सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म! ‘दिल बेचारा’ के परिचय में इन शब्दों का इस्तेमाल करने के बारे में सोचते ही भावनाएं थोड़ी बेकाबू होने लगती हैं. लेकिन जो सच है उससे मुंह कैसे मोड़ा जाए! सुशांत के जाने के डेढ़ महीने बाद रिलीज हुई दिल बेचारा उनके और उनकी मृत्यु के बारे में फिर से और तरह-तरह से सोचने को मजबूर करती है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम उन्हें भूलने लगे थे. अगर ऐसा होता तो ‘दिल बेचारा’ की रिलीज देश के लिए इतनी बड़ी घटना कैसे बन जाती?
ओटीटी प्लेटफॉर्म डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज होते ही ‘दिल बेचारा’ 9.8 रेटिंग के साथ आईएमडीबी पर भारत की सबसे ज्यादा रेटिंग वाली फिल्म बन गई. गूगल पर तो करीब 15 हजार लोगों ने रिलीज होने से पहले ही दिल बेचारा को रेटिंग दे दी थी और इस लेख के लिखे जाने तक यह आंकड़ा 65 हजार पर पहुंच रहा था. और यहां पर लगभग सभी ने इसे लाइक किया हुआ है. दूसरी तरफ, डिज्नी प्लस हॉटस्टार ने इसे सब्सक्रिप्शन के बंधन से मुक्त कर दिया है. यानी, कि सब्सक्रिप्शन लिए बगैर, यहां तक कि लॉग इन किए बिना भी इसे हॉटस्टार पर देखा जा सकता है.
देखने वालों की बात करें तो एक ही रात में दिल बेचारा को इतने लोगों ने देखा कि कुछ समय के लिए डिज्नी प्लस हॉटस्टार का सर्वर ही क्रैश हो गया. हालांकि यह कोई सरप्राइज नहीं है क्योंकि बीते डेढ़ महीने से सुशांत सिंह राजपूत को लेकर उनके प्रशंसक जिस तरह का व्यवहार दिखाते रहे हैं, ऐसा न होता तो आश्चर्य की बात होती. फिल्म देखे जाने से जुड़ी चौंकाने और भावुक करने वाली बातों में से एक यह है कि इसे देखते हुए बहुत सारे दर्शकों ने सुशांत के लिए दिए-मोमबत्तियां जलाईं और प्रार्थनाएं भी कीं.
फिल्म समीक्षाओं की बात करें तो ज्यादातर समीक्षकों का कहना है कि इस फिल्म को देखना और उस पर लिखना या बात करना, उनके लिए बहुत भावुक करने वाला रहा. जानी-मानी फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा ने तो यह कहते हुए इसकी समीक्षा करने से ही इनकार कर दिया कि उनके लिए निष्पक्ष होकर इस पर बात कर पाना संभव नहीं होगा. इस पर प्रतिक्रिया देते हुए लोगों ने उन्हें सोशल मीडिया पर खासा ट्रोल किया है, उनके वीडियो पर आई प्रतिक्रियाएं तो यहां तक कहती हैं कि वे सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद भी उनकी तारीफ नहीं करना चाहती हैं, इसलिए उनकी फिल्म पर टिप्पणी नहीं कर रही हैं. इसके उलट, कोमल नाहटा सोशल मीडिया पर फिल्म का रिव्यू करने के लिए ट्रोल होते दिखाई दिये. कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि फिल्म के प्रसारण-प्रदर्शन से लेकर उसकी समीक्षा और उन पर आने वाली प्रतिक्रियाओं तक, ‘दिल बेचारा’ के आसपास जो भी चल रहा है, वह सबकुछ एक अजीब-सी भावुकता में पगा हुआ है.
फिल्म पर आएं तो यह साल 2014 में आई हॉलीवुड फिल्म ‘द फॉल्ट इन अवर स्टार्स’ का आधिकारिक हिंदी रीमेक है. मूल फिल्म अमेरिकी लेखक जॉन ग्रीन्स की इसी शीर्षक वाली एक लोकप्रिय किताब पर आधारित थी. मूल फिल्म से तुलना करें तो ‘दिल बेचारा’ भी उन्हीं फिल्मों में गिनी जा सकती है जिन पर हॉलीवुड क्लासिक्स की कम वजन वाली नकल होने का टैग लगाया जाता है. फिल्म का बॉलीवुडीकरण करते हुए कथानक कुछ ऐसा रचा गया है कि कई बार यह जल्दबाज़ी दिखाती हुई सी लगती है, तो एकाध मौके पर सिर्फ 101 मिनट की यह फिल्म थोड़ी घिसटती हुई सी भी लगती है. फिल्मों के जानकार कहते हैं कि मेलन्कली यानी दुख मिश्रित खुशी जैसी किसी जटिल भावना को अपना स्थायीभाव बनाने वाली फिल्मों में एक दृश्य भी कम-ज्यादा होने पर उनका संतुलन बिगड़ जाता है. दुख की बात यह है कि ‘दिल बेचारा’ इस मामले में उतनी संतुलित नहीं है.
