आज से पांच दशक पहले एक मामले की सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने कहा था कि उत्तर प्रदेश की पुलिस भारत का सबसे बड़ा संगठित अपराधिक गिरोह है. बीते तीन सालों के दौरान यह टिप्पणी कुछ ज्यादा ही सुनने को मिली है. हाल ही में हाथरस में एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में सूबे की पुलिस का जो बर्ताव देखने को मिला है, उसे अपराध मानने वाले लोगों की कमी नहीं हैं. 14 सितंबर को आरोपितों ने पीड़िता के साथ दुष्कर्म किया और उसे इतनी बुरी तरह पीटा कि उसकी जीभ जख्मी हो गई और रीढ़ की हड्डी में चोट आई. हाथरस पुलिस ने इस मामले में पहले तो देर से कार्यवाही की और आरोपितों पर केवल हत्या की कोशिश और एससी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया. हफ्ते भर बाद जब पीड़िता को होश आया, उसने बयान दिया और मीडिया ने इस पर ध्यान दिया, तब जाकर पुलिस ने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज की और जांच के लिए सैंपल इकट्ठा किये. आगरा स्थित फॉरेंसिक लैब का कहना है कि उसे ये सैंपल घटना के 11 दिन बाद मिले.
इसके हफ्ते भर बाद ही पीड़िता की मृत्यु हो गयी. मौत के बाद पुलिस और प्रशासन ने जो किया वह चौंकाने वाला था. पुलिस ने 29 सितंबर को पीड़िता की मौत के बाद उसका शव परिवार को नहीं सौंपा और रात में बिना किसी रीति-रिवाज के उसका शव जला दिया.
हालांकि पुलिस और प्रशासन का कहना था कि पीड़ता का अंतिम संस्कार पूरे विधि-विधान के साथ उसके पिता और भाई की मर्जी से हुआ और परिवार के लोग उस दौरान मौजूद थे. प्रशासन ने इस बात को साबित करने के लिए एक वीडियो भी जारी किया जिसमें दिखाया गया कि एक बुजुर्ग दो अन्य लोगों के साथ जलती हुई चिता में लकड़ी डालकर हाथ जोड़ रहे हैं. पुलिस ने दावा किया कि ये बुजुर्ग लड़की के बाबा (दादा) हैं, और ये सभी लड़की के घरवाले हैं. पुलिस के इस दावे की पोल कुछ घंटे बाद ही खुल गयी, जब लड़की के पिता ने कहा कि अंतिम सस्कार उनकी मर्जी से नहीं हुआ और उस समय वे घर में बंद थे. परिजनों ने यह भी बताया कि लड़की के बाबा अब जीवित नहीं हैं, उनकी मौत 2006 में ही हो चुकी है. लड़की की भाभी ने भी मीडिया से बातचीत में कहा कि जो वीडियो में चिता के करीब दिख रहे हैं, उनमें से कोई भी उनके घर का सदस्य नहीं था. इंडियन एक्सप्रेस ने प्रशासन द्वारा जारी किये गए वीडियो में नजर आ रहे एक व्यक्ति से बात की जिसने कहा कि वह लड़की का चाचा है और उसे जबरन चिता के पास ले जाया गया था. उनका कहना था, ‘पुलिस ने हमसे कहा कि तुम्हें (चिता के पास) चलना ही होगा, उन्होंने हमें कोई विकल्प नहीं दिया. हम डर गए थे. यदि वे परिवार के सदस्यों को शामिल करना चाहते थे, तो वे भाई और पिता को अनुमति दे सकते थे...’
