किस्सा 1987 का है. पीटर राइट की आत्मकथा ‘स्पाइकैचर: द कैंडिड ऑटोबायोग्राफी ऑफ अ सीनियर इंटेलिजेंस ऑफिसर’ ने छपते ही धूम मचा दी थी. राइट ब्रिटेन की खुफिया सेवा एमआई5 के पूर्व सहायक निदेशक थे. ऑस्ट्रेलिया में छपी उनकी इस आत्मकथा में स्वेज संकट के समय एमआई5 द्वारा मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर की हत्या की साजिश जैसे कई सनसनीखेज दावे किए गए थे. स्वाभाविक ही था कि इंग्लैंड में इस किताब के प्रकाशन पर पाबंदी लग गई. यही नहीं, वहां के अखबारों को भी स्पाइकैचर में दर्ज दावों की रिपोर्टिंग करने से रोक दिया गया.
मामला अदालत में पहुंचा. एक हाई कोर्ट ने यह पाबंदी हटा दी. इसके खिलाफ सरकार देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था पहुंची. उन दिनों इंग्लैंड में सुप्रीम कोर्ट नहीं होता था. किसी भी मामले में अंतिम अपील संसद के ऊपरी सदन - हाउस ऑफ लॉर्ड्स - की एक समिति के सामने होती थी. इसके सदस्यों को लॉ लॉर्ड्स कहा जाता था. लॉ लॉर्डस ने पाबंदी को बहाल कर दिया.
इंग्लैंड के अखबारों में इस फैसले की तीखी आलोचना हुई. द लंदन टाइम्स ने इस फैसले को तानाशाही सनक बताया. द डेली मिरर तो इससे कहीं आगे निकल गया. उसने यह फैसला सुनाने वाले तीनों लॉ लॉर्ड्स की एक उल्टी तस्वीर छापी और नीचे लिखा - यू ओल्ड फूल्स. ठेठ हिंदी में कहें तो बुड्ढे उल्लुओं!
सिडनी टेंपलमैन उन तीन लॉ लार्ड्स में से एक थे जिन्होंने यह फैसला सुनाया था. जब द डेली मिरर के खिलाफ अदालत की अवमानना की मांग उठी तो उन्होंने इसे खारिज कर दिया. सिडनी टेंपलमैन का कहना था कि बूढ़े तो वे वास्तव में हैं और उल्लू हैं या नहीं, यह अपनी-अपनी सोच है, हालांकि वे खुद ऐसा नहीं मानते. अदालत की अवमानना के मुद्दे पर किसी गहरी बहस में अक्सर इस किस्से को भी याद कर लिया जाता है.
यह मुद्दा इन दिनों फिर चर्चा में है. इसकी वजह है वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई. उन्होंने हाल में दो ट्वीट किए थे. इनमें से एक उस तस्वीर के बारे में था जो कई अखबारों में छपी थी और जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एसए बोबडे एक बहुत महंगी बाइक पर बैठे दिख रहे थे. प्रशांत भूषण ने लिखा था, ‘नागपुर के राजभवन में मास्क और हेलमेट पहने बगैर सीजेआई 50 लाख की एक मोटरसाइकिल की सवारी कर रहे हैं जो भाजपा के एक नेता की है, वह भी एक ऐसे समय पर जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन मोड पर रखा हुआ है जिससे नागरिक न्याय तक पहुंच के अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं.’
एक दूसरे ट्वीट में प्रशांत भूषण ने लिखा, ‘इमरजेंसी घोषित किए बिना भी भारत में लोकतंत्र को किस तरह खत्म किया गया, यह जानने के लिए भविष्य में जब इतिहासकार बीते छह सालों की तरफ देखेंगे तो वे इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को खास तौर पर रेखांकित करेंगे और उसमें भी खास तौर पर पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका को.’

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक उसे लगता है कि प्रशांत भूषण के इन ट्वीट्स से न्याय के प्रशासन की प्रतिष्ठा को चोट पहुंची है. शीर्ष अदालत के मुताबिक इनसे जनता की नजर में सुप्रीम कोर्ट और खास तौर से मुख्य न्यायाधीश के पद की गरिमा और शक्ति को नुकसान पहुंच सकता है.