‘दिल बेचारा’ से जुड़ा एक अजीब सा विरोधाभास यह है कि एक तरफ जहां सुशांत सिंह राजपूत के प्रशंसक फिल्म की आलोचना करने वालों पर यशराज फिल्म्स या करण जौहर का चमचा होने का आरोप लगा रहे हैं. वहीं, फिल्म तार्किकता का साथ छोड़कर यशराज या धर्मा बैनर की फिल्मों में मौजूद रहने वाली कई विशेषताओं को अपनाती सी भी दिखती है. उदाहरण के लिए, ‘दिल बेचारा’ कहानी तो जमशेदपुर जैसे छोटे से शहर में रहने वाले एक मध्यवर्गीय परिवार की कहती है लेकिन अपनी नायिका को पेरिस भेजने से पहले एक बार भी उसकी आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में नहीं सोचती है. जबकि मूल अमेरिकी फिल्म में भी विदेश जाने का बजट न होने का थोड़ा जिक्र तो आता ही है. अगर फिल्म चाहती तो यशराज बैनर की नकल करने के बजाय अपनी नायिका को दिल्ली, मुंबई या हिंदुस्तान के किसी और शहर में भी भेज सकती थी. इसी तरह, नायक-नायिका किसी रेस्तरां में डेट के लिए मिलने की बजाय प्रॉम-नाइट पर जाते दिखते हैं. जमशेदपुर तो क्या दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों के लिए भी अभी प्रॉम-नाइट का कॉन्सेप्ट लगभग अनजाना ही है. लेकिन विदेशों में शूटिंग और ओवर-द-टॉप जाकर किसी चीज को रूमानी बनाना यशराज और धर्मा बैनर की फिल्मों की खासियत है जिसे ‘दिल बेचारा’ बिना ज्यादा सोचे-समझे अपनाती दिखती है.
इन तमाम खूबियों-खामियों के बावजूद इस फिल्म को सुशांत सिंह राजपूत की उपस्थिति ही खास बना देती है. हालांकि यहां पर सवाल यह भी है कि अगर वे जीवित होते तो क्या यह अति-सामान्य फिल्म इतनी ही चर्चा बटोर सकती थी? शायद नहीं. लेकिन कई बार यूं भी होता है कि परिस्थितियां कुछ चीजों को विशेष या असाधारण बना देती हैं. हॉलीवुड में भी इस तरह के कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं. जैसे कि कोरोना वायरस के समय में ‘कंटेजियन’ को दुनिया भर में पहले से भी ज्यादा देखा गया. एक्सीडेंट में अभिनेता पॉल वॉकर की असमय मौत के बाद ‘फास्ट एंड फ्यूरियस’ सीरीज की सातवीं फिल्म ‘फ्यूरियस’ भी बेहद लोकप्रिय हो गई थी. ‘द डार्क नाइट’ और ‘बैटमैन’ के लिए जाने गए हेथ लीजर के गुजरने के बाद ‘द इमैजिनेरियम ऑफ डॉक्टर पार्नैसिस’ और ‘द डार्क नाइट’ ने भी खासी मकबूलियत बटोरी थी. शायद, सुशांत के प्रशंसक इन फिल्मों वाला कद ‘दिल बेचारा’ को भी देना चाहते हैं. लेकिन अफसोस कि ऐसा सिर्फ लोकप्रियता के पैमाने पर ही हो सकता है, सिनेमाई पैमानों पर नहीं.