"We were locked in, weren't allowed for cremation rites," says #Hathras victim's father. pic.twitter.com/SHI76m4uCO
— Mojo Story (@themojo_in) September 30, 2020
पुलिस के इस व्यवहार पर सवाल उठने पर सफाई दी गयी कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि गांव का माहौल नियंत्रण में बना रहे और कोई दंगा-फसाद न हो. हालांकि कई लोगों का मानना है कि प्रशासन इस मामले को बलात्कार की घटना नहीं मानना चाहता था इसलिए उसने पीड़िता के शव को आनन-फानन में जला दिया. इस घटनाक्रम के अगले दिन यूपी पुलिस के एडीजी (लॉ एंड ऑर्डर) प्रशांत कुमार के एक बयान से इसका कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है. उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘फॉरेंसिक रिपोर्ट से शुक्राणु या वीर्य नहीं मिला है जिससे ये साफ़ हो गया है कि पीड़िता के साथ बलात्कार नहीं हुआ था.’ ध्यान देने वाली बात यह है कि पीड़िता ने मौत से पहले खुद बयान दिया था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है, लेकिन इसके बाद भी यूपी पुलिस ने ऐसा दावा किया.
उत्तर प्रदेश पुलिस के इस दावे को क़ानून और स्वास्थ्य विशेषज्ञ, दोनों ही खारिज करते हैं. कानून के जानकारों के मुताबिक भारतीय दंड संहिता की धारा-375 में यह नहीं कहा गया है कि पीड़िता के शरीर में वीर्य के कण न मिलने का मतलब यह है कि उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ. इसके अलावा कानून के मुताबिक पीड़िता का यह कहना ही काफी था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि बलात्कार को साबित करने के लिए वीर्य की उपस्थिति आवश्यक नहीं है और यौन संभोग साबित करने के लिए लिंग का प्रवेश होना पर्याप्त है. उधर, स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि 96 घंटे या चार दिन बाद अगर सैंपल की जांच की जाये तो बलात्कार की पुष्टि होना बेहद मुश्किल है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के सीएमओ डॉक्टर अजीम मलिक का इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहना था, ‘लैब को वारदात के 11 दिन बाद सैंपल मिले. जबकि सरकारी दिशा-निर्देशों में साफ कहा गया है कि ऐसे अपराध के 96 घंटे बाद तक फोरेंसिक सबूत पाए जा सकते हैं. इससे ज्यादा देरी होने पर रेप या गैंगरेप की पुष्टि नहीं हो सकती है.’
इसके अलावा भी पुलिस और प्रशासन का बर्ताव काफी हैरान करने वाला रहा. पीड़िता के घरवालों का नार्को टेस्ट कराने का आदेश, उनके फोन को कथित तौर पर टैप करना और जिलाधिकारी द्वारा घर वालों पर बयान बदलने और चुप रहने के लिए दबाव बनाना, बताते हैं कि पुलिस और प्रशासन की पूरी कोशिश मामले को किसी तरह दबाने की ही रही. पुलिस ने जिस तरह पत्रकारों और जनप्रतिनिधियों को पीड़िता के परिवार से मिलने से रोकने के लिए उनके साथ जिस तरह का बर्ताव किया, वह भी अजीबोगरीब था.
#WATCH: TMC delegation being roughed up by Uttar Pradesh Police at #Hathras border. The delegation, including Derek O'Brien, was on the way to meet the family of the victim of Hathras incident. pic.twitter.com/94QcSMiB2k
— ANI (@ANI) October 2, 2020
लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन में हाथरस की घटना पहली नहीं है जहां पुलिस ने इस तरह के काम किये हों. इससे पहले भी पुलिस पर संवेदनहीनता, पक्षपात और मनमानी के कई आरोप लग चुके हैं. योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के छह महीने बाद ही पुलिस की संवेदनहीनता का पहला बड़ा मामला बनारस में देखने को मिला था. बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छेड़खानी और भेदभाव से परेशान होकर कुछ छात्राएं धरने पर बैठ गई थीं. इनकी सिर्फ इतनी मांग थी कि वाइस चांसलर आकर उन्हें आश्वासन दें कि अब उनके साथ ऐसा नहीं होगा. दो दिन के बाद भी जब ये छात्राएं धरने पर डटी रहीं तो पुलिस ने उन्हें हटाने के लिए लाठी चार्ज किया. इस लाठीचार्ज में करीब 10 छात्राएं घायल हुई थीं. इसे लेकर देश भर में उत्तर प्रदेश सरकार की काफी आलोचना हुई थी.
