कालीन केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आगे बढ़ाया था. लेकिन राजे ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया.
इस बार भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने राजे को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन उसकी एक न चली. उल्टे राजे के इशारे पर प्रदेश संगठन से जुड़े करीब दो दर्जन कद्दावर मंत्रियों और नेताओं ने अपनी नेता की बात मनवाने के लिए दिल्ली में डेरा डाल दिया. ढाई महीने तक चली इस रस्साकशी में अमित शाह को पीछे हटना पड़ा और गजेंद्र सिंह शेखावत की जगह मदनलाल सैनी ने पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली. इसके बाद बारी आई 2018 के विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण की. एक बार फ़िर भाजपा आलाकमान ने राजे के पसंद के नेताओं के टिकट काटने और अपनी पसंद के नेताओं को पार्टी की तरफ़ से चुनाव में उतारने लिए ऐड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा दिया. लेकिन हर बार की ही तरह इस बार भी भाजपा हाईकमान को मुंह की ही खानी पड़ी और 200 में से अधिकतर टिकट वसुंधरा राजे की ही पसंद से बांटे गए.
लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी आलाकमान ने राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुला लिया. माना जाता है कि इस फैसले के जरिए पार्टी शीर्ष नेतृत्व राजस्थान से राजे की पकड़ ढीली करवाना चाहता है. इसी क्रम में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा हाईकमान ने राजस्थान के कद्दावर जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर वसुंधरा राजे को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सूबे में बेनीवाल की छवि घोर राजे विरोधी के तौर पर स्थापित है. बाद में केंद्रीय कैबिनेट में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को शामिल किया गया, उन्हें भी राजे विरोधियों के तौर पर ही पहचाना जाता है. लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए ओम बिरला से भी पूर्व मुख्यमंत्री की तनातनी की ख़बरें किसी से छिपी नहीं हैं. इसके बाद 2019 में भी सतीश पूनिया को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाते समय राजे से कथित तौर पर कोई मशवरा नहीं लिया गया था.
लेकिन भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो इन तमाम कवायदों के बावज़ूद वसुंधरा राजे को कमजोर नहीं किया जा सका है. अभी की बात करें तो राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के 72 विधायकों में से तकरीबन 50 विधायक ऐसे माने जाते हैं जिनके लिए ‘वसुंधरा ही भाजपा’ हैं. राजस्थान से आने वाले भाजपा के सभी 25 सांसदों में से कमोबेश आधों की भी यही स्थिति बताई जाती है. इन सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व से नाख़ुश धड़ा अगले लोकसभा चुनाव से पहले उन पर दबाव बनाने के लिए वसुंधरा राजे की मदद ले सकता है.
कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि अब तक राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री से नाख़ुश रहने वाले आरएसएस का भी एक धड़ा अंदरखाने उन्हें अपना समर्थन देने लगा है और राजे को यह राहत संघ की राजस्थान इकाई की तरफ़ से नहीं बल्कि सीधे नागपुर से मिली है. इसमें महाराष्ट्र से ही ताल्लुक रखने वाले भारतीय जनता पार्टी के एक केंद्रीय नेता की बड़ी भूमिका बताई जाती है.
इस सबके मद्देनज़र जानकारों का मानना है कि भाजपा हाईकमान न तो राजे को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाकर और ज़्यादा ताकतवर करने का ख़तरा मोल ले सकता है और ना ही मुख्यमंत्री न बनाकर उन्हें नाराज़ करने का. विश्लेषकों के मुताबिक यदि भाजपा ने राजस्थान में वसुंधरा राजे की बजाय किसी और नेता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री बनाने की सोची भी तो पार्टी में उस तरह की तोड़-फोड़ देखने को मिल सकती है जैसी कि कांग्रेस में भी अभी तक नहीं हुई है. दबी आवाज़ में जयपुर के राजनैतिक गलियारों में ऐसी चर्चाएं भी कही-सुनी जा रही हैं कि यदि फ्लोर टेस्ट के वक़्त गहलोत सरकार लड़खड़ाती नज़र आई तो वसुंधरा समर्थक भाजपा के कुछ विधायक उसे संबल देने के लिए क्रॉस वोटिंग तक कर सकते हैं. इसके लिए ये विधायक भाजपानीत भैरोसिंह शेखावत सरकार (1993-98) के समय हुई एक बड़ी राजनीतिक घटना की नैतिक आड़ ले सकते हैं.