एक आखिरी बार सुशांत सिंह राजपूत के अभिनय पर बात करें तो एक अजीब सी बात यह कही जा सकती है कि यह फिल्म जाने-अनजाने सुशांत की तरफ से शाहरुख खान को दिये गये ट्रिब्यूट जैसी भी है. सुशांत खुद को शाहरुख खान के सबसे बड़े प्रशंसकों में से एक मानते थे और कई बार सार्वजनिक तौर पर भी उन्होंने यह बात कही थी. ‘दिल बेचारा’ में सुशांत इतने शाहरुख-मय नज़र आए हैं कि कई बार उनकी तरह ही ओवर-एक्टिंग करते हुए भी दिख जाते हैं. फिल्म से जुड़ी एक अजीब बात यह है कि सुशांत के किरदार को फैन तो रजनीकांत का बताया गया है लेकिन हरकतें वह बिलकुल शाहरुख खान जैसी करता है. हालांकि इस बात के लिए सुशांत की तारीफ की जा सकती है कि उन्होंने सारी बारीकियों के साथ शाहरुख खान का एक्टिंग स्टाइल अपनाया है. यह बात और है कि वे उन दृश्यों में कहीं ज्यादा अच्छे और सच्चे लगते हैं जिनमें वे शाहरुख नहीं सुशांत सिंह राजपूत होते हैं.
शाहरूख का फैन होने के अलावा, यह फिल्म सुशांत सिंह राजपूत की जिस खासियत की तरफ हमारा ध्यान खींचती है, वह उनकी बेहद खूबसूरत, चमकीली मुस्कुराहट और एकदम अलग सी नरमी रखने वाली प्रभावशाली आवाज है, जो उनके पास हमेशा से थी और अब हमारे लिए कभी नहीं होगी. ‘दिल बेचारा’ देखते हुए, वैसे तो पूरे समय आप इस मुस्कुराहट और आवाज़ को खो देने के गम से भरे रहते हैं लेकिन शुरूआती 10-15 मिनट जब वे पूरी एनर्जी के साथ स्क्रीन पर मस्ती करते हुए दिखते हैं तो हंसी-खुशी वाले इन दृश्यों में भी आपका दिल भारी हो जाता है. लगातार जिंदगी और मौत के फलसफे के आसपास की बातें करने वाली ‘दिल बेचारा’ के तमाम संवाद फिल्म की काल्पनिकता से कम, आज की वास्तविकता से ज्यादा जुड़ते दिखाई देते हैं. यह विरोधाभास और अफसोस मिलकर फिल्म के शीर्षक को एक अलग ही मतलब दे देते हैं. यानी, ‘दिल बेचारा’ देखकर दिल सचमुच हिंदी सिनेमा के एक अनमोल सितारे को खो देने की बेचारगी से भर जाता है.
‘दिल बेचारा’ जो है, अगर उससे कुछ अलग भी होती तो भी इसकी पहचान यही रहती कि यह सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म है. लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की फिल्मोग्राफी, उनके अभिनय की कहानी में ‘दिल बेचारा’ सिर्फ एक पूर्ण विराम जितनी ही जगह ले सकती है. कहने का मतलब यह है कि बतौर अभिनेता उन्हें सराहने के लिए इस पूर्ण विराम से पहले के तमाम शब्दों को पढ़ा जाना चाहिए. यानी, उनकी बेहतरीन परफॉर्मेंस वाली कमाल की फिल्मों को देखा और याद रखा जाना चाहिए.
सुशांत सिंह राजपूत को इसके लिए याद किया जाना चाहिए कि जब वे ‘काई पो चे’ में दिखाई दिए तो लोगों ने कहा कि ‘मानव’ (धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ में उनके किरदार का नाम) की फिल्म आ रही है. और इसके लिए भी कि जब वे रघु बनकर ‘शुद्ध देसी रोमांस’ में नज़र आए तो समीक्षकों ने देवानंद से उनकी तुलना की. या फिर इस बात के लिए कि बीती सदी की कहानी, ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ में वे धोती-कुर्ता पहनकर कुछ इस कदर फिट हुए कि लोग रजित कपूर की सालों पुरानी याद को याद करते-करते भी भूल गए. बहुत हद तक सिर्फ इसलिए भी कि ‘एमएस धोनी – द अनटोल्ड स्टोरी’ में उन्होंने धोनी का वह विजयी छक्का रिक्रिएट कर दिया था. और इसलिए भी कि ‘सोनिचिड़िया’ में अपना स्टारडम भूलकर उन्होंने किरदारों की भीड़ में एक यादगार किरदार निभाया. ‘दिल बेचारा’ के लिए ‘अभिनेता’ सुशांत सिंह राजपूत को सबसे ज्यादा याद रखना उनके साथ हुई सबसे बड़ी नाइंसाफी होगी.
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