पत्रकारों और सरकार से सवाल करने वालों पर मुकदमे
उत्तर प्रदेश के पुलिस महकमे में बीते तीन साल में एक नया रिवाज भी देखने को मिला है, अगर कोई नागरिक या पत्रकार सरकार के काम पर सवाल उठाता है तो पुलिस उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर देती है. ऐसे सैकड़ों मामले सामने आये हैं. बीते जून में लखनऊ में रहने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी सूर्य प्रताप सिंह ने राज्य में कोरोना की कम टेस्टिंग होने को लेकर सवाल उठाये तो उनके खिलाफ माहमारी एक्ट और जनता में डर फैलाने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया. पूर्व आईएएस अधिकारी ने अपने एक ट्वीट में लिखा था, ‘सीएम योगी की टीम-11 की मीटिंग के बाद क्या मुख्यसचिव ने ज्यादा कोरोना टेस्ट कराने वाले कुछ जिलाधिकारियों को हड़काया है कि क्यों इतनी तेजी पकडे़ हो, क्या इनाम पाना है, जो टेस्ट-2 चिल्ला रहे हो? क्या यूपी के मुख्य सचिव स्थिति को स्पष्ट करेंगे.’
यूपी पुलिस ने कई पत्रकारों को भी निशाना बनाया है. बीते साल उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में मिड-डे मील के तहत बच्चों को नमक-रोटी दिए जाने की खबर दिखाने पर प्रशासन ने आपराधिक साजिश रचने के आरोप में एक पत्रकार के खिलाफ शिकायत दर्ज कर दी. इसके कुछ रोज बाद ही आजमगढ़ जिले में सरकारी स्कूल के अंदर बच्चों के झाड़ू लगाने का वीडियो बनाने वाले एक पत्रकार को पुलिस ने मामला दर्ज करके गिरफ्तार तक कर लिया. बीते साल ही बिजनौर में स्थानीय अखबारों में एक खबर छपी कि कुछ दबंग सरकारी नल से एक दलित परिवार को कथित तौर पर पानी नहीं भरने दे रहे हैं जिसके चलते इस परिवार को पलायन करना पड़ रहा है. इस खबर को पुलिस की छवि पर नकारात्मक प्रभाव मानते हुए कई पत्रकारों के विरुद्ध संगीन धाराओं में मामला दर्ज किया गया.
चार महीने पहले सीतापुर जिले में जब एक स्थानीय पत्रकार ने क्वारंटीन सेंटर में बदहाली और मरीजों को सड़े हुए चावल दिए जाने की खबर छापी तो पत्रकार को सरकारी काम में बाधा डालने, आपदा प्रबन्धन और हरिजन एक्ट आदि के तहत आरोपी बनाया गया. इसी तरह बीते मई में लखनऊ के एक पत्रकार ने उत्तर प्रदेश के ‘चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण महानिदेशालय’ के एक पत्र को सार्वजनिक कर दिया. इस पत्र में कहा गया था राज्य के आठ अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को कोरोना से बचाव के लिए भेजी गयीं पीपीई किट्स आवश्यक गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करती हैं. इस खबर के सार्वजनिक होने के बाद यूपी पुलिस की स्पेशल टास्क फ़ोर्स ने इस पत्रकार से पूछताछ की और कथित तौर पर यह बताने का दबाव डाला कि उसे यह पत्र कैसे मिला.
यूपी पुलिस ने राष्ट्रीय मीडिया को भी निशाना बनाया है. न्यूज़ वेबसाइट ‘स्क्रॉल डॉट इन’ की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस ने हाल ही में एक एफआईआर दर्ज की है. वेबसाइट के मुताबिक सुप्रिया ने अपनी एक रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र - वाराणसी - में, उनके द्वारा गोद लिये गये गांव के एक दलित परिवार की मुश्किल स्थित को बयान किया था. बीते अप्रैल में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ की कोरोना वायरस और धार्मिक आयोजनों से जुड़ी एक खबर के मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस ने पोर्टल के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज किया था.
