नेताजी सुभाष चंद्र बोस की ताइवान में वाकई मृत्यु हुई थी या नहीं, इसे लेकर आरंभ से ही विवाद रहा है. समय-समय पर ऐसे दस्तावेज़, वृत्तांत और विश्लेषण सामने आते रहे हैं जो विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के दावे को गलत मानते हैं. अगर इन्हें सही मानें तो भी 18 अगस्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी का अभिन्न अंग बन चुकी है.
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नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अप्रैल 1941 से फरवरी 1943 तक जर्मनी में रहते हुए जर्मन भूमि पर अधिकतम 3,700 भारतीय सैनिकों वाली जिस ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ का गठन किया था, वह भारत-भूमि तक कभी नहीं पहुंची. 1943 में जर्मनी से उनके जापान जाते ही यह फ़ौज अनाथ हो गयी. 8 मई 1945 को जर्मनी द्वारा आत्मसमर्पण करने तक उसके सैनिक यूरोप के कई देशों में बिखर चुके थे.
एक दूसरी आज़ाद हिंद फौज
वे ‘आज़ाद हिंद फ़ौजी’, जो जापानी सेना के सहयोग से, मार्च-अप्रैल 1944 में बर्मा (अब म्यानमार) के साथ वाली भारत की पूर्वी सीमा पार करते हुए त्रिपुरा में इम्फ़ाल और नगालैंड में कोहिमा तक पहुंचे थे, एक दूसरी ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के सैनिक थे. इस दूसरी फ़ौज का गठन जापान में 1915 से ही रह रहे और वहां के नागरिक बन गये रासबिहारी बोस और मलाया (अब मलेशिया) में तैनात ब्रिटिश सेना की पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहन सिंह ने किया था. इसमें मुख्य योगदान कैप्टन मोहन सिंह का ही था. उन्होंने 1942 में सिंगापुर में इसका गठन अंग्रेज़ों वाली भारतीय सेना के भगोड़ों और जापान द्वारा दक्षिणपूर्वी एशिया में बंदी बना लिये गये 30,000 भारतीय युद्धबंदियों को मिला कर किया गया था. नेताजी सुभाषचंद बोस ही इस सेना के भी सर्वोच्च कमांडर थे.
उस समय भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भी जापानियों के हाथ में थे, जिन्हें उन्होंने 1943 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार को सौंप दिया था. 30 दिसंबर 1943 के दिन नेताजी ने वहां पहली बार भारत का राष्ट्रीय तिरंगा झंडा फहराया था.
सैन्य इतिहास में पहली बार नेताजी बोस की इस वाली आज़ाद हिंद फौज में एक महिला ब्रिगेड भी थी. ‘रानी झांसी’ कहलाने वाली इस ब्रिगेड की कैप्टन लक्ष्मी सहगल के साथ एक इंटरव्यू काफ़ी दिलचस्प है, जो उन्होंने मुझे 2005 में नयी दिल्ली में दिया थाः
कैप्टन लक्ष्मी सहगल
‘’सिंगापुर में रहने वाले भारतीय और वहां तैनात ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिक या तो अंग्रेज़ों से इतना दबते या फिर डरते थे कि किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे. उनकी सोच तब बदली, जब 8 दिसंबर 1941 को जापानियों ने वहां हमला कर दिया और जनवरी 1942 में मलाया के पतन के बाद, 15 फ़रवरी 1942 तक, सिंगापुर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया. जापानी हमले के समय सैनिक तो वहां बहुत थे - भारतीय, ऑस्ट्रेलियन, अंग्रेज़ - लेकिन, अंग्रेज़ खुद लड़ने के बदले भारतीयों को आगे कर देते थे, और भारतीय भाग खड़े होते थे. सोचते थे, अंग्रेज़ों की जान बचाने के लिए हम क्यों मरें!’’
‘’जापानी अपने हवाई जहाज़ों से बमों के अलावा पर्चे भी गिराते थे. पर्चे अंग्रेज़ी, हिंदुस्तानी और तमिल जैसी भषाओं में भी होते थे. उनमें भारतीय सैनिकों से कहा गया होता था कि तुम अंग्रेज़ों के गुलाम रहकर कब तक उनके लिए लड़ते रहोगे! अपने हथियार डाल दो! हमारे साथ आ जाओ! तुम्हारे देश को आज़ादी दिलाने में हम तुम्हारी मदद करेंगे. अकेले सिंगापुर में क़रीब 85,000 ब्रिटिश सैनिक थे. उनमें से 45,000 भारतीय थे.’’
‘’पहले तो वे स्वामिभक्त बने रहे. सिंगापुर में जब तक लड़ाई चलती रही और अंग्रेजों ने हार नहीं मानी, तब तक किसी ने पहलू नहीं बदला. स्थिति तब बदल गई, जब जापानियों ने मलाया में तैनात पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहन सिंह की पूरी रेजिमेंट को घेर लिया. जान बचाने का कोई रास्ता नहीं बचा. तब, मोहन सिंह ने कहा, हम आत्मसमर्पण के लिए तैयार हैं, पर तुम्हारा साथ नहीं देंगे. जापानी ऐसे थे कि जैसे ही किसी अंग्रेज़ को देखते थे, चाहे वह अफ़सर था या जवान, उसका सिर काट देते थे!’’
‘’मोहन सिंह अपने 8-10 अंग्रेज़ कमांडिंग अफ़सरों को इस तरह मारे जाने से बचाना चाहते थे. अंत में 15 फरवरी 1942 को, ब्रिटिश सैनिकों ने जब आत्मसमर्पण किया, तब जापानियों ने अंग्रेज़ों से कहा कि आप भारतीय सैनिकों को अपनी पांत से अलग कर दें. हम उनका आत्मसमर्पण स्वीकार करेंगे, आपका नहीं. भारतीय सैनिक यह सुन कर घबराने लगे कि अंग्रेज़ों से अलग कर दिए जाने के बाद पता नहीं हमारे साथ क्या होगा! यहीं से अंग्रेज़ों के प्रति घृणा शुरू हुई कि जान देने के लिए तो वे हिंदुस्तानियों को आगे कर देते हैं, जान बचाने के वक्त खुद आगे हो लेते हैं.’’
