26 जुलाई को यानी अपने जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपने एक बयान की वजह से सुर्ख़ियों में आ गए. शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा - ‘जिस किसी को मेरी सरकार गिरानी हो वो आज ही गिराए, अभी इस इंटरव्यू के दौरान ही गिराए फिर मैं देखता हूं.’ जानकारों ने उनके इस बयान को भारतीय जनता पार्टी और ख़ास तौर पर महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए चुनौती के तौर पर देखा. अपने इस साक्षात्कार में ठाकरे ने यह भी कहा कि ‘मेरी सरकार का भविष्य विपक्ष के हाथों में नहीं. मेरी सरकार गरीबों का तीन पहिये का रिक्शा है, स्टीयरिंग मेरे हाथ में है, लेकिन पीछे दो और लोग बैठे हैं. गठबंधन में हमारे सहयोगी एनसीपी (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी) और कांग्रेस ‘सकारात्मक’ हैं और महाविकास अघाड़ी सरकार को उनके अनुभव का फायदा मिल रहा है. अगर मेरी सरकार तीन पहिये वाली है, ये सही दिशा में आगे बढ़ रही है तो आपके पेट में दर्द क्यों हो रहा है?’
मुख्यमंत्री ठाकरे का यह बयान ऐसे मौक़े पर आया है जब राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार बड़े संकट से जूझ रही है. जबकि कर्नाटक और मध्यप्रदेश की सत्ता पहले ही कांग्रेस के हाथ से फिसल चुकी है. गुजरात में भी बीते कुछ सप्ताह में कांग्रेस के पांच विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया है जबकि तीन अन्य विधायक पहले ही पार्टी की सदस्यता छोड़ चुके हैं. ऐसे में ठाकरे के बयान के बाद राजनैतिक गलियारों में इस सवाल की गूंज सुनाई देने लगी है कि क्या महाराष्ट्र में भी शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के महागठबंधन वाली सरकार पर कोई ख़तरा मंडरा रहा है?
अधिकतर जानकार इस सवाल का जवाब ‘हां’ में देते हैं. उनका मानना है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के आपसी मनमुटाव के चलते महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार पर तभी से तलवार लटक रही है जब से वह अस्तित्व में आई है. इसकी बानगी के तौर पर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार को लिया जा सकता है. ग़ौरतलब है कि उद्धव ठाकरे ने बीते साल 28 नवंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. लेकिन तब उनके साथ तीनों दलों से केवल दो-दो विधायकों ने ही मंत्री पद ग्रहण किया था. बाकी मंत्रियों का चयन क़रीब तीन सप्ताह बाद ही किया जा सका था. उस समय महाविकास अघाड़ी सरकार के तीनों पहियों यानी शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच मंत्रालयों के बंटवारे को लेकर गहमागहमी की ख़बरें सूबे में आम थीं. इसके मद्देनज़र कयास लगाए जाने लगे कि जो गठबंधन शुरुआती दिनों में ही बड़ी खींचतान में उलझ गया हो उसके लिए अपना कार्यकाल पूरा कर पाना आसान काम नहीं होगा!
महाराष्ट्र में बीते छह महीने में ऐसी कई राजनीतिक घटनाएं देखने को मिली हैं जो इन कयासों को बल देती हैं. ग़ौरतलब है कि गठबंधन सरकार बनने के तुरंत बाद से महाराष्ट्र के सियासी गलियारों में इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि मुख्यमंत्री पद पर उद्धव ठाकरे बैठे ज़रूर हैं, लेकिन सरकार की कमान पूरी तरह से एनसीपी प्रमुख शरद पवार के हाथ में है. चर्चाएं कुछ ऐसी भी हैं कि मुख्यमंत्री ठाकरे अपने निवास (मातोश्री) से बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेते जबकि उम्रदराज़ होने के बावज़ूद शरद पवार ज़मीन पर कहीं ज़्यादा सक्रिय रहते हैं. ज़ाहिर तौर पर ये बातें शिवसैनिकों को कम ही सुहाती हैं. जानकारों की मानें तो इन चर्चाओं की शुरुआत भी एनसीपी नेताओं की तरफ़ से हुई और इन्हें हवा देने का काम भी उन्होंने किया. हालांकि कुछ का दावा है कि ये सारी बातें भारतीय जनता पार्टी की तरफ़ से उछाली गई हैं ताकि गठबंधन में दरार डाली जा सके.