रासुका यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत कार्यवाहियां
उत्तर प्रदेश पुलिस एक और वजह से भी काफी चर्चा में रहती है. यह वजह है अक्सर आरोपितो पर रासुका यानी एनएसए के तहत कार्रवाई करना. रासुका यानी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-1980 देश की सुरक्षा के लिए सरकार को किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने की शक्ति देता है. रासुका लगाकर किसी भी व्यक्ति को एक साल तक जेल में रखा जा सकता है. हालांकि, इस दौरान हर तीन महीने में इसके लिए एक एडवाइजरी बोर्ड की मंजूरी लेनी पड़ती है. राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा होने और कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका के आधार पर ही रासुका लगाया जा सकता है.
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद रासुका कानून सबसे पहले नवंबर 2017 में चर्चा में आया था. तब सरकार ने भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत कार्रवाई की थी. उस साल मई में सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलित और ठाकुर समुदाय के बीच जातीय हिंसा में चंद्रशेखर का नाम सामने आया था. नवंबर 2017 में चंद्रशेखर को इस मामले में जमानत मिल गयी थी, लेकिन सरकार ने उन पर रासुका लगाकर उन्हें अगले करीब एक साल तक जेल में रखा.
यूपी पुलिस ने रासुका का जिस तरह से इस्तेमाल किया है, उसके चलते यह कानून इस साल भी काफी चर्चा में रहा है. इस जनवरी में योगी सरकार ने गोरखपुर के डॉक्टर कफील खान के खिलाफ रासुका के तहत कार्रवाई कर सभी को हैरान कर दिया था. एएमयू में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के मुद्दे पर ‘भड़काऊ भाषण’ देने के आरोप में डॉक्टर कफील खान के खिलाफ यह कार्रवाई की गयी थी. आठ महीने बाद बीते सितंबर में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन पर रासुका लगाए जाने को अवैध बताया और उन्हें तुरंत रिहा करने का आदेश दिया. ऐसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि जिस भाषण को लेकर कफील खान पर रासुका लगाया गया था वह केवल सरकार की नीतियों के विरोध में था, वह नफरत या हिंसा को बढ़ावा देने वाला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की बात करता था.
हाल ही में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि इस साल जनवरी से लेकर अगस्त तक उत्तर प्रदेश में एनएसए के तहत 139 लोगों पर कार्रवाई की गई. इनमें आधे से ज्यादा मामले गोहत्या से जुड़े हैं. ये आंकड़े पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़ा करते हैं. इस मामले में सरकार की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि गोकशी की घटनाओं की वजह से राज्य में सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं, इसलिए वह ऐसा कर रही है.
यूपी में डीजीपी रह चुके रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी डॉक्टर विभूति नारायण राय इस बात को स्वीकार करते हैं कि गोकशी की घटनाएं सांप्रदायिक संघर्ष की वजह बनती हैं, लेकिन उनका यह भी मानना है कि सरकार की मंशा इस बारे में ठीक नहीं है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत में राय कहते हैं, ‘एनएसए की कार्रवाई शांति भंग होने या फिर सांप्रदायिक संघर्ष होने की आशंका के आधार पर की जा सकती है लेकिन इसमें यह भी देखा जाना चाहिए कि दंगा किसकी वजह से फैल रहा है. किसी के घर पर गोमांस मिलना यदि इसका आधार बन सकता है तो जो लोग इसे मुद्दा बनकर इसे सांप्रदायिक संघर्ष की शक्ल देते हैं, उनके खिलाफ भी ऐसी ही कार्रवाई होनी चाहिए. पर ऐसा नहीं हो रहा है.’
राज्य में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें आरोपित पक्ष के लोगों ने आरोप लगाया है कि महज उनके घर पर मांस के टुकड़े पाए जाने के कारण पुलिस उन्हें उठा ले गई और गैंगस्टर एक्ट के अलावा उन पर एनएसए भी लगा दिया गया. इन लोगों का आरोप है कि पुलिस ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की गई कि मांस गाय का था या फिर किसी अन्य पशु का. बीते अगस्त के अंत तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में पुलिस ने गोकशी के आरोप में 11 और लोगों के खिलाफ एनएसए के तहत मामला दर्ज किया है. अल्पसंख्यकों में पुलिस की कार्रवाई का डर किस कदर फैला है, यह भी हाल ही में देखने को मिला. बीते 25 सितंबर को बिजनौर जिले के नगीना में गोहत्या की सूचना पर पुलिस ने आरोपित के घर दबिश दी तो उसके 54 वर्षीय छोटे भाई की हार्ट अटैक से मौत हो गई. बाद में गोहत्या की खबर झूठी साबित हुई, लेकिन आरोप है कि पुलिस ने दबिश के दौरान घर के सदस्यों के साथ मारपीट की थी.