जापानियों ने 40,000 भारतीय युद्धबंदी सौंपे
बताया जाता है कि जापानी सेना के मेजर फुजीहारा और उनके भारतीय दुभाषिए ज्ञानी प्रीतम सिंह ने कैप्टन मोहन सिंह को समझाया कि दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटिश सेना के जो भारतीय सैनिक युद्धबंदी बनाए गए हैं, उन्हें साथ लेकर वे एक अलग भारतीय सेना खड़ी करें. मोहन सिंह पहले तो झिझक रहे थे, किंतु अंत में मान गए. फुजीहारा ने उन्हें 40,000 भारतीय युद्धबंदी सौंपे. वे ही भावी ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ का अंकुर बने.
कैप्टन लक्ष्मी सहगल का कहना था,’’आत्मसमर्पण के कुछ दिन बाद कैप्टन मोहन सिंह ने युद्धबंदी भारतीय सैनिकों और अफ़सरों की एक सभा बुलाई. कहा कि हमें जापानियों के ही साथ जाना चाहिए. अंग्रेज़ों की भला कब तक गुलामी करेंगे. बहादुरी के साथ लड़ते-मरते हम हैं, बेहतर वेतन-सुविधाएं वे पाते हैं. सभा में रासबिहारी बोस की भी चर्चा हुई. जापान में और भी कई भारतीय थे. मंचूरिया में भी 8-10 लोग थे. इस सभा में भी आए थे.’’
60-70 हजार आज़ाद हिंद फ़ौजी
कैप्टन लक्ष्मी सहगल के अनुसार, ‘’कैप्टन मोहन सिंह शायद नहीं जानते थे कि नेताजी जर्मनी में क्या कर रहे हैं. मोहन सिंह ने सिंगापुर वाली सभा में कहा कि वे दक्षिणपूर्वी एशिया में जापान के सभी भारतीय युद्धबंदियों को मिलाकर एक आज़ाद हिद फ़ौज बनाएंगे. क़रीब 60-70 हजार सैनिक जमा भी कर लिए. जापानी उन्हें टोक्यो भी ले गए. वहां के प्रधानमंत्री से भी मिलाया. यह सब तो किया, लेकिन लिखकर यह कभी नहीं दिया कि हम आपको एक आज़ाद फ़ौज मानते हैं.’’
‘’मोहन सिंह और उनके साथी लिखित आश्वासन चाहते थे कि जापानी भारत की आज़ादी को स्वीकार करेंगे; यह नहीं कि अंग्रेज़ों को भगा कर वे भारत पर अपना राज थोप देंगे. किंतु जापानियों ने ऐसा लिख कर नहीं दिया. फरवरी 1942 से चल कर सितंबर-अक्टूबर आने तक मोहन सिंह कहने लगे कि मुझे तो लगता है कि जापानी भी हमें धोखा ही देंगे. हमें इस्तेमाल करेंगे, कुछ देंगे नहीं. इनसे नाता तोड़ लेना ही बेहतर है. पर, उनकी सेना के ज़्यादातर लोग इससे सहमत नहीं थे. कह रहे थे, अभी-अभी हमने अंग्रेज़ों का साथ छोड़ा है. अब यदि जापानियों का भी साथ छोड़ देंगे, तो न इधर के रहेंगे और न उधर के.’’

नेताजी के पैरों में छाले पड़े
1945 की 7-8 मई के बीच वाली जिस रात को बर्लिन में जर्मन सेना आत्मसमर्पण कर रही थी, ठीक उसी समय नेताजी सुभाष चंद्र की इस दूसरी एशियाई ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के सैनिक बर्मा में अपनी पराजय के बाद दो सप्ताह के पैदल मार्च के उपरान्त थाइलैंड की राजधानी बैंकॉक की ओर बढ़ रहे थे. वे थक कर चूर-चूर थे. नेताजी बोस के पैरों के तलवों में तो छाले तक पड़ गये थे. ख़ून बह रहा था. जापानियों के कहने पर उन्हें अपने फ़ौजियों के साथ बर्मा से पीछे हटना पड़ा था. इसलिए, क्योंकि 1945 का मई महीना आने तक बर्मा पर ब्रिटिश सेना का दुबारा क़ब्ज़ा हो गया था. यूरोप में तो द्वितीय विश्वयुद्ध का आठ मई की सुबह होते ही अंत हो गया था. किंतु एशिया में वह अब भी चल रहा था. जापानियों पर चौतरफ़ा मार पड़ रही थी.
नेताजी बोस 14 मई 1945 के दिन बैंकॉक पहुंचे. शहर से कुछ किलोमीटर बाहर, जापान की ओर से मान्यता प्राप्त उनकी ‘अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार’ का सैनिक-कमान कार्यालय था. उन्हें बैंकॉक में रहने वाले एक भारतीय ने अपने घर में ठहराया. वहां कुछेक ‘अतिआवश्यक काम’ निपटाने के बाद नेताजी दस दिनों के ‘एकांतवास’ के लिए ग़ायब हो गये! कोई उनसे मिलजुल नहीं सकता था. समझा जाता है कि इस एकांतवास के समय उन्होंने अपनी अगली रणनीति पर गहन चिंचन-मनन किया.
भाग्य एक बार फिर धोखा देता दिखा
जिस जर्मनी की सहायता से वे भारत की स्वतंत्रता का सशस्त्र संग्राम छेड़ना चाहते थे, मई में उसकी राजधानी बर्लिन पर सोवियत लाल झंडा फ़हरा रहा था. जिस जापान के बल पर उन्हें भारत-भूमि बिल्कुल सामने दिख रही थी, उसे भी अपनी जान के लाले पड़ गये थे. अमेरिकी विमानों की भीषण बमबारी से, 27 मार्च को, अकेले टोक्यो में एक लाख से अधिक प्राण जा चुके थे. भाग्य एक बार फिर नेताजी को धोखा देता दिख रहा था. उनके कानों तक हर दिन किसी न किसी अनिष्ट की ख़बरें पहुंच रही थीं. उन्हे आभास हो गया था कि अब जापान के आत्मसर्मपण में भी देर नहीं है. एक बार फिर कोई नयी नाव तलाशनी होगी.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी के जापानी लेखक काज़ुनेरी कुनिजूका ने अपनी पुस्तक ‘रेनबो अक्रॉस दि इन्डियन ओशन’ (हिंद महासागर पर इंद्रधनुष) में लिखा है, ‘’नेताजी को विश्वास हो चला था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व दो खेमों में बंट जायेगा. एक का नेता अमेरिका होगा, दूसरे का सोवियत रूस.’’ नवंबर 1944 में जब वे टोक्यो में थे, तभी जापानी विदेश मंत्रालय के सहयोग से रूसियों के साथ बातचीत चलाना चाहते थे. जापानियों ने जब इसमे कोई रुचि नहीं ली, तो उन्होंने टोक्यो में सोवियत राजदूत को एक सीलबंद पत्र दिया जिसे सोवियत राजदूत ने खोले बिना ही लौटा दिया.