जानकारी के अनुसार इस सबके जवाब में कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री ठाकरे ने एक पीआर एजेंसी से संपर्क साधा और उसे अच्छा-खासा भुगतान कर अपनी छवि सुधारने का काम सौंपा. इसमें कांग्रेस की पूर्व प्रवक्ता रह चुकी प्रियंका चतुर्वेदी की बड़ी भूमिका बताई जाती है. वे बीते साल ही शिवसेना में शामिल हुई थीं. इसके बाद से उद्धव ठाकरे चमत्कारी ढंग से एक प्रभावशाली मुख्यमंत्री के तौर पर उभरते दिखे हैं. कोरोना वायरस की वजह से महाराष्ट्र में पैदा हुए तमाम विपरीत हालात के बावज़ूद एक आम बैंकर से लेकर फिल्मी सितारे तक सभी एक स्वर में इस बीमारी से निपटने के लिए मुख्यमंत्री ठाकरे की तारीफ़ करने लगे. लिहाजा इस बार कुढ़ने की बारी एनसीपी की थी.
जानकार बताते हैं कि मुंबई जैसे महाराष्ट्र के शहरी इलाकों पर जितना शिवसेना का कब्जा है, प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में उतना ही प्रभाव एनसीपी का माना जाता है. दोनों ही दलों की राजनीति का भी तौर-तरीका कुछ-कुछ एक ही सा रहा है. नतीजतन दोनों ही दलों के बीच प्रतिस्पर्धा और असुरक्षा की भावना भी बराबर ही महसूस की जा सकती है. फ़िर एनसीपी का हमेशा से यह अंदाज़ रहा है कि वह मुख्यमंत्री पद पर डोरे डालने की बजाय अपना ध्यान हमेशा राज्य में दमदार मंत्रालयों पर केंद्रित रखती है. 1999 से 2014 तक महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ चली गठबंधन सरकार में हमेशा एनसीपी ने यही रवैया अपनाया. हालांकि 2004 के विधानसभा चुनाव में एनसीपी (71) के पास कांग्रेस (69) की तुलना में दो विधायक ज़्यादा होने की वजह से दोनों दलों के बीच थोड़ी बहुत खटपट देखने को मिली थी. लेकिन बाद में एनसीपी उपमुख्यमंत्री पद और कैबिनेट में तीन अतिरिक्त मंत्रालय मिलने की बात पर संतुष्ट हो गई.
इस बार भी अजित पवार की शक्ल में उपमुख्यमंत्री पद एनसीपी के ही पास है. इसके अलावा महाराष्ट्र सरकार में 43 में से सर्वाधिक 16 मंत्रालय एनसीपी के ही नियंत्रण में है जिनमें गृह और वित्त जैसे अहम मंत्रालय भी शामिल हैं. वहीं, शिवसेना और कांग्रेस के पास इस समय 12-12 मंत्रालय ही हैं. जबकि गठबंधन में सबसे ज़्यादा विधायक शिवसेना (56) के हैं, फ़िर एनसीपी (54) के और इस मामले में आख़िरी पायदान पर कांग्रेस (44) है.
विश्लेषकों के मुताबिक इन्हीं सब समीकरणों के चलते खास तौर पर शिवसेना और एनसीपी के बीच वर्चस्व को लेकर अंदरखाने खींचतान चलती रहती है. इस बात को अजित पवार के एक हालिया ट्वीट के ज़रिए समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को जन्मदिन की बधाई देते हुए एक तस्वीर भी साझा की थी. इस तस्वीर में जूनियर पवार एक गाड़ी चलाते दिख रहे हैं जबकि ठाकरे बगल वाली सीट पर बैठे हैं. जानकारों ने इस तस्वीर को ठाकरे के उस बयान के जवाब के तौर पर देखा है जिसमें उन्होंने कहा था कि महाराष्ट्र सरकार का स्टीयरिंग व्हील उनके हाथ में है.