SC says it prima facie is of the view that the two tweets by adv. #PrashantBhushan have brought disrepute to the administration of justice and could undermine, in the eyes of the public, the dignity and authority of the Supreme Court in general and the CJI’s office in particular. pic.twitter.com/tvEEM1gilk
— The Leaflet (@TheLeaflet_in) July 22, 2020
इसके साथ ही प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के उस मामले में भी कार्रवाई फिर शुरू हो गई जिसकी आखिरी तारीख करीब आठ साल पहले पड़ी थी. यह मामला 2009 में तहलका पत्रिका में छपे उनके एक साक्षात्कार से जुड़ा है. इसमें प्रशांत भूषण ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट थे.
20 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने माफी मांगने से इनकार कर दिया. महात्मा गांधी को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं न दया की भीख रहा हूं और न ही मैं आपसे उदारता की अपील कर रहा हूं. मैं यहां किसी भी विधिसम्मत सजा को खुशी से स्वीकार करने आया हूं जो मुझे उस बात के लिए दी जाएगी जिसे कोर्ट ने अपराध माना है लेकिन मेरी नजर में जो किसी नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य है ’
इसके बाद जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि बिना शर्त माफी के लिए प्रशांत भूषण को चार दिन का समय और दिया जाता है. अदालत का कहना था कि अगर सोमवार तक वे माफी मांग लेते हैं तो मंगलवार को मामले पर फिर विचार किया जाएगा. फिलहाल अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.
उधर, सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई पर बहस छिड़ गई है. शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर, दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह, वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह और राज्यसभा के पूर्व सांसद डी राजा सहित 131 हस्तियों ने इस पर चिंता जताई है. इन सभी ने हाल में एक बयान जारी किया. इसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली से जुड़े कई मुद्दों पर सवाल उठाने वाले प्रशांत भूषण के खिलाफ यह कार्रवाई आलोचना का गला घोंटने की कोशिश जैसी दिखती है. बयान के शब्द हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट जैसी देश की महत्वपूर्ण संस्था को ऐसा होना चाहिए कि लोग दंड या आपराधिक अवमानना के डर के बिना उसके बारे में चर्चा कर सकें.’ सुप्रीम कोर्ट के सात पूर्व जजों - जस्टिस रूमा पाल, जीएस सिंघवी, एके गांगुली, गोपाला गौड़ा, आफताब आलम, जे चेलामेश्वर और विक्रमजीत सेन ने भी इस बयान को अपना समर्थन दिया है.
किसी भी प्रभावी लोकतंत्र की ताकत विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस जैसी संस्थाओं से बनती है. विधायिका का काम अगर कानून बनाना है तो कार्यपालिका का उनका अनुपालन सुनिश्चित करना. उधर, न्यायपालिका का काम है इन कानूनों की व्याख्या करना और इनके अनुसार न चलने वालों को दंड देना. अवमानना के कानून को इसलिए जरूरी कहा जाता है ताकि अदालतें अपने आदेश का अनुपालन सुनिश्चित कर सकें. अगर अदालत का आदेश माना नहीं जाएगा तो जाहिर सी बात है कि कानून का शासन खत्म हो जाएगा. लेकिन अवमानना का यह हथियार कब और किस तरह इस्तेमाल किया जाए, इस पर खूब बहस होती रही है. इसे समझने के लिए बात शुरू से शुरू करते हैं.
प्राचीन काल में राजा न्याय व्यवस्था की सबसे ऊंची पीठ हुआ करता था. सही गलत का आखिरी फैसला उसकी ही अदालत में होता था. समय के साथ यह व्यवस्था परिष्कृत हुई तो राजा दंडाधिकारी या इस तरह के लोगों को नियुक्त करने लगे. हालांकि ये अधिकारी भी राजा के नाम पर ही फैसला करते थे और इसलिए इनके प्रति असम्मान राजा के प्रति असम्मान माना जाता था. इसलिए कहा जा सकता है कि अदालत की अवमानना की धारणा राज्य व्यवस्था जितनी ही पुरानी है.