एनकाउंटर नीति कठघरे में
यूपी में एनकाउंटर्स पर भी सवाल उठ रहे हैं, बीते जुलाई में गैंगस्टर विकास दुबे को उत्तर प्रदेश की स्पेशल टास्क फोर्स ने एक ऐसे एनकाउंटर में मार गिराया जिस पर अनगिनत सवाल उठाये जा सकते हैं. उज्जैन में जब विकास दुबे ने समर्पण किया था तो कई जानकारों और पूर्व पुलिस अधिकारियों का कहना था कि उससे पूछताछ के बाद बड़े-बड़े लोगों के नाम सामने आएंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि आठ पुलिस वालों की हत्या के छह दिन बाद तक वह यूपी के अलग-अलग जिलों में घूमता रहा और देखा भी गया. इसके बाद पुलिस की सौ से ज्यादा टीमों को चकमा देकर वह उज्जैन पहुंच गया. जानकारों के मुताबिक यह घटनाक्रम यही बताता है कि विकास दुबे के ऊपर कुछ ऐसे लोगों का हाथ था जो उसे बचा रहे थे. अगर ऐसा था तो उसकी मौत से ये रसूखदार साफ बच गए.
योगी आदित्यनाथ की पुलिस पर जाति और धर्म के आधार पर एनकाउंटर करने जैसे आरोप भी लगे हैं. ये आरोप केवल विपक्ष ने ही नहीं बल्कि सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने भी लगाए हैं. उत्तर प्रदेश पुलिस के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए 124 अपराधियों में 47 अल्पसंख्यक (37 फीसदी), 11 ब्राह्मण, आठ यादव और बाकी 58 अपराधी ठाकुर, वैश्य, अन्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जाति जनजाति के थे. उत्तर प्रदेश पुलिस पर फर्जी एनकाउंटर के आरोप भी खूब लगे हैं. एककाउंटर से जुड़े आरोपों की सच्चाई जानने के लिए 2018 में इंडिया टुडे ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था. इसमें यूपी पुलिस के कुछ अधिकारी पदोन्नति और पैसों के लिए निर्दोष नागरिकों को झूठे मामलों में फंसाने और उनका फर्जी एनकाउंटर करने के लिए भी तैयार हो गए. इन अधिकारियों ने यह भी बताया कि फर्जी एनकाउंटर को कैसे अंजाम दिया जाता है.
योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश पुलिस की एनकाउंटर नीति को सही ठहराते हैं और इससे अपराध पर लगाम लगने की बात कहते हैं. लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं. अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े देखें तो 2019 में यूपी में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के सर्वाधिक 59,853 मामले दर्ज हुए. यह आंकड़ा देश में महिलाओं के विरुद्ध हुए कुल अपराधों का 14.7 फीसदी है. बच्चियों के साथ यौन अपराधों के (पॉक्सो एक्ट के तहत दर्ज) मामलों में भी उत्तर प्रदेश अव्वल है, बीते साल राज्य में इस तरह के 7,444 मामले दर्ज किए गए. 2019 में सूबे में सबसे अधिक 2,410 दहेज के मामले भी दर्ज किये गए. इसके अलावा अनुसूचित जाति के लोगों के खिलाफ अत्याचार के भी सबसे अधिक 11,829 मामले उत्तर प्रदेश से ही सामने आये, जोकि पूरे देश में ऐसे मामलों का 25.8 फीसदी है.
पुलिस को और छूट दी गई
उत्तर प्रदेश पुलिस पर लग रहे तमाम आरोपों के बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उसे और ज्यादा आजादी देने में लगे