Best wishes to the Hon. CM of Maharashtra, ShivSena Party President & Maha Vikas Aghadi Leader, Shri. Uddhav Thackeray ji. Wish you a healthy & long life! @OfficeofUT @CMOMaharashtra pic.twitter.com/PlrNgNg508
— Ajit Pawar (@AjitPawarSpeaks) July 26, 2020
लेकिन दोनों दलों के बीच खींचतान का यह इकलौता मामला नहीं है. बीते महीने की शुरुआत में एनसीपी ने अहमदनगर जिले में शिवसेना के पांच म्युंसिपल कॉर्पोरेटरों को ख़ुद में शामिल कर ठाकरे परिवार को बड़ा झटका दिया था. जाहिर तौर पर एक सहयोगी दल द्वारा दूसरे सहयोगी दल के नेताओं के साथ ही जोड़-तोड़ करना किसी को भी चौंका सकता है. फ़िर ऐसा भी नहीं है कि एनसीपी हाईकमान इस सबसे अनभिज्ञ था. बल्कि इन कॉर्पोरेटरों की दल-बदली अजित पवार की मौजूदगी में हुई. हालांकि बाद में इस मुद्दे पर जमकर गहमागहमी होने और शिवसेना के नाराज़गी जताने के बाद इन पांचों कॉर्पोरेटरों ने एनसीपी छोड़कर घर-वापसी तो कर ली, लेकिन जानकार बताते हैं कि इस घटना ने मुख्यमंत्री ठाकरे के मन में एक खटका ज़रूर पैदा कर दिया है जो शायद हमेशा बना रहेगा.
इसी दौरान मुंबई पुलिस के 10 उच्चाधिकारियों का स्थानांतरण भी दोनों दलों की आपसी खटास को जगजाहिर करने वाला ही साबित हुआ. बताया जाता है कि इस फैसले से पहले प्रदेश के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने मुख्यमंत्री ठाकरे की सहमति नहीं ली थी. नतीजतन इस स्थानातंरण प्रक्रिया को आदेश जारी होने के तीन दिन बाद मुख्यमंत्री के इशारे पर रद्द कर दिया गया. सूत्रों के अनुसार ठाकरे ने यह कदम शिवसेना के स्थानीय नेताओं के दवाब में लिया था जो इन पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति से पहले ख़ुद से राय-मशविरा न किए जाने की वजह से नाराज़ थे. इसके तुरंत बाद एनसीपी प्रमुख शरद पवार को मातोश्री का दौरा करना पड़ा था.
इसके अलावा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे पर सहयोगी दलों की मदद लेने के बजाय नौकरशाहों पर ज़्यादा आश्रित होने के आरोप भी लगते रहे हैं. ऐसा ही कुछ तब भी हुआ जब ठाकरे ने महाराष्ट्र में लॉकडाउन को 30 जून से बढ़ाकर 31 जुलाई तक लागू करने का फैसला लिया. कहा जाता है कि इसके लिए ठाकरे ने शरद पवार समेत एनसीपी या कांग्रेस के किसी भी नेता से सलाह नहीं ली थी. तब भी सीनियर पवार ठाकरे से मुलाकात करने मातोश्री गए थे. इसके बाद ‘सामना’ को दिए एक साक्षात्कार में शरद पवार का स्पष्ट तौर पर कहना था कि कोई भी फैसला लेने से पहले उद्धव ठाकरे को अपने सहयोगियों से चर्चा करनी चाहिए. हालांकि इस बातचीत में एनसीपी प्रमुख ने यह भी दावा किया कि महाविकास अघाड़ी सरकार हर हाल में अपना यह कार्यकाल पूरा करेगी.