उस समय भारतीय जनता पार्टी के विधायक भंवरलाल शर्मा ने कथित तौर पर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर अपनी ही सरकार को गिराने की कोशिश की थी. लेकिन तब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष पद पर बैठे गहलोत ने विदेश में अपना इलाज करवा रहे शेखावत तक यह सूचना पहुंचवाई और तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिलकर इस कोशिश का विरोध किया. इसके बाद तुरत-फुरत में शेखावत भारत आए और विरोधियों की कवायद को नाकाम कर दिया. इस समय भंवरलाल शर्मा कांग्रेस में हैं और सचिन पायलट खेमे में शामिल हैं. कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के वायरल ऑडियो में एक आवाज़ शर्मा की भी बताई जा रही है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के कुछ विधायक दलील दे सकते हैं कि वे अपने नेता को धोखा देने वाले भंवरलाल शर्मा के साथ दिखने के बजाय शेखावत की सरकार बचाने वाले गहलोत का साथ देना ज्यादा पसंद करेंगे.
भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान इकाई में वसुंधरा राजे के प्रभाव का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब सांसद हनुमान बेनीवाल ने उन पर मुख्यमंत्री गहलोत से सांठ-गांठ का आरोप लगाया तो प्रदेश भाजपा में हलचल मच गई. संगठन में राजे विरोधी माने जाने वाले नेताओं ने भी बेनीवाल को उनके बयान के लिए आड़े हाथों लिया और अपनी तरफ़ से लीपापोती की भी कोशिश की. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में जब राजे के करीबी माने जाने वाले विधायक कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़े करते हुए बड़ा बयान दिया कि ‘राजस्थान में सरकार को गिराने के लिए जिस तरह का माहौल पिछले दो महीने से बना है, हॉर्स ट्रेडिंग हो रही है, आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकारें बदलती रही हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी द्वारा विपक्षी पार्टियों से मिलकर सरकार गिराने के षडयंत्र जो आज हो रहे हैं, ऐसा कभी नहीं देखा गया.’ इस पर वसुंधरा गुट की तरफ़ से करीब एक सप्ताह गुजरने के बाद भी अब तक कोई सफाई नहीं दी गई है.
वसुंधरा राजे की राजनीति को करीब से देखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार उनके मौजूदा रुख के बारे में कहते हैं, ‘राजे की राजनैतिक समझ बेहद कैल्कुलेटिव है. वे जानती हैं कि भ्रम की स्थिति में खपाई गई ऊर्जा न सिर्फ़ निरर्थक होगी बल्कि नुकसानदायक भी साबित हो सकती है.’ ये पत्रकार राजे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच एक समानता का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, ‘ये दोनों ही नेता सत्ता से बाहर रहने के दौरान एक सोची-समझी ख़ामोशी ओढ़े रखते हैं. लेकिन हर बार निर्णायक घड़ी में अपने विरोधियों पर इक्कीस साबित होते हैं. गहलोत तो फ़िर भी पर्दे के पीछे रहकर बाजी पलटने में विश्वास रखते हैं. लेकिन राजे आर-पार की लड़ाई लड़ती आई हैं. इसलिए उनकी हालिया चुप्पी का यह मतलब बिल्कुल नहीं निकालना चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर वे कोई बड़ा क़दम उठाने से पहले एक बार भी झिझकेंगी.’
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