नोताजी का सोवियत मोह
कुनिजूका का कहना है, ‘’बर्मा से लौटते ही बोस सबसे पहले अपनी अस्थायी सरकार का मुख्यालय उत्तरी चीन में मंगोलिया के पास कलागन में स्थानांतरित करना चाहते थे, क्योंकि वहां से सोवियत अधिकारियों के साथ संपर्क करना आसान होता... उनकी दूसरी वैकल्पिक योजना थी आज़ाद हिंद फ़ौज के मुख्य फ़ौजियों के साथ थाइलैंड, हिंदचीन (वियतनाम कंबोडिया और लाओस) और दक्षिणी चीन के रास्ते से चीन के कम्युनिस्टों द्वारा नियंत्रित भाग में प्रवेश करना. इस संदर्भ में भी वे जापान से परिवहन और ट्रांज़िट सुविधा की अपेक्षा कर रहे थे.’’
1941 में जर्मनी जाने से पहले नेताजी बोस वास्तव में सोवियत रूस में ही रहना चाहते थे. लेकिन, स्टालिन के रूखेपन के कारण उन्हें मॉस्को से बर्लिन जाना पड़ा. बर्लिन में भी ढाई वर्ष बिताने के बाद जब उन्हें निराशा ही हाथ लगी, तो वे टोक्यो पहुंचे. अब, जब जापानी नाव भी डूबती दिख रही थी, तो वे एक बार फिर रूस जाने की सोच रहे थे. किंतु जापान और सोवियत रूस उस समय एक-दूसरे के परस्पर विरोधी खेमों में थे. तब भी, जापान की गोद में बैठ कर वे रूसियों की तरफ़ इस तरह हाथ बढ़ा रहे थे.
वे यहां तक चले गये कि 1945 की गर्मियों में उन्होंने जापानी ‘जनरल हेडक्वार्टर’ को एक गुप्त तार (टेलीग्राम) भेजते हुए लिखा, ‘’टोक्यो तथा अन्य शहरों पर महाविनाशक अंधाधुंध बमबारी के चलते जापान पूर्ण विनाश के कगार पर पहुंच गया है... अतः युद्ध का अंत करने के लिए राजनयिक रास्तों से तुरंत वार्ताएं शुरू करने की ज़रूरत है... सोवियत सरकार को शांति-स्थापना की मध्यस्थता करने के लिए मनाने के विचार से देश के उत्कृष्ट नेताओं का एक मिशन मॉस्को भेजा जाये.’’
रूस के प्रति लगाव से जापानियों के साथ मनमुटाव
कहने की आवश्यकता नहीं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का रूस के प्रति यह लगाव जापानियों के मन में दुराव पैदा कर रहा था. जापानियों ने सुझाव दिया कि वे पहले अपनी सरकार और सेना का मुख्यालय बैंकॉक से हटा कर सैगॉन (अब हो-ची मिन्ह सिटी जो वियतनाम का सबसे बड़ा शहर है) में बनायें. सैगॉन ही उन दिनों जापान-अधिकृत हिंन्दचीन (वियतनाम, कंबोडिया और लाओस) की राजधानी था. किंतु नेताजी ऐसी किसी जगह पर रहना चाहते थे, जहां से रूसियों के संपर्क में रह सकें.
बर्मा छोड़ने के बाद नेताजी के ‘आज़ाद हिंद फ़ौजियों’ की संख्या काफ़ी घट गयी थी. तब भी मलाया (मलेशिया) में उनके पास एक डिविजन हथियारबंद और दो डिविजन हथियार-हीन सैनिक बचे हुए थे. जापानियों को सोवियत रूस के प्रति नेताजी का झुकाव ही शंकित नहीं करता था. जापान को यह डर भी लगा रहता था कि नेताजी के सैनिकों की तीन डिविजनें संभावित जापानी आत्मसमर्पण की राह का कहीं रोड़ा न बन जायें. जून 1945 के मध्य में नेताजी अपने सैनिकों से मिलने मलाया और सिंगापुर गये.
सिंगापुर में जापानी शाही सेना के मुख्यालय से आये कर्नल ताकामूरा ने नेताजी से लंबी बातचीत के बाद उन्हें अपने सैनिकों के साथ सैगॉन जाने के लिए मना लिया. लेकिन, नेताजी क्योंकि सैगॉन जाने के कतई इच्छुक नहीं थे, इसलिए वे जुलाई 1945 के मध्य में सिंगापुर से कोई 150 किलोमीटर दूर, मलाया की भूमि पर स्थित ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के सेरेम्बान प्रशिक्षण शिविर में पहुंच गये और लंबे समय तक वहीं रहे. यह जापानियों के साथ उनकी बढ़ती दूरी का एक और मूक संकेत था.
जुलाई के अंत में सेरेम्बान में ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कई बैठकें कीं. वहां लंबे समय तक उनके रहने के पीछे तुक क्या था, इसे कोई नहीं जानता. बाद की घटनाओं के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि वहां रह कर वे युद्ध में जापानी हार और उसके आत्मसमर्पण की प्रतीक्षा करना चाहते थे. ऐसी कोई ख़बर मिलते ही वे अपने मंत्रियों के साथ मंत्रणा के बाद संभवतः रूस या कहीं और जाने का निर्णय करते. वे यह भी जानते थे कि ब्रिटिश सरकार उन्हें अपना नंबर एक शत्रु मानती है. उसके जासूस उन्हें दुनिया के हर कोने में ढूंढ रहे हैं. हो सकता है, उन्हें युद्ध अपराधी घोषित कर दिया जाये. उस समय की परिस्थितियों में सोवियत रूस या चीन जैसे किसी देश में छिप कर ही वे अपनी संभावित गिरफ्तारी और असह्य यातना से बच सकते थे.