एनसीपी और शिवसेना के बीच एक बड़ा विवाद इसी साल फरवरी में भी देखने को मिला था. तब मुख्यमंत्री ठाकरे ने एल्गार परिषद की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपने के केंद्र सरकार के फैसले को मंजूरी दे दी थी. जबकि शरद पवार इस मामले की जांच के लिए राज्य में ही विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन करवाना चाहते थे जिसे ठाकरे ने स्वीकृत नहीं किया. पवार शुरुआत से ही भाजपा पर इस मामले में तथ्यों को छिपाने के आरोप लगाते रहे हैं. ग़ौरतलब है कि 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में एल्गार परिषद सभा का आयोजन हुआ था जिसके अगले ही दिन जिले में चर्चित भीमा-कोरेगांव हिंसा भड़क गई थी. पुणे पुलिस ने दावा किया कि उस सभा को माओवादियों का समर्थन हासिल था. बाद में इस मामले में कार्रवाई करते हुए पुलिस ने वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं- सुधीर धावले, रोना विल्सन, सुरेन्द्र गडलिंग, महेश राउत, शोमा सेन, अरुण फरेरा, सुधा भारद्वाज और वरवरा राव को गिरफ्तार किया गया था. हालांकि पहले उद्धव ठाकरे ने भीमा-कोरेगांव हिंसा के लिए एक अलग जांच एनआईए को सौंपने से इन्कार कर दिया था.
महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी की लय कांग्रेस के साथ भी बहुत ज़्यादा मिलती हुई नहीं दिख रही है. हाल ही में शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में कांग्रेस पर हमला बोलते हुए उसकी तुलना एक पुरानी खाट से की थी जो बेवजह चरमराती रहती है. जानकारों का कहना है कि शिवसेना की तरफ़ से ये टिप्पणी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के एक बयान की प्रतिक्रिया में आई थी जिसमें उन्होंने कहा था कि महाराष्ट्र में नौकरशाह महागठबंधन के बीच दरार डालने का काम कर रहे हैं. इससे पहले चव्हाण ने जनवरी में बयान दिया था कि सरकार बनाने से पहले शिवसेना ने कांग्रेस को लिखित में आश्वासन दिया था कि वह संविधान के दायरे में रहकर काम करेगी. विशेषज्ञों के मुताबिक ये बात कहकर पूर्व मुख्यमंत्री ने जाने-अनजाने शिवसेना को कांग्रेस से कमतर साबित करने की कोशिश की थी.
इससे पहले महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ने के सवाल पर कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी भी कह चुके थे कि ‘हम महाराष्ट्र में सरकार को समर्थन कर रहे हैं, लेकिन फैसला लेने की क्षमता में नहीं हैं.’ उनके इस बयान के बाद सूबे में सियासी हलचल तेज हो गई थी. हालांकि बाद में गांधी ने उद्धव ठाकरे के बेटे और राज्य के पर्यावरण एवं पर्यटन मंत्री आदित्य ठाकरे से फोन पर बात कर मामले को संभालने की कोशिश की थी.
वहीं दूसरी तरफ़ एनसीपी की तरफ़ से अजित पवार ने मई में वीडी सावरकर की जयंती पर अपने कार्यालय में उनकी तस्वीर को माला पहनाकर नए विवादों को जन्म दे दिया था. हिंदू राष्ट्रवाद के पैरोकार सावरकर से कांग्रेस का विरोधाभास किसी से नहीं छिपा है. फ़िर इस मामले ने इसलिए भी ज्यादा तूल पकड़ लिया क्योंकि ठीक उन्हीं दिनों में कर्नाटक में कांग्रेस एक पुल का नाम बदलकर वीडी सावरकर के नाम पर रखने के लिए येदियुरप्पा सरकार का भारी विरोध कर रही थी.
इसके अलावा इन तीनों ही दलों की अंदरूनी राजनीति भी महाविकास अघाड़ी सरकार के कार्यकाल पूरा कर पाने से जुड़े संदेह को बढ़ावा देने में बड़ी भूमिका निभाती है. दरअसल उद्धव ठाकरे अपने बेटे आदित्य ठाकरे को राजनीति में स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. यही कारण है कि आदित्य महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण मौकों पर भी वरिष्ठ मंत्रियों के स्थान पर ख़ुद अपने पिता के साथ नज़र आते हैं जबकि एक तरह से वे अभी राजनीति का ककहरा सीख ही रहे हैं. इस बात से सरकार के कुछ काबिल मंत्रियों का असहज होना स्वभाविक है.
कुछ ऐसी ही स्थिति शरद पवार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले की भी है. कुछ जानकारों का यह तक मानना है कि पिछले साल यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी; सुले को केंद्रीय कैबिनेट में उनकी मनचाही जगह देने के लिए राजी हो जाते तो शायद इस समय महाराष्ट्र में भाजपा और एनसीपी के गठबंधन वाली सरकार काबिज होती. जबकि दूसरी तरफ़ शरद पवार के भतीजे अजित पवार हैं जो कथित तौर पर ख़ुद को एनसीपी के अगले वारिस के तौर पर देखते हैं. वहीं कांग्रेस में भी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और पृथ्वीराज चव्हाण समेत कई बड़े गुट बने हुए हैं जो ख़ुद को एक-दूसरे के ऊपर साबित करने के लिए एक अलग ही रस्साकशी में जुटे रहते हैं.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी इन तमाम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कहते हैं कि ‘शिवसेना का एक बड़ा धड़ा अभी भी एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने के फैसले से नाख़ुश है. इस गुट का मानना है कि एनसीपी और कांग्रेस के दवाब में काम करने के बजाय भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाना ज्यादा बेहतर है.’ शिवसेना से जुड़े विश्वसनीय सूत्रों से हुई बातचीत के आधार पर तिवारी आगे जोड़ते हैं, ‘ज़रूरत पड़ने पर शिवसेना भाजपा के साथ जाने के विकल्प पर गंभीरता से विचार कर सकती है. बशर्ते भाजपा आदित्य ठाकरे को उपमुख्यमंत्री बनाने के साथ कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय सेना को देने के लिए तैयार हो जाए.’
बकौल तिवारी कुछ ऐसी ही स्थिति एनसीपी की भी है. ग़ौरतलब है कि हाल ही में शरद पवार ने चीन से विवाद के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के लद्दाख दौरे के फैसले का जमकर समर्थन किया था. इससे पहले भी पवार परिवार अलग-अलग मौकों पर प्रधानमंत्री के लिए अपने नर्म रुख का परिचय देता रहा है. हालांकि कुछ इसे शिवसेना और कांग्रेस पर एनसीपी की दबाव की राजनीति का हिस्सा मानते हैं.
अमिताभ तिवारी कहते हैं कि ‘महाराष्ट्र में सिर्फ़ एक ही गठबंधन संभव नहीं है और वह है भाजपा और कांग्रेस का गठबंधन. इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी ने भी राज्य में किसी भी विकल्प का रास्ता बंद नहीं किया है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘यह सही है कि अजित पवार वाली ग़लती के बाद भाजपा महाराष्ट्र में छाछ को भी फूंक-फूंककर पीना चाहती है. लेकिन यह भी सही है कि वह महाराष्ट्र जैसे संसाधन संपन्न राज्य को ज़्यादा दिनों तक विपक्षी दलों के हाथ में नहीं छोड़ सकती है.’ हाल ही में महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने भी यह बयान देकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दी थीं कि भाजपा शिवसेना के साथ सरकार बनाने के लिए हाथ मिलाने को तैयार है.
यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि यदि कथित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सहयोग मुख्यमंत्री ठाकरे को नहीं मिला होता तो उनकी कुर्सी पर बहुत पहले ही गाज गिर चुकी होती. दरअसल मुख्यमंत्री बनते समय ठाकरे विधानसभा और विधानपरिषद में से किसी के भी सदस्य नहीं थे और पद पर बने रहने के लिए उन्हें छह महीनों के भीतर किसी एक सदन का सदस्य बनना आवश्यक था. लेकिन चुनाव आयोग ने कोविड-19 के चलते किसी भी चुनाव के न होने की घोषणा कर दी थी. अब उद्धव ठाकरे का राजनीतिक भविष्य राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के निर्णय पर आ टिका. लेकिन उन्होंने महाराष्ट्र कैबिनेट के उस प्रस्ताव को अनदेखा कर दिया था जिसमें ठाकरे को विधानपरिषद में मनोनीत करने की बात कही गई थी. इस पर ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की. उसके बाद राज्यपाल कोश्यारी ने चुनाव आयोग को पत्र लिखकर विधान परिषद का चुनाव कराने की अनुमति मांगी जो उन्हें मिल गई. तब कहीं जाकर उद्धव ठाकरे सहित नौ उम्मीदवारों को निर्विरोध महाराष्ट्र विधान परिषद का सदस्य चुना गया था.
मुंबई विद्यापीठ के राजनीति विभाग के एक प्रोफेसर नाम न छापने के आग्रह के साथ इस बारे में कहते हैं, ‘सही मायने में देखा जाए तो शिवसेना का कोई वैचारिक आधार नहीं है. ज़रूरत के हिसाब से वह अपना स्वरूप बदलती रही है. मराठी मानुष के नाम से राजनीति की शुरुआत करने वाला यह दल पहले हिंदुओं का पैरोकार बना और अब अल्पसंख्यकों और हिंदीभाषियों की पैरवी करने लगा है. कोई बड़ी बात नहीं कि शिवसेना जिस तरह ज़रूरत पड़ने पर एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता का सुख भोग रही है, उसी तरह मौका मिलने पर वह दोबारा भाजपा के साथ भी मिल सकती है!’ इन प्रोफेसर के मुताबिक शिवसेना की ही तरह एनसीपी के रुख के बारे में भी तय तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल ही है.
वहीं, कई विश्लेषकों का मानना है कि महाराष्ट्र के राजनीतिक भविष्य को मध्यप्रदेश में 24 सीटों के लिए होने वाले विधानसभा उपचुनाव और राजस्थान में चल रही सियासी खींचतान भी प्रभावित कर सकती है. जानकारों के अनुसार यदि भाजपा मध्यप्रदेश उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने या राजस्थान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गहलोत सरकार को गिराने में सफल हो जाती है तो निश्चित तौर पर महाराष्ट्र में वह खुलकर खेल सकेगी. ऐसे में उसका सबसे आसान निशाना निर्दलीय और छोटे दलों के विधायक होंगे. यदि मौजूदा गणित की बात करें तो 288 सदस्यों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत के लिए 145 सीटें चाहिए. इस समय प्रदेश में भाजपा के विधायकों की संख्या 105 है और निर्दलीय विधायकों की संख्या 13 है. वहीं सूबे में 11 छोटे दलों से 16 विधायक आते हैं.
प्रदेश की राजनीति पर करीब से नज़र रखने वालों के मुताबिक यदि मध्यप्रदेश और राजस्थान में स्थितियां भाजपा के पक्ष में बनती दिखीं तो महाराष्ट्र में भी गठबंधन सरकार के ऐसे कुछ विधायक बड़ा क़दम उठानेे की हिम्मत कर सकते हैं जिन्हें सत्ता में कोई बड़ा पद मिलने की उम्मीद थी. लेकिन तमाम समीकरणों के चलते ऐसा नहीं हो पाया. ऐसे में राजनीतिक विशेषज्ञ आने वाले दिनों में महाराष्ट्र के ग़ैर-भाजपा दलों में बड़ी तोड़-फोड़ की आशंका से इन्कार नहीं करते.
लेकिन इस सब के बीच महाराष्ट्र सरकार के भविष्य को जिस एक और चीज से जोड़ा जा रहा है वह बेहद चौंकाने वाला है. ग़ौरतलब है कि अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या मामले में अब आदित्य ठाकरे का नाम जमकर उछाला जा रहा है. आरोप लग रहे हैं कि सुशांत सिंह की मैनेजर रह चुकी दिशा सालियान ने भी ख़ुदक़ुशी नहीं की थी. उनकी भी हत्या हुई थी. और महाराष्ट्र के जो प्रभावशाली लोग उस अपराध में शामिल थे, वे ही सुशांत सिंह की मौत के लिए भी जिम्मेदार हैं. हालांकि अभी तक माना जा रहा था कि भाजपा और उसके समर्थक कई सप्ताह गुजरने के बाद भी इस मुद्दे को सिर्फ़ इसलिए जोर-शोर से उठाए हुए हैं ताकि बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वे मराठी-बिहारी विवाद को अपने पक्ष में भुनाते हुए लोगों के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़ाव स्थापित कर सकें. लेकिन बीते सप्ताह सुंशात सिंह की आत्महत्या की जांच सीबीआई को देने से इन्कार कर महाराष्ट्र सरकार ने इस मामले से जुड़े तमाम कयासों को ख़ुद ही हवा देने का काम किया है.