जहां तक इस धारणा की आधुनिक व्याख्या की बात है तो इसकी जड़ें इंग्लैंड के उस कॉमन लॉ में हैं जो भारत सहित सभी राष्ट्रकुल देशों और अमेरिका की न्याय व्यवस्था का प्रमुख आधार है. इसमें कहा गया है कि न्याय का प्रशासन ठीक से चले, इसके लिए अदालत की अवमानना का सिद्धांत जरूरी है, जिसके तहत अदालत के पास अपने आदेश का पालन न करने वाले को दंड देने की शक्ति हो.
भारत में ब्रिटिश राज की शुरुआत के साथ अंग्रेजी कानून भी देश में चले आए. 18वीं सदी की पहली चौथाई बीतते-बीतते देश के कई हिस्से ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में आ चुके थे. इनके प्रशासन के लिए इंग्लैंड के राजा को 1726 में एक चार्टर यानी राजपत्र जारी करना पड़ा. इसे भारत की आधुनिक कानून व्यवस्था के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि इसने ही इस देश का ब्रितानी कानूनों से परिचय करवाया. राजपत्र के नियमों के मुताबिक ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे वाले प्रमुख शहरों में निगमों के अलावा अदालतें भी स्थापित की गईं. इन्हें संबंधित शहर की सीमा के भीतर सभी सिविल यानी दीवानी मामलों को निपटाने का अधिकार दे दिया गया.
अदालतों के बाद उनकी अवमानना का विषय भी देर-सवेर आना ही था. यह मौका 1926 में आया जब भारत में पहली बार अदालत की अवमानना का कानून बना. हालांकि इससे काफी पहले ही यहां इंग्लैंड की अदालतों का अनुकरण करते हुए अवमानना के फैसले सुनाए जाने लगे थे. इस सिलसिले में 1883 का एक मामला याद किया जा सकता है. इसमें कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक मंदिर के शालिग्राम को अदालत में लाए जाने का हुक्म सुनाया था. शहर से छपने वाले अंग्रेजी अखबार द बंगाली ने यह आदेश देने वाले जज की आलोचना करने वाला एक लेख छापा. इसमें अदालती आदेश को जज की जोर-जबर्दस्ती बताया गया. अदालत ने इसे अपनी अवमानना करार दिया और अखबार के संपादक सुरेंद्र नाथ बनर्जी को जेल भेज दिया.
आजादी के बाद जब देश का संविधान बना तो सुप्रीम कोर्ट की शक्ति इसमें निहित कर दी गई. इसमें अवमानना के लिए जांच और दंड की शक्ति भी शामिल थी. संविधान का अनुच्छेद 129 कहता है, ‘उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय (कोर्ट ऑफ रिकार्ड्स) होगा और उसके पास अपनी अवमानना के लिए दंड सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी.’ इसके अलावा संविधान का अनुच्छेद 142 (2) सुप्रीम कोर्ट को अवमानना के आरोप में किसी भी व्यक्ति की जांच और इसके बाद दंड का फैसला लेने के लिए सक्षम बनाता है. इसी सिलसिले में अनुच्छेद 215 का जिक्र करना भी जरूरी है जो उच्च न्यायालयों को उनकी अवमानना के लिए दंडित करने का अधिकार देता है. संविधान में अदालत की अवमानना को उन पाबंदियों में शामिल किया गया है जो अनुच्छेद 19 के तहत नागरिकों को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित करती हैं.
1952 में संसद से अदालत की अवमानना का कानून पारित हुआ. हालांकि इसमें अवमानना की व्याख्या नहीं की गई थी. 1971 में इस कानून की जगह एक नए कानून ने ली जिसमें अदालत की अवमानना को पहली बार स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया. इसे सिविल और आपराधिक दो वर्गों में बांटा गया. सिविल अवमानना यानी अदालत के किसी आदेश की नाफरमानी. उधर, आपराधिक अवमानना से आशय बोली या छापी गई किसी भी ऐसी चीज से था जो न्यायालय को कलंकित करे या जिससे इसकी कार्यवाही में प्रतिकूल हस्तक्षेप हो या फिर न्याय प्रक्रिया में बाधा आए. इस अपराध के लिए छह महीने तक की कैद या दो हजार रु तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया. हालांकि कानून में यह भी कहा गया कि किसी मामले में अदालती कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग या फिर फैसले के बाद मामले की गुण-दोष के आधार पर विवेचना अदालत की अवमानना नहीं होगी.