अमेरिकी परमाणु बम, रूसी आक्रमण
नेताजी बोस उस समय भी सेरेम्बान में ही थे, जब अमेरिका ने छह अगस्त 1945 को जापानी शहर हिरोशिमा पर पहला, और तीन दिन बाद नागासाकी पर दूसरा प्रलयंकारी परमाणु बम गिराया था. दूसरे बम के दिन ही सोवियत रूस ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए उत्तर की दिशा से उस पर आक्रमण कर दिया. नेताजी को रूसी आक्रमण का समाचार 10 अगस्त की रात सेरेम्बान में ही मिला. समाचार दिया मलाया की राजधानी कुआलालंम्पुर से टेलीफ़ोन द्वारा कर्नल इनायत कियानी ने. कियानी को यह ख़बर सिंगापुर में अपने चाचा, मेजर जनरल मोहम्मद ज़मान कियानी से मिली थी. वे वहां ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के सबसे वरिष्ठ कमांडर थे.
नौ अगस्त से नेताजी को जापानी शाही सेना के मुख्यालय से भी बार-बार निर्देश मिल रहा था कि वे जापानी सेना के दक्षिणपूर्व एशियाई मुख्यालय सैगॉन पहुंचें. वहा उन्हें नवीनतम घटनाक्रम से अवगत कराया जायेगा. 11 अगस्त की शाम मेजर जनरल कियानी ने नेताजी से टेलीफ़ोन पर अनुरोध किया कि वे सिंगापुर लौट जायें, पर रात में यात्रा न करें. नेताजी उस समय तक जापानियों से काफ़ी ऊब चुके थे. उन्होंने उस समय अपने पास के लोगों से कहा, ‘’क्या हुआ अगर रूस ने युद्ध घोषित कर दिया? इससे हमें क्या फ़र्क पड़ता है? हमें तो आगे बढ़ते रहना है, चाहे जो हो जाये. मैं तब तक कहीं नहीं जा सकता, जब तक यहां अपना काम पूरा नहीं कर लेता.’’

जापानी आत्मसमर्पण की प्रतीक्षा
सेरेम्बान में नेताजी के पास उसी रात एक और फ़ोन आया. उन्हें बताया गया कि रासबिहारी बोस की ‘इन्डिया इन्डिपेन्स लीग’ के दो प्रमुख पदाधिकारी मलक्का से तुरंत उनके पास आ रहे हैं. दोनों रात दो बजे सेरेम्बान पहुंचे. उन्होंने नेताजी को बताया कि जापान ने मित्र राष्ट्रों (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ) की उच्च कमान से कहा है कि वह आत्मसमर्पण करना चाहता है. नेताजी पिछले चार सप्ताहों से इसी समाचार की प्रतीक्षा कर रहे थे, ताकि कोई अगला निर्णय ले सकें. पूरी रात वे अपने सहयोगियों से परामर्श करते रहे. तय हुआ कि वे अगले दिन, 12 अगस्त 1945 की सुबह साढ़े चार बजे सिंगापुर जायेंगे. सुबह सात बजे वे चले और उसी शाम सात बजे सिंगापुर में अपने निवास पर पहुंचे. वहां ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के तथा उनकी सरकार के अन्य पदाधिकारी भी जमा हुए थे. तीन दिनों तक उनकी बैठक चली.
इस बैठक में ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के आत्मसमर्पण से लेकर आज़ाद हिंद आन्दोलन का अन्त करने जैसे कई निर्णय लिये गए. सिंगापुर और उसके आस-पास कार्यरत 23 हज़ार फ़ौजियों को सेवामुक्त कर दिया गया. सारे महत्वपूर्ण कार्य निपटाने के बाद अब प्रश्न था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस अब क्या करेंगे? आम राय यही थी कि उन्हें सिंगापुर छोड़ कर चले जाना चाहिये, क्योंकि वहां वे किसी भी समय मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के हाथों गिरफ़्तार हो सकते हैं.
मंत्रियों के साथ बैठक
केवल नेताजी स्वयं इस राय से सहमत नहीं थे. 14 अगस्त की शाम दांतों के एक डॉक्टर ने ने दर्द कर रहा उनका एक दांत निकाला. काफ़ी ख़ून बह रहा था. डॉक्टर ने बिस्तर में लेटे रहने की सलाह दी. 15 अगस्त के तीसरे पहर सामाचार आया कि जापान ने हार मान ली है. आत्मसमर्पण की तैयारी की जा रही है. यह समाचार मिलते ही नेताजी और उनके मंत्रियों की बैठक जो शुरू हुई, तो 16 अगस्त की शाम तक चलती रही. इस बैठक में कही उनकी बातों का सार, उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके साथ रहे, कर्नल हबीबुर रहमान ने इन शब्दों में बयान कियाः
‘’दोस्तों, अपूर्व संकट की इस घड़ी में मुझे केवल एक बात कहनी हैः इस समय की अपनी असफलता से दुखी मत होओ. ख़ुश रहो और अपना मनोबल बनाये रखो. सबसे बड़ी बात है कि भारत के भाग्य के प्रति अपने विश्वास को क्षण भर के लिए भी कभी डिगने मत देना.
आने वाली परीक्षाओं और संकटों का सम्मानपूर्वक सामना करना, ताकि दूरपूर्व के हमारे संघर्ष की कहानी देशवासियों के सामने सही परिप्रेक्ष्य में रखी जाये. यदि तुम इस मिशन में सफल रहे, तो पूरा देश एक ऐसे उत्साह से अनुप्राणित हो जायेगा, जो भारत में विदेशी शासन की जड़ें हिला कर रख देगा. संसार की कोई सत्ता भारतीय जनता को पराधीनता की बेड़ियों में अब और अधिक जकड़े नहीं रख सकती. भावी कठिन घड़ियों में मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.’’
