15 अगस्त 2007 यानी भारत की आजादी के साठ साल पूरे होने के मौके पर मैंने देश के हालात को लेकर हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा था. उन दिनों यह खूब कहा जा रहा था कि भारत एक उभरती हुई विश्वशक्ति है. चीन पहले ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना लोहा मनवा चुका था और कहा जा रहा था कि अब हमारी बारी है. बहुत से लोगों का मानना था कि 21वीं सदी एशिया की सदी होने वाली है. उनकी राय थी कि जिस तरह ग्रेट ब्रिटेन ने 19वीं और अमेरिका ने 20वीं सदी में अर्थ और राजनीतिक जगत पर प्रभुत्व जमाया वैसा ही चीन और भारत भी करेंगे और दुनिया हैरानी और प्रशंसा की दृष्टि से उन्हें देखेगी.

हमारी आसन्न वैश्विक महानता की इन भविष्यवाणियों को करने वाले मुख्यत: दो तरह के लोग थे : मुंबई और बेंगलुरु में बैठे उद्यमी और नई दिल्ली में बैठे संपादक. एक साल पहले ही इन्होंने दावोस में आयोजित होनी वाली विश्व आर्थिक मंच की बैठक में भारत को शानदार तरीके से दुनिया के सामने रखा था. इसमें हमें ‘दुनिया में सबसे तेजी से तरक्की करने वाला लोकतंत्र’ बताया गया था. इस टैगलाइन के आखिरी शब्द में चतुराई से चीन पर तंज किया गया था. कुल मिलाकर अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों को संकेत दिया जा रहा था कि न सिर्फ उनके कर्मचारियों के रहने और काम करने के लिहाज से भारत कहीं बेहतर जगह है बल्कि यहां उन्हें अपने निवेश पर अच्छा रिटर्न भी मिलेगा.
उद्यमी लोग मिजाज से आशावादी होते हैं और कभी-कभी तो यह आशावादिता निरी काल्पनिकता में बदल जाती है. दूसरी तरफ, इतिहासकार स्वभाव से संशयी होते हैं और दोष ढूंढने वाले भी. तो अपने पेशेवर डीएनए के अनुरूप 15 अगस्त 2007 को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे अपने लेख में मैंने कहा था कि दुनिया पर प्रभुत्व जमाने की हमारी महत्वाकांक्षाएं अवास्तविक हैं, हमारे यहां जाति, वर्ग और धर्म की गहरी खाइयां अब भी मौजूद हैं, हमारी संस्थाएं उतनी मजबूत नहीं हैं जितनी उनके बारे में संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी और पर्यावरण को हो रहा व्यापक नुकसान हमारे आर्थिक विकास के टिकाऊपन को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. दावोस और इसके इतर मंचों पर जो कहानी बताई जा रही थी उसमें इन जमीनी सच्चाइयों के लिए कोई जगह न थी. अपने लेख के आखिर में मैंने कहा था कि हमारा देश विश्व शक्ति नहीं बनने वाला है बल्कि भारत बीच में रहेगा जैसा वह हमेशा रहा है.
मुझे मालूम था कि मेरे उद्यमी मित्रों को मेरा यह आकलन निराशावादी लगेगा. ऐसा हुआ भी. लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि 13 साल पहले मैंने जो लिखा था वह भी असल में कुछ ज्यादा ही आशावाद था. देश की आजादी की 60वीं वर्षगांठ से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था आठ फीसदी सालाना की बढ़िया रफ्तार से बढ़ रही थी. कोरोना महामारी से ठीक पहले यह आंकड़ा गिरकर चार फीसदी पर आ चुका था जो अब तो बुरी तरह से नकारात्मक हो चुका होगा.
2006 और 2007 में किए गए दावों का सच जो भी हो, यह तो साफ है कि बीते कुछ सालों से हम दुनिया में ‘सबसे तेजी से तरक्की करता लोकतंत्र’ नहीं हैं. यही नहीं, इस टैगलाइन के आखिर शब्द यानी लोकतंत्र पर भी संदेह के बादल दिनों-दिन बढ़ते दिखते हैं. न हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और न ही कोई आज यह कह सकता है कि भारत में लोकतंत्र अच्छी तरह से चल रहा है. अपने पहले के लेखों में मैं सत्ताधारी पार्टी द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कब्जे का जिक्र कर चुका हूं. इन संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल लगातार बड़े होते जा रहे हैं. इनमें हमारी नौकरशाही, जांच एजेंसियां, सेना, रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग और कुछ हद तक हमारी न्यायपालिका भी शामिल है. गोपनीय चुनावी बॉन्डों और अलग-अलग राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त ने इस स्थिति को और गंभीर किया है. इस बीच मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी सत्ता के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. साहसी और स्वतंत्र विचारों वाले मीडिया का जो थोड़ा सा हिस्सा बचा है, राज्य व्यवस्था की तरफ से उसके लिए पैदा होने वाली परेशानियां बढ़ती जा रही हैं.
2007 की बात करें तो उस समय मैंने भारत के विश्व शक्ति बनने का दावा करने वालों का मजाक तो उड़ाया था. लेकिन तब मैं भारत को लेकर काफी उत्साही भी था. इसका संबंध अर्थव्यवस्था से नहीं बल्कि दूसरी चीजों से था. मैं सधे हुए शब्दों में भारत के लोकतंत्र और खुलकर सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता का सम्मान करने वाली इसकी संस्कृति की तारीफ करता था. उस समय भारत में एक सिख प्रधानमंत्री था जिसे एक मुस्लिम राष्ट्रपति ने शपथ दिलाई थी. हमारे नोटों पर 17 भाषाओं बल्कि कहें तो 17 लिपियों में उनकी कीमत लिखी होती थी. इन सारी बातों को मैं उन आदर्शों की जीत मानता था जो हमारे गणतंत्र की नींव रखने वालों ने तय किए थे.
पीछे मुड़कर देखूं तो 2004 और फिर 2009 के आम चुनाव में भाजपा की हार ने मुझ जैसे उदारवादियों को हिंदुत्व के भविष्य को लेकर अतिआत्मविश्वास से भर दिया था. लेकिन उन पराजयों के बाद भी न तो एक राजनीतिक ताकत और न ही एक शक्तिशाली और अहितकारी विचार के तौर पर हिंदुत्व की ताकत कम हुई. 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के बूते भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बना ली. प्रधानमंत्री के तौर पर उनका पहला कार्यकाल मुख्य तौर पर नोटबंदी जैसे विनाशकारी प्रयोग के लिए याद किया जाएगा जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को कई साल पीछे धकेल दिया. नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और नागरिकता संशोधन कानून जैसे कदमों के लिए याद किया जाएगा जिन्होंने भारत में बहुलतावाद की संस्कृति पर बड़ी चोट की. अर्थव्यवस्था और समाज पर ऐसी और कितनी चोटें पड़नी शेष हैं, यह आने वाले सालों में देखा जाना है.
2007 में भारत को उभरती हुई विश्व शक्ति कहना शायद अपरिपक्वता थी. फिर भी भारत अपनी तरह की सफलता की कहानी तो था ही - एक ऐसे विशाल, जटिल और विविधताओं से भरे देश की कहानी जिसने किसी तरह खुद को संगठित करके एक राज्य व्यवस्था बनाने में सफलता हासिल की, पितृसत्ता और कम साक्षरता वाले एक ऐसे देश की कहानी जिसने दुनिया के इतिहास में लोकतंत्र की सबसे बड़ी कवायद को कई बार सफलता से अंजाम दिया, अकाल और अभाव से सदियों तक जूझते एक देश की कहानी जिसने न सिर्फ करोड़ों लोगों को गरीबी के जाल से बाहर निकाला बल्कि सूचना और जैव तकनीकी जैसे क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया.
अगस्त 2007 में वैश्विक महानता के दावे और पूर्वानुमान अनावश्यक थे. लेकिन उस शांत और शालीन गर्व के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता था जो हमें आजादी के बाद हासिल अपनी असाधारण उपलब्धियों पर था. अब अगस्त 2020 में भारत की किसी तरह की कोई कहानी नहीं है जिसे सुनाया जा सके. कोविड -19 के देश में आने से पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था हांफ रही थी. हमारे लोकतंत्र को काफी तक भ्रष्ट और खस्ताहाल कहा जा रहा था. हमारे अल्पसंख्यक डरे हुए और असुरक्षित थे. यहां तक कि वे उद्यमी भी आशंकाओं से घिरे हुए थे जिन्हें मैं जानता हूं और जो कभी आशावादी हुआ करते थे. उस पर अब महामारी आ गई है जिसने हमारे आर्थिक संकटों, सामाजिक खाइयों और लोकतांत्रिक खामियों को बढ़ाने का ही काम किया है. अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में बरसों लगेंगे. हमारे लोकतंत्र का संस्थागत ताना-बाना और हमारे समाज का बहुलतावादी चरित्र 2014 के बाद से इसे हुए नुकसान से उबर पाएगा या नहीं, यह एक खुला सवाल है.
एक देश के रूप में हमारी ढलान कैसे शुरू हुई और इसके लिए कौन लोग या संस्थान किस तरह से जिम्मेदार रहे, इसका आकलन भविष्य के इतिहासकार करेंगे. मेरी अपनी राय यह है कि हमारे पतन के बीज मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में बोए गए, हालांकि वास्तविक नुकसान मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ है. इस बात पर दो राय हो सकती है, लेकिन यह निश्चित है कि 15 अगस्त 2007 को अपनी आजादी की 60वीं वर्षगांठ मनाते हुए हम कम से कम इस पर बहस कर सकते थे कि क्या हमारा देश अगली विश्व शक्ति बनने की प्रक्रिया में है. 13 साल बाद आज ऐसी बहस अति की सीमा तक हास्यास्पद लगेगी.
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