फ़िर इस मामले की जांच करने पटना से मुंबई पहुंचे एसपी विनय तिवारी को बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) ने रविवार देर रात जिस तरह से जबरन 14 दिन के लिए क्वारंटीन कर दिया, उसने इस पूरे मामले में एक तरह से उबाल ला दिया. बताया जा रहा है कि क्वारंटीन किए जाने से पहले तिवारी ने इस मामले की जांच कर रहे अधिकारियों से मुलाकात कर जमा किए गए सभी सबूतों की जानकारी ली थी. इस पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार से लेकर पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) गुप्तेश्वर पांडे तक ने नाराज़गी ज़ाहिर की है.
प्रदेश के एक वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक नाम न छापने की शर्त पर इस बारे में अपनी राय रखते हैं, ‘मुंबई की फिल्मी दुनिया का राजनीति और अपराध से पुराना नाता रहा है... इसलिए इन बातों में थोड़ी भी सच्चाई है तो ये ठाकरे परिवार के लिए बहुत बड़ा संकट साबित हो सकता है. उनका वर्तमान और भविष्य सब कुछ उसी (आदित्य ठाकरे) पर केंद्रित है. इस समय केंद्र में गृहमंत्रालय अमित शाह जैसे नेता के हाथ है जो अपनी मन की करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं. राज्य में भी गृहमंत्रालय शिवसेना की बजाय एनसीपी के पास है. किसी भी दल के लिए शिवसेना पर दवाब बनाने का इससे बेहतर मौका और क्या हो सकता है? क्योंकि ठाकरे परिवार के लिए किसी भी सरकार से कहीं ज़्यादा प्राथमिकता इस मुसीबत से निकलने की होगी.’
राजनीति से प्रेरित CBI जाँच की माँग का पर्दाफ़ाश ज़रूर हो रहा है!बिहार की १२ करोड़ जनता की माँग अच्छी स्वास्थ्य सेवा,बाढ़ से पीड़ितों की मदद,करोना से राहत।अगर सरकार ध्यान देगी तो सही मायने में सेवा होगी।
— Priyanka Chaturvedi (@priyankac19) August 1, 2020
सुशांत हम सभी देशवासियों के प्रिय थे,उनकी मौत पर राजनीति करना पाप से कम नहीं https://t.co/tfgu7FqNDH
बहरहाल, महाराष्ट्र में ऐसे जानकारों की भी कमी नहीं जो सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे आदित्य ठाकरे के जुड़ाव जैसे कयासों को कोरी लफ्फाजी मानते हैं. इन जानकारों का यह भी कहना है हाल-फिलहाल महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के महागठबंधन वाली सरकार पर कोई ख़तरा मंडराता नज़र नहीं आता है. ऐसा मानने वाले विश्लेषकों की दलील है कि ये तीनों दल गठबंधन करते समय आपसी वैचारिक दूरी से भली-भांति वाक़िफ़ थे. इसलिए विचारधारा की वजह से गठबंधन में किसी दरार का पैदा होना मुश्किल लगता है. फ़िर अजित पवार के एक बार भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बावजूद शिवसेना और कांग्रेस ने उन पर कुछ सोच-समझकर ही भरोसा जताया होगा. इसमें भी यदि कांग्रेस की बात करें तो हाल-फिलहाल तो उसका लक्ष्य सिर्फ़ भाजपा को सत्ता से दूर रखना है. फ़िर चाहे इसके लिए उसे कोई भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े.
इन विश्लेषकों के मुताबिक यह कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की नई रणनीति हो सकती है जिसके तहत जिन चुनिंदा राज्यों में ग़ैर-भाजपा सरकारें बची हुई हैं वहां बार-बार सरकार को अस्थिर करने के आरोप लगाकर या सरकार गिराने की चुनौती देकर भारतीय जनता पार्टी पर मनोवैज्ञानिक दवाब बनाने की कोशिश की जा रही है. इससे भाजपा की छवि तो प्रभावित होती है साथ ही आम मतदाताओं में भी यह संदेश जाता है कि विपक्ष अभी इतना कमजोर भी नहीं हुआ है. वह अब भी भाजपा को सरकार बनाने और गिराने के उसके पसंदीदा खेल में चुनौती देने का माद्दा रखता है.
महाराष्ट्र के प्रमुख अखबार मुंबई मिरर की असिस्टेंट एडिटर अल्का धुपकर इस बारे में हम से कहती हैं, ‘यूं तो राजनीति संभावनाओं का खेल है. लेकिन हाल-फिलहाल महाराष्ट्र में सरकार के अस्थिर होने की कोई ठोस वजह नज़र नहीं आती है.’ धुपकर के शब्दों में, ‘राष्ट्रीय राजनीति में महाराष्ट्र को यहां के रेवेन्यू सोर्स ही महत्वपूर्ण बनाते हैं. लेकिन कोरोना के चलते स्टेट की इकोनॉमी पर लॉकडाउन लग चुका है जिससे निपटने में समय लगेगा. अभी तो यहां सामान्य से सामान्य व्यवस्थाओं को भी चालू रख पाना एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा है. ऐसे में कौन यहां हाथ डालना चाहेगा!’ ‘फ़िर शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने बहुत बैलेंस होकर पॉवर डिस्ट्रीब्यूशन किया है. ये सही है कि कई बार इन दलों में तनातनी की स्थिति बन जाती है, लेकिन अभी तक ये मिल-बैठकर विवादों को समय रहते सुलझाते आए हैं. फ़िर थोड़ी बहुत खींचतान तो एक ही पार्टी की सरकारों में भी देखने को मिल जाती है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वे सभी गिर ही जाती हैं’ धुपकर आगे जोड़ती हैं.
राजनीतिक विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि महाराष्ट्र में तख्तापलट से पहले भारतीय जनता पार्टी को भी कई चुनौतियों से निपटना होगा जिनमें उसकी अंदरूनी फूट सबसे प्रमुख है. ग़ौरतलब है कि प्रदेश भाजपा में इस समय कई खेमे बने हुए हैं. इनमें से अधिकतर पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के ख़िलाफ़ हैं. जानकारों की मानें तो पंकजा मुंडे, विनोद तावड़े और आशीष शेलार ऐसे नेता माने जाते हैं जिन्हें फडणवीस फूटी आंख नहीं सुहाते. ग़ौरतलब है कि बीती तीन जून को पंकजा मुंडे ने अपने पिता गोपीनाथ मुंडे की याद में अपने पारंपरिक क्षेत्र ‘बीड’ में एक रैली का आयोजन किया था. विश्लेषकों ने इस आयोजन को फडणवीस के ख़िलाफ़ उनके शक्ति प्रदर्शन के तौर पर देखा. इस रैली में भाजपा प्रदेशाध्यक्ष अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल और प्रदेश संगठन के कद्दावर नेता एकनाथ खड़से भी प्रमुखता से नज़र आए थे.
महाराष्ट्र भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि बीते साल तक ये चर्चाएं जोरों पर थीं कि हाईकमान फडणवीस विरोधी सभी नेताओं को दिल्ली बुलाकर प्रदेश में उनका रास्ता साफ करना चाहता है. लेकिन अजित पवार वाले मामले में भारी फजीहत झेलने के बाद पार्टी शीर्ष नेतृत्व फडणवीस से खासा नाख़ुश है. इसलिए प्रदेश संगठन से जुड़े बड़े फैसलों को फिलहाल टाल दिया गया है. ऐसे में यदि महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार किसी कारण से ख़ुद ही लड़खड़ाने लगे तो भी नए मुख्यमंत्री का चयन भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकता है. सूबे में भारतीय जनता पार्टी में मौजूद अंदरूनी विरोधाभास संगठन के दो दिग्गज नेताओं के बयानों से भी समझा सकता है. जैसा कि रिपोर्ट में हमने पहले लिखा है कि भाजपा प्रदेशाध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने सरकार बनाने के लिए शिवसेना से हाथ मिलाने की बात कही थी. लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने तुरंत ही इस बात को ख़ारिज़ करते हुए बयान दे दिया कि अभी तक भाजपा या शिवसेना की तरफ़ से इस तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है. महाराष्ट्र में भाजपा न तो ऑपरेशन लॉटस को अंजाम देने की कोई मंशा रखती है और न ही उसकी कोई दिलसचस्पी मौजूदा सरकार को गिराने में है.
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