अपने मंत्रियों-सहयोगियों के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अंतिम बैठक 16 अगस्त 1945 की सुबह तीन बजे तक चलती रही. इसके बाद सबने बैंकॉक रवाना होने के लिए झटपट अपने-अपने सामान बांधे. नेताजी सुबह नौ बजे कर्नल हबीबुर रहमान, कर्नल प्रीतम सिंह, एएस अय्यर और जापानी दुभाषिये तादामोतो नागीशी के साथ बैंकॉक के लिए रवाना हुए. वहां पहुंचे तीसरे पहर साढ़े तीन बजे. पांचों जने, अगले दिन, यानी 17 अगस्त को सुबह आठ बजे, विमान से सैगॉन के लिए उड़े. साथ के एक दूसरे विमान में जापानी राजदूत और जापानी सेना के कुछ अधिकारी थे. दोनों विमान क़रीब 10 बजे सैगॉन के हवाई अड्डे पर उतरे. सैगॉन की सड़कें वीरान-सुनसान थीं. घरों के खिड़की-दरवाज़े बंद थे. अफ़वाह थी कि वहां उतरे फ्रांसीसी सैनिक ख़ून की होलियां खेल रहे हैं.
जापानी राजदूत और उनके साथ के लोग सैगॉन से दालात नामके एक सैनिक अड्डे की दिशा में उड़ गये. वहां उन्हें जापान की दक्षिणी कमान के सर्वोच्च कमांडर, फ़ील्ड मार्शल तेराऊची से मिलना था. नेताजी के बारे में जापानी विदेश मंत्रालय की पुस्तक ‘ सुभाष चंद्र बोस ऐन्ड जापान’ के एक उद्धरण के अनुसार, जापानी सरकार रूस या उत्तरी चीन जाने की उनकी इच्छा से बहुत नाराज़ थी और विदेश मंत्रालय ने फ़ील्ड मार्शल तेराऊची को लिखा था, ‘’बोस का इस अवस्था में जापान का साथ छोड़ कर रूस जाने की सोचना और उन्हें मिली भारी सहायता को भुला देना बहुत ही क्षोभजनक है.’’
विमान में नेताजी के नाम केवल एक सीट
जापानी अधिकारी दालात से जब तक लौटते, नेताजी और उनके साथ के लोगों को तब तक सैगॉन में ही रहना था. वे वहां रासबिहारी बोस की ‘इन्डियन इन्डिपेन्स लीग’ के स्थानीय नेता नारायण दास के घर ठहरे हुए थे. उनके वहां पहुंचते ही ‘कियानो’ नाम का एक जापानी संपर्क-अधिकारी भी कार से वहां पहुंचा और नेताजी से तुरंत मिलने की मांग करने लगा. नेताजी उससे नहीं मिले. उनके बदले जर्मनी वाले दिनों से ही उनके साथ रहे आबिद हसन ने ‘कियानो’ से बात की और नेताजी को बताया कि एक विमान उन्हें लेकर उड़ने के लिए तैयार है. लेकिन उसमें उनके नाम केवल एक ही सीट है.
नेताजी ने पूछा - ‘’विमान कहां जा रहा है?’’
आबिद हसन ने कहा - ‘’मुझे नहीं मालूम. मिस्टर कियानो को भी नहीं मालूम है.’’
नेताजी झुंझलाते हुए बोले - ‘’उससे कहो, वापस जाये और किसी ऐसे व्यक्ति को भेजे, जिसे पता हो.’’
आबिद हसन - ‘’जापानी कह रहे हैं कि हम ज़रा-सी भी देर नहीं कर सकते.’’
नेताजी - ‘’जब तक मुझे नहीं मालूम है कि विमान कहां जायेगा, मैं कहीं नहीं जाता. उससे कहो, वापस जाये और किसी ऐसे को भेजे, जिसे विमान के बारे में सब पता हो.’’
‘’तुरंत एक ज़रूरी निर्णय लेना है’’
कोई नहीं जानता कि कियानो कौन था और किसके कहने पर आया था. लेकिन उसके जाने के आधे घंटे बाद बैंकॉक में जापानी राजदूत हाचिया और उनके साथ का सैनिक अधिकारी इसोदा, नेताजी से मिलने के लिए नारायण दास के घर पहुंचे. वहां बंद दरवाज़ों के पीछे दोनों ने नेताजी और कर्नल हबीबुर रहमान के साथ जल्दी में कुछ बातें कीं. उन दोनों के जाने के बाद नेताजी ने अपने साथ के लोगों को बुला कर कहा - देखिये, अगले कुछ ही मिनटों में एक हवाई जहाज़ उड़ने वाला है. हमें अभी, तुरंत एक ज़रूरी निर्णय लेना है. जापानी कह रहे हैं कि हवाई जहाज़ में केवल एक ही सीट ख़ाली है. हमें क्षण भर में तय करना है कि क्या मैं तब भी जाऊं, जब मुझे अकेले ही जाना पड़े? मैं एक और सीट पाने की पूरी कोशिश कर रहा हूं. लेकिन, आशा नहीं के बराबर ही है. क्या हम इस एक सीट को स्वीकार कर लें और मैं अकेले ही जाऊं?
स्थिति की गंभीरता ने सबको अवाक कर दिया. कोई कुछ नहीं बोला. यह तक नहीं पूछा कि विमान जायेगा कहां! उस समय वहां उपस्थित उनके निकट सहयोगी एएस अय्यर ने लिखा है,’’न तो हमने पूछा और न उन्होंने हमें बताया. लेकिन हम जानते थे और वे भी जानते थे कि विमान मंचूरिया जायेगा. हमने उनसे इतना ही कहा - जापानियों से आग्रह कीजिये कि वे आपको एक और सीट दे दें. यदि वे तब भी नहीं देते, तो आप अकेले ही जाइये.’’
