मैं अपने कमरे में दाखिल हुई तो अजीब सा नजारा था, बिस्तर के चारों तरफ बिट्टू के कपड़े फैले थे, मेरी आंखें डबडबा गईं. पापा पीछे से आए उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा - ‘वो कपड़ों को रोज धोती है और रोज सुखाती है.’ तभी मम्मी का कमरे में आना हुआ, ‘सारे कपड़े फैले हैं. सूख जाएंगे तो उठाकर संदूक में रख दूंगी. आएगा तो क्या पहनेगा?’ कहती हुई वो कपड़ों को बिस्तर से उठा यहां-वहां कुर्सी मेज पर डालने लगी. मेरे गालों पर एक हाथ रख उसने पूछ ही लिया, ‘शालू कब तक आएगी उसके लिए भी खाना बना लूं.’ मैंने पापा से पूछा, ‘दीदी से कोई बात नही हुई?’

‘नहीं बेटा जब तू अपना नम्बर बदल सकती है तो वो क्यों नहीं?’ तुझे भी तेरे कमरे पर ढूंढ आया था, तू वहां नहीं मिली. शालू के घर भी गए थे पर वो लोग मारपीट पर उतारू हो गए और हमने सब समय पर छोड़ दिया. तुम दोनों भी सोचती होंगी, कितने बुरे मां बाप हैं?’

‘नहीं पापा ऐसा मत कहो मुझे माफ कर दो.’ इन शब्दों के सिवाय मेरे पास कुछ नहीं था, जो मैं बोल पाती. यहां आकर मुझे लग रहा था कि लौटना सुखद होता है.

अगली सुबह दिन निकलते ही, जब छत पर पहुंची तो चारों तरफ़ दो ही तरह के पौधे देखकर मैं हैरान थी. मम्मी को ये शौक कभी नहीं था. मम्मी बेसुध सी उनमें खोई हुई थी. बड़ी मुश्किल से अपने पैर रखने की जगह देखकर, मैंने उनके पास जाकर उन्हें दो बार पुकारा पर उन्होंने मेरी आवाज ना सुनी. मैंने उनके कंधे को पकड़ जोर से हिला दिया, उन्होंने चौंकते हुए मेरी तरफ देखा और बोलने लगीं, ‘तुम्हें अपना कोई पौधा नहीं दूंगी.’

मैंने उनकी बात को आई-गई कर कहा, ‘मुझे पौधा नहीं एक कप चाय चाहिए.’ जामुनी रंग के फूल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया तो मैंने पूछा ‘ये पौधा कौन सा है?’

मम्मी की आंखें चमकने लगीं, वो किसी संवाददाता की तरह बोलने लगीं, ‘ये लक्ष्मणा का पौधा है. पलाश और लक्ष्मणा का पौधा जहां होता है, उस घर से कभी पैसा नहीं जाता.’ इधर आओ कहते हुए उन्होंने मुझे इतनी जोर से खींचा मैं गिरते गिरते बची. फिर एक और पौधा दिखाते हुए कहने लगीं कि ‘श्वेतार्क तुम्हें पता है! अपने आप ही घर में उग गया, अब तुम तैयार हो जाओ मुझे कभी भी खजाना मिल सकता है. आओ न नीचे चलो, तुम्हें पलाश का पेड़ दिखाती हूं.’

फिर एक दिन वह हुआ जो मेरी बर्दाश्त से बाहर था. उस दिन संडे था और पापा घर पर नहीं थे. मैं देर से सोकर उठी थी. मैंने पूजा के कमरे से लेकर छत और बाहर सब छान मारा मम्मी कहीं नजर नहीं आई. उनकी आलमारी खुली थी और कपड़े पूरे कमरे में फैले थे. मिट्टी के जूतों के निशान बाहर के गेट से रसोई की तरफ जा रहे थे. मैं इन निशानों को नहीं पहचानती थी, यह मम्मी की चप्पल नहीं थी, और पापा दो दिन बाद आने वाले थे. यह तो किसी बड़े आदमी के जूते थे.

मेरी सिक्थ सेंस ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कहीं मम्मी? मैं बिना रुके रसोई की तरफ भागी, मम्मी की पीठ मेरी तरफ थी. वो गैस के सामने खड़ी थी और उसने अपने पैरों में किसी आदमी के जूते पहने थे, जो पूरे मट्टी में सने थे. मैं रसोई की गेट पर खड़ी मम्मी से पूछ रही थी, ‘किसके जूते पहने हैं आपने? ये तो पापा के भी नहीं लगते.’ उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा ‘मम्मी किस के जूते पहने हैं?’ और, मेरे चिल्लाने की आवाज, पूरे घर में दौड़ गई. ‘ये क्या किया आपने!’ उनके हाथ में चाकू था और उन्होंने अपने हाथ की दो उंगली काट ली थीं. वह बिना किसी दर्द को महसूस किए मेरे मुंह को दबा, चुप होने की कहने लगीं, ‘चुप हो जाओ, नहीं तो सब को पता चल जाएगा. बाबा सपने में आए थे, उन्होंने कहा कि पड़ोसी के जूते पहनकर अगर सुबह नौ से दस के बीच में, मैं अपनी दो उंगलियां काटकर काली मां को चढ़ा दूंगी, तो हमारे घर में धन की बारिश होगी!’