2006 में इस कानून में भी संशोधन किया गया. इसके तहत व्यवस्था दी गई कि अगर किसी व्यक्ति पर अदालत की अवमानना का आरोप है तो वह ‘सच’ के आधार पर अपना बचाव कर सकता है. यानी जो बात उसने कही है वह सच है. इसके लिए उसे अदालत को संतुष्ट करना होगा कि यह सच जनहित में है और उसकी नीयत में कोई खोट नहीं है.
यह तो हुई इतिहास की बात. अब वर्तमान यानी प्रशांत भूषण के मामले पर आते हैं. एक वर्ग प्रशांत भूषण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की कार्वाई को सही नहीं मानता है. उसके मुताबिक इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वह दायरा सिकुड़ता दिखता है जिसे खुद शीर्ष अदालत ही बड़ा करती रही है. इस सिलसिले में 2015 का सुप्रीम कोर्ट वह फैसला याद किया जा सकता है जिसमें उसने आईटी एक्ट की धारा 66ए को रद्द कर दिया था. यह धारा सोशल मीडिया पर कथित आपत्तिजनक पोस्ट करने पर पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देती थी और इसमें दोषी को तीन साल तक की जेल हो सकती थी. अदालत ने इसे संविधान के तहत नागरिकों को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करार दिया. उसका कहना था, ‘एक व्यक्ति के लिए जो बात अपमानजनक हो सकती है, वह दूसरे के लिए नहीं भी हो सकती है.’ सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सोशल मीडिया का मिजाज ही ऐसा है कि वहां बारीकी से बात नहीं हो सकती. कई लोग मानते हैं कि प्रशांत भूषण के मामले में भी इस तरह से सोचा जा सकता था.
यहां पर 1999 की एक घटना याद की जा सकती है. तब आउटलुक पत्रिका में छपा अरुंधति रॉय का एक लेख विवाद का कारण बन गया था. बुकर विजेता इस चर्चित लेखिका ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की आलोचना की थी जिसमें नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने पर लगी रोक हटा दी गई थी. इस मामले में भी अवमानना की मांग हुई. लेकिन अरुंधति रॉय के लेख पर नाखुशी और इससे असहमति जताने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू करने से इनकार कर दिया. शीर्ष अदालत के तत्कालीन जस्टिस एसपी भरुचा का कहना था, ‘अदालत के कंधे इतने विशाल हैं कि ऐसी टिप्पणियों से उस पर फर्क नहीं पड़ता और फिर यह बात भी है कि इस मामले में हमारा ध्यान विस्थापितों के पुनर्वास और राहत के मुद्दे से भटकना नहीं चाहिए.’
इसलिए कई लोग मानते हैं कि प्रशांत भूषण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई एक गलत परंपरा शुरू कर सकती है. वरिष्ठ पत्रकार और द प्रिंट के संपादक शेखर गुप्ता भी इनमें से एक हैं. उनके मुताबिक ऐसे कई उदाहरण हैं जब शीर्ष अदालत ने ऐसे मामलों में बड़ा दिल दिखाया और इसलिए अब उसका इतना संवेदनशील हो जाना समझ से परे है. शेखर गुप्ता मानते हैं कि हर संस्था की अपनी एक पूंजी होती है और सुप्रीम कोर्ट की पूंजी उसका कद है. वे कहते हैं, ‘इस कद को कुछ अप्रिय ट्वीट चोट पहुंचा सकते हैं ऐसा मानना मेरी समझ में एक बड़ी भूल होगी.’