एक और सीट सीट मिल गयी
जापानी एक और सीट देना मान गये. नेताजी ने कर्नल हबीबुर रहमान को अपने साथ चलने के लिए चुना. दोनों जब सैगॉन हवाई अड्डे पर पहुंचे, तो विमान के इंजन चल रहे थे. वह एक घंटे से प्रतीक्षा कर रहा था. कुछ जापानी अधिकारियों को भी उसी विमान से जाना था. उनमें से एक, लेफ्टिनेनंट जनरल शीदेई को फ़ील्ड मार्शल तेराऊची ने भेजा था. शीदेई को मंचूरिया में, जो उन दिनों जापानी क़ब्ज़े में था, जापानी सैनिकों के आत्मसमर्पण की औपचारिकताएं पूरी करनी थीं.
वह दो इंजनों वाला एक बमवर्षक विमान था. इसे विधि का विडंबनापूर्ण विधान ही कहेंगे कि सैगॉन जाने के अनिच्छुक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाटकीय जीवन की कथित ‘अंतिम यात्रा’ उसी सैगॉन से ही शुरू हुई, जहां पांच दिन पहले तक वे कतई नहीं जाना चाहते थे. वह शुक्रवार,17 अगस्त 1945 का दिन था. स्थानीय समय के अनुसार शाम के सवा पांच बजे थे. विमान को पहले फ़ार्मेसा (अब ताइवान) के ताइपेइ हवाई अड्डे पर पहुंचना था.
नेताजी जब अपने एक सबसे भरोसेमंद सहयोगी कर्नल हबीबुर रहमान के साथ हवाई अड्डे पर पहुंचे तो उनके कहने पर दो और विश्वासपात्र, गुलज़ारा सिंह और एएस अय्यर भी अपने सामान सहित वहां मौजूद थे. विमान में यदि दो और सीटों की गुंजाइश निकल आती, तो वे भी साथ में जाते. पर, यह गुंजाइश नहीं निकली. अतः नेताजी सुभाष चंद्र बोस और कर्नल हबीबुर रहमान ही विमान में चढ़े. जापानी यात्री पहले से ही विमान में बैठे हुए थे. विमान जैसे ही चला, एक भारतीय विमान की तरफ़ दौड़ता हुआ आया. वह विमान चालक और नेताजी को रुक जाने का इशारा करने लगा. बोला, ‘’पूर्वी एशिया में रहने वाले 30 लाख भारतीयों की तरफ़ से अंतिम भेंट आ रही है, रुक जायें...’’ दो भारी सूटकेस आये. उन्हें विमान में चढ़ाया गया. इस सब में 15 मिनट और लग गये.
बमवर्षक होने के कारण विमान में केवल सात लोगों के बैठने की जगह थी. उसमें छह तोपें लगी हुई थीं और 60 किलो तक के एक दर्जन बम रखे जा सकते थे. विमान की युद्ध में अच्छी ख़ासी घिसाई हो चुकी थी, हालांकि जापानी विदेश मंत्रालय की पुस्तक ‘ सुभाष चंद्र बोस ऐन्ड जापान’ के अनुसार विमान एक महीना पहले ही सेवारत किया गया था. लेकिन उसका रखरखाव बहुत अच्छा नहीं था. उड़ान भरते समय उसमें अनुमति से एक टन अधिक बोझ लदा था. दो ही दिन पहले युद्ध हार जाने और आत्मसर्पण की अफ़रातफ़री के कारण जापानी किसी दूसरे उचित विमान का प्रबंध नहीं कर पाये थे.

मंचूरिया जाने का मन नेताजी का भी था
नेताजी खुद भी मंचूरिया जाना चाहते थे. वह सोवियत रूस के निकट था और उस समय जापानी क़ब्ज़े में भी था. इसलिए विमान का उड़ानमार्ग इस तरह चुना गया कि वह पहले दाइरेन जाता. उसके बाद जापानी मंचूरिया की राजधानी चांगचुन पहुंचता. रास्ते में रात्रिकालीन विश्राम के लिए वह पहले वियतनामी भूमि पर जापानी सैनिक अड्डे ‘तौउरान’ पर उतरा. वहां उसका बोझ हल्का करने के लिए विमान के कर्मीदल ने उस पर लगी तोपें हटा दीं. अगले दिन, 18 अगस्त 1945 की सुबह विमान ‘तौउरान’ से ताइपेइ की 2222 किलोमीटर की अगली यात्रा के लिए उड़ा और सुरक्षित वहां पहुंच भी गया.
चालक प्रसन्न थे कि विमान में कोई गड़बड़ी नहीं हुई. विमान ताइपेइ की शुंगशान हवाई पट्टी पर खड़ा था. दोपहर के 12 बजे थे. नेताजी ने वहीं एक कामचलाऊ तंबू में दोपहर के हल्के-से भोजन के तौर पर सैंडविच के साथ केले खाये. चालक दुबारा उड़ने के लिए उतावले हो रहे थे. कह रहे थे कि ताइपेइ से दाइरेन की दूरी करीब 1800 किलोमीटर है. छह घंटे लगेंगे. तब तक अंधेरा होने लगेगा. चालकों ने केवल दो घंटे के विश्राम के बाद उड़ने की तैयारी शुरू कर दी. इन दो घंटों में विमान की तकनीकी जांच-परख संभवतः उस तरह नहीं हो सकी, जैसी होनी चाहिये थी.
विमान को ताइवान पहुंचने की जल्दी थी
दो जापानी लेखकों, तात्सुको हयाशीदा और फ़्रेड साइतो ने अपनी पुस्तक ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोसः हिज़ ग्रेट स्ट्रगल ऐन्ड मार्टरडम’ (नेताजी सुभाषचंद्रः उनका महान संघर्ष और शहादत) और एक लेख ‘डेल्ही टु डेल्ही’ (दिल्ली से दिल्ली) में लिखा है कि विमान चालकों ने रेडियो पर यह भी सुना था कि दक्षिण की ओर तेज़ी से बढ़ रही रूसी सेना के छाताधारी (पैराशूट) सैनिक पोर्ट आर्थर पहुंच गये हैं. इसका अर्थ था कि नेताजी वाले विमान के चालक यदि समय रहते दाइरेन नहीं पहुंच पाये, तो हो सकता है कि रूसी सैनिक उनसे पहले वहां पहुंच जाते. तब वे वहां उतर नहीं पाते. इसलिए भी वे ताइपेइ से उड़ने के लिए जल्दी मचा रहे थे.
संभव है कि इस आपाधापी के कारण विमान में किसी गड़बड़ी के होने की उतनी अच्छी छानबीन नहीं हो पायी, जितनी अच्छी होनी चाहिये थी.
ताइपेइ की शुंगशेन हवाई पट्टी उन दिनों केवल 890 मीटर ही लंबी थी. उसके आस-पास ईंटें पकाने वाले कई भट्ठों की ऊंची-ऊंची चिमनियां थीं. ऐसे में सैनिक विमानों का वहां उड़ना-उतरना आसान नहीं होता था. साइतो और हयाशीदा के अनुसार, नेताजी का विमान हवाई पट्टी की क़रीब दो-तिहाई लंबाई तक दौड़ने के बाद हवा में उठ गया. लेकिन तभी अचानक बायीं ओर झुक गया. झुकाव को देख कर चालकों ने विमान को उसके पेट के बल उतारने की कोशिश की. लेकिन वह ज़मीन से टकराते हुए कुछ दूर तक फिसलता गया. उसका बायां इंजन टूट कर अलग हो गया और विमान अपने संवेग के कारण रनवे के छोर को पार करता हुआ मिट्टी की बनी पास की एक दीवार से जा टकराया. विमान कोई एक मिनट के भीतर ही आग की लपटों से घिर गया.
साइतो और हयाशीदा ने नेताजी वाले विमान की दुर्घटना का यह वृतांत, वैमानिकी विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद, दुर्घटना के क़रीब 25 वर्ष पश्चात एक साझे लेख में प्रस्तुत किया था. वे उस समय के कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के इस वर्णन को सही नहीं मानते कि विमान जब हवा में था, तभी उसमें विस्फोट हुआ था. विस्फोट से बायां इंजन और प्रॉपेलर टूट कर अलग हो गये थे.
विमान दुर्घटना के प्रत्यक्षदर्शी
जापानी वायुसेना के एक मेजर तारो कोनो विमान में सवार एक ऐसे ही प्रत्यक्षदर्शी थे. उनका कहना था, ‘’हवाई अड्डे के एक अधिकारी से परामर्श करने के बाद हमने दोपहर बाद दो बजे उड़ना तय किया. हमने जल्दी से कुछ खाया. सोचा नहीं था कि एक साथ हमारा यह अंतिम भोजन होगा. मिस्टर बोस ने एक ऊनी स्वेटर निकाला और पहन लिया. वे हल्के नीले रंग की वर्दी, काले जूते और टोपी पहने हुए थे. मेजर ताकिज़ावा ने इंजनों की जांच की. मैं विमान से बाहर खड़ा इंजनों की जांच देख रहा था. मुझे लगा कि बायां इंजन कुछ आवाज कर रहा है. मैं विमान में गया. उसे परखा और पाया कि कोई गड़बड़ी नहीं थी.’’
‘’आज पीछे मुड़ कर देखने पर सोचता हूं कि हमें कुछ और सावधान रहना चाहिये था. दो बजे हम उड़े. कोई 20 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचते ही सामने बायीं ओर एक ज़ोरदार धमाका सुनायी पड़ा. इंजन क्षण भर में विमान से अलग हो गया था और विमान दायीं ओर को बुरी तरह झुक गया. हमारी हड्डियां तक सिहर गयीं कि हम भारी संकट में हैं; हमें जैसे-तैसे विमान को आग लगने से बचाना है. मैं चिल्लाया - सारे स्विच बंद कर दो! मैंने खड़ा होने की कोशिश की. लेकिन, गिरते हुए असंतुलित विमान के कारण उठ नहीं पाया.’’
‘’मेजर ताकिज़ावा विमान को संतुलित करने की पूरी कोशिश कर रहे थे, पर वह नियंत्रण से बाहर हो गया. क्षण भर में ज़मीन पर जा गिरा. उसका दाहिना डैना (विंग) ज़मीन से पहले टकराया और जलने लगा... आरंभिक झटके और हिचकोले थमते ही हमने देखा कि विमान दो टुकड़े हो गया है. मैंने आस-पास नज़र दौड़ायी; जनरल शीदेइ को मरा हुआ पाया. उनके सिर का पिछला भाग फट गया था. मेजर ताकीज़ावा भी मर गये थे...’’
‘’आग की गर्मी असह्य हो गयी थी. विमान लपटों से घिर गया था. मैं चालकों के ऊपर की कैनोपी तोड़ कर विमान से बाहर कूद गया. ईंधन से भीग गया था. मेरे कपड़े जलने लगे थे. अपना कोट उतारा और लपटों को बुझाने के लिए ज़मीन पर लोटने-पोटने लगा. चेहरा, हाथ और पैर जल गये थे. आधी बेहोशी में घास पर लेटा रहा. तभी आचानक एक बड़े-से व्यक्ति को लपटों के बीच से बाहर दौड़ते देखा. उसके शरीर से ख़ून बह रहा था. वो मिस्टर बोस थे. उन्हें तब अंतिम बार देखा था.’’
नेताजी जलते विमान से बाहर कूदे
कर्नल हबीबुर रहमान नेताजी बोस की पीछे वाली सीट पर बैठे थे. उन्होंने देखा कि विमान के गिरते ही नेताजी जैसे-तैसे अपने पैरों पर खड़े हुए और विमान के पिछले दरवाज़े की ओर लपके. लेकिन दरवाज़ा वहां रखे सामानों के कारण अवरुद्ध था. रहमान ने उन्हें आगे वाले दरवाज़े की तरफ़ जाने के लिए कहा. इस बीच विमान जलने लगा था. नेताजी अगले दरवाज़े से जब बाहर कूदे, तब तक उनके कपड़ों ने आग पकड़ ली थी. कुछ लोगों का कहना था कि नेताजी क्षण भर के लिए ठिठक गये और किसी पुतले की तरह जलते रहे.
किंतु हबीबुर रहमान ने बाद में बताया कि उन्होंने खुद नेताजी को ज़मीन पर लिटा दिया और उनके कपड़ों की आग बुझाने लगे. ऐसा करते हुए उनके अपने हाथ जल गये. उन्होंने यह भी देखा कि नेताजी के सिर में कनपटी के पास गहरा घाव था. वहां से बहते ख़ून को रोकने के लिए उन्होंने घाव वाली जगह को अपने रूमाल से बांध दिया. नेताजी के साथ उस समय हुई बातचीत को हबीबुर रहमान ने इस प्रकार वर्णित कियाः
नेताजी - ‘’उम्मीद है, आप बहुत ज़्यादा ज़ख्मी नहीं हुए हैं!’’
हबीबुर रहमान - ‘’नहीं सर, बस कुछ मामूली-से घाव हैं.’’
नेताजी - ‘’मैं नहीं समझता, मैं बच पाऊंगा. जब आप वापस जायें, तो देश के लोगों से कहें कि मैं आख़िरी दम तक देश की आज़ादी के लिए लड़ता रहा. कोई ताक़त अब देश को बेड़ियों में नहीं रख सकती. संघर्ष चलते रहना चाहिये. भारत को आज़ाद होने में अब देर नहीं है.’’
कर्नल हबीबुर रहमान भारत की आज़ादी के बाद पाकिस्तान में बस गये. उन्होंने बताया कि नेताजी सिर से पैर तक बुरी तरह जल गये थे. 15 मिनट के भीतर उन्हें तथा दूसरे लोगों को ताइपेइ के नानमेन सैनिक अस्पताल में पहुंचाया गया. अस्पताल के चिकित्सा अधिकारी कैप्टन डॉ. योशीमी ने उस दिन के बारे में बाद में लिखा, नेताजी का ‘’पूरा शरीर झुलस गया था. त्वचा काली पड़ गयी थी. सीना भी जल गया था. चेहरा सूज गया था. आंखें भी सूज गयी थीं. खून बहाने वाला कोई घाव नहीं था. वे होश में थे, 39 डिग्री का तेज़ बुखार था.’’
डॉ. योशीमी के अनुसार, स्वास्थ्य परीक्षा के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि थे कि नेताजी अगली सुबह नहीं देख पायेंगे. उन्होंने नेताजी को दी गयी दवाओं और इंजेक्शनों का भी पूरा विवरण दिया है. कर्नल हबीबुर रहमान भी कुछ जगहों पर जल गये थे. उन्हें भी नेताजी वाले वार्ड में ही रखा गया था.
म़ृत्यु के दो अलग समय
दुर्घटना तीसरे पहर दो बजे के आस-पास हुई थी. शाम सात-साढ़े सात बजते-बजते नेताजी की हालत गंभीर होने लगी. नब्ज़ बहुत धीमी पड़ गयी. हृदय भी कमज़ोर होने लगा. डॉ. योशीमी के अनुसार, शाम आठ बजे के क़रीब उनकी जीवन-ज्योति बुझ गयी. लेकिन जापानी सरकार की सूचना में मृत्यु का समय रात 11 बज कर 40 मिनट बताया गया! कम से कम एक और चौंकाने वाली विसंगति है. कर्नल हबीबुर रहमान के अनुसार, ‘उन्होंने यह भी देखा कि नेताजी के सिर में कनपटी के पास गहरा घाव था. वहां से बहते ख़ून को रोकने के लिए उन्होंने घाव वाली जगह को अपने रूमाल से बांध दिया.’ जबकि डॉ. योशीमी ने लिखा कि ‘खून बहाने वाला कोई घाव नहीं था.’ डॉ. योशीमी ने ही मृत्यु का प्रमाणपत्र तैयार किया. उसमें मृत्यु का कारण ‘’तीसरी डिग्री तक जल जाना’’ लिखा.
नेताजी की अंतिम सांस के समय कर्नल हबीबुर रहमान, दो डॉक्टर, दो नर्सें, एक मेडिकल अर्दली और उनका जापानी दुभाषिया नाकामुरा उनके पास था. सभी जापानियों ने उनके पार्थिव शरीर को सलामी दी. हबीबुर रहमान ने बिस्तर के आगे घुटने टेक कर प्रार्थना की. अगले दिन, 19 अगस्त 1945 को, जापानी सेना के मुख्यालय ने फ़ार्मोसा (ताइवान) में अपने कार्यालय को तार भेज कर नेताजी का शरीर अंतिम संस्कार के लिए टोक्यो भेजने को कहा. थोड़ी ही देर बाद एक दूसरा तार आया कि दाह संस्कार ताइपेइ में ही कर दिया जाये. इसका कोई कारण नहीं बताया गया.
बौद्ध पुजारी ने दाह संस्कार किया, अस्थियां अभी भी जापान में
20 अगस्त 1945 को ताइपेइ के शमशान में कर्नल हबीबुर रहमान, दुभाषिये नाकामूरा और फ़ार्मोसा की सैनिक कमान के एक प्रतिनिधि की उपस्थिति में एक बौद्ध पुजारी ने दाहकार्य संपन्न किया. अगले दिन, 21 अगस्त को, इन्हीं चारों लोगों ने लकड़ी के बने एक डिब्बे में नेताजी की राख और अस्थियां जमा कीं. दो सप्ताह बाद, 5 सितंबर 1945 को, ये अवशेष टोक्यो भेजे गये.
नेताजी की भस्मि और अस्थियों वाला एक कलश आज भी टोक्यो के सुगिनामी मुहल्ले के रेंकोजि बौद्ध मंदिर में रखा हुआ है. इस कलश को भारत लाने में न तो भारत की किसी सरकार को और न नेताजी के परिजनों को कोई दिलचस्पी रही. इस बीच ऐसे कई दस्तावेज़, वृतांत और गवाह सामने आये हैं, जिनके कारण उन लोगों की यह धारणा बलवती हुई, जो कहते हैं कि नेताजी की 1945 में मृत्यु हुई ही नहीं. वे जीवित थे और सोवियत संघ में रह रहे थे. ये लोग मानते हैं कि भारत की कांग्रेसी सरकारें नहीं चाहती थीं कि जनता को पता चले कि नेताजी जीवित हैं और भारत आना चाहते हैं. इनके मुताबिक सरकारें डरती थीं कि नेताजी की अपार लोकप्रियता किसी बाढ़ की तरह उनको बहा देगी. लेकिन यह कहानी अगली बार.
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