कई जानकार प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई से हैरान भी हैं. उनका मानना है कि जब नागरिकों की जिंदगी और आजीविका से जुड़े कई जरूरी मामले सुनवाई के इंतजार में हैं, जब कोरोना वायरस के खिलाफ सरकार की प्रतिक्रिया पर कई सवाल उठ रहे हैं तो ऐसे असाधारण समय में दो ट्वीट्स पर माननीय न्यायाधीशों का यह गुस्सा आश्चर्यजनक है. इन लोगों के मुताबिक शीर्ष अदालत को ऐसे कई मामलों में जल्द सुनवाई की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही जिनमें देर करने से उन मामलों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा (मसलन जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म होने के बाद वहां के कई नेताओं की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं). माना जा रहा है कि ऐसे हालात में प्रशांत भूषण पर इस कार्रवाई से बचा जा सकता था.
पूर्व जजों सहित 131 हस्तियों ने इस मामले में जो बयान जारी किया है उसमें भी यह बात कही गई है. इस बयान में कहा गया है, ‘संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को यह जिम्मा सौंपा है कि वह सरकार द्वारा अपने दायरे के अतिक्रमण और राज्य द्वारा नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के उल्लंघनों पर नजर रखे. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसे लेकर उसकी अनिच्छा पर गंभीर सवाल उठे हैं. ये सवाल मीडिया से लेकर अकादमिक जगत, सिविल सोसायटी से जुड़े संगठनों, कानूनी जानकारों और सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान और पूर्व जजों तक ने उठाए हैं. सबसे ताजा मामले की ही बात करें तो लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों के संकट को टालने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने समय पर कार्रवाई नहीं की जिसकी सार्वजनिक रूप से काफी आलोचना हुई.’ बयान में सुप्रीम कोर्ट के जजों से इन सभी चिंताओं पर ध्यान देने और प्रशांत भूषण के खिलाफ मामला वापस लेने की अपील की है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस रुख पर आश्चर्य जताा है. एक समाचार वेबसाइट से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे हैरानी हो रही है कि 280 कैरेक्टर लोकतंत्र के खंभे को हिला रहे हैं. मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की छवि इतनी नाजुक है. 280 कैरेक्टर से सुप्रीम कोर्ट अस्थिर नहीं हो जाता.’ उनका आगे कहना था, ‘कोर्ट का स्तर बहुंत ऊंचा है. अगर आप कुल्हाड़ी से मच्छर मारेंगे तो आप अपने आपको ही चोट पहुंचाएंगे.’
कई लोग मानते हैं कि जिस तरह से पिछले कुछ समय के दौरान न्यायपालिका ने अपने अधिकारों का दायरा बढ़ाया है उसे देखते हुए उसकी आलोचना होना स्वाभाविक है. अपने एक लेख में बॉम्बे हाईकोर्ट में अधिवक्ता अजय कुमार कहते हैं, ‘फैसलों के लिहाज से देखें तो न्यायपालिका आज डीएम से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक सब कुछ बन चुकी है. अदालतों और जजों का काम ये नहीं है. अगर एक मामले में अदालत अपने लिए तय दायरे से आगे चली जाती है और दूसरे में वह ऐसा नहीं करती तो अपने आप उस पर सवाल उठेंगे.’ उनके मुताबिक पिछले कुछ समय के दौरान तय हदों से आगे जाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने लिए खुद ही वैसी उम्मीदें पैदा कर ली हैं जो लोग राजनेताओं से करते हैं ‘तो किसी भाजपा नेता की महंगी मोटरसाइकिल पर सवार मुख्य न्यायाधीश की तस्वीर अगर किसी को अनैतिक लगती है तो इसमें हैरानी कैसी?’
इस पर कहा जा सकता है कि निजी जीवन भी कोई चीज होती है. हो सकता है हमारे मुख्य न्यायाधीश मोटरसाइकिलों के शौकीन हों. ‘’लेकिन जब इस तरह की कोई फोटो सार्वजनिक माध्यमों में आ जाती है तो लोगों को उस पर टिप्पणी करने का अधिकार है. हर तरह की टिप्पणियां हो सकती हैं. कुछ जगहों पर तो इस फोटो पर मीम भी बन गए हैं’ अजय कुमार आगे कहते हैं, ‘भारत के मुख्य न्यायाधीश अब इंरटनेट पर मीम का विषय हैं. अगर ये नौबत आ गई है तो अब किसी संस्था या दफ्तर की गरिमा को गिराने का सवाल कहां रह जाता है? गिराने के लिए कुछ गरिमा बची है? जब लोग अपने राजनेताओं की तरह अपने जजों का भी मजाक बनाने लगें तो इसका मतलब है कि जज भी राजनीतिक हो चुके हैं.’ अजय कुमार के मुताबिक ऐसे में जजों के बारे में कोई भी टिप्पणी राजनीतिक हो जाती है और ऐसी टिप्पणी करने वाले को संविधान का अनुच्छेद 19 सुरक्षा देता है.
प्रशांत भूषण के इस मामले ने कानून की अनिश्चितता का सवाल भी पैदा किया है. शीर्ष अदालत ने इस मामले में ट्विटर को भी नोटिस भेजा था. 23 जुलाई को सुनवाई के दौरान उसने कंपनी को सुझाव दिया कि वह प्रशांत भूषण के ट्वीट ‘डिसेबल’ कर दे ताकि उन्हें न देखा जा सके. इस पर कंपनी ने कहा कि अदालत आदेश जारी कर दे तो ऐसा कर दिया जाएगा. खबरों के मुताबिक इसके बाद ट्विटर के वकील सजन पूवैया से अदालत ने कहा, ‘आप ये काम खुद क्यों नहीं कर सकते? हमारे द्वारा अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के बाद भी क्या आप औपचारिक आदेश का इंतजार करना चाहते हैं? हमें लगता है कि हम इस पर कोई आदेश पारित नहीं करेंगे और हम इसे आपकी बुद्धिमता पर छोड़ते हैं.’ इस पर पुवैया ने कहा कि वे समझ गए हैं कि अदालत क्या कह रही है और वे अपने मुवक्किल तक यह संदेश पहुंचा देंगे. इसके बाद प्रशांत भूषण के ट्वीट ‘डिसेबल’ कर दिए गए.
इंटरनेट से आपत्तिजनक सामग्री हटाए जाने को लेकर भारत में पहले से ही एक वैधानिक व्यवस्था बनी हुई है जिसका नाम है आईटी एक्ट. अजय कुमार लिखते हैं, ‘अगर अदालत का सुझाव न मानने के लिए कंपनियों पर कार्रवाई हो सकती है तो इसका मतलब है कि हमारे कानून अनिश्चित हैं. कोई ऐसे माहौल में निवेश क्यों करेगा जहां न सिर्फ सरकार बल्कि अदालतें भी प्रशासनिक निर्देश दे रही हैं और किसी कंपनी को बता रही हैं कि उसे क्या करना है और क्या नहीं.’
कई लोगों का मानना है कि अनिश्चितता अदालत की अवमानना से जुड़े कानून में भी है. उनके मुताबिक ‘न्यायालय को कलंकित’ करना अवमानना है, लेकिन इसका ठीक-ठीक मतलब क्या है, यह साफ नहीं है और इससे अदालतों को असीमित शक्ति मिल जाती है. बहुत से लोग मानते हैं कि दुनिया के सबसे बेहतर लोकतंत्रों में गिने जाने वाले अमेरिका और ब्रिटेन ने अवमानना की अवधारणा पर कुछ बंदिशें लगा दी हैं और भारत में भी ऐसा ही होना चाहिए.
भारत के महान न्यायाधीशों में गिने जाने वाले जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने भी इस दिशा में ध्यान खींचने की कोशिश की थी. 1978 में दिए अपने एक फैसले में उन्होंने कहा था कि जो कानून किसी बात को छापना अपराध बना देता है, बिना इस पर विचार किए कि वह सच भी हो सकती है या उसमें जनहित का भाव हो सकता है, वह अनजाने में ही नागरिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है. जस्टिस अय्यर का कहना था कि ऐसे में शीर्ष अदालतों की जिम्मेदारी है कि वे और भी ज्यादा सावधानी बरतें और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की रक्षा करें, फिर भले ही उन्हें संस्था के भीतर से नाराजगी का सामना क्यों न करना पड़े.
अभी तो फिलहाल मामला उल्टी दिशा में जाता दिख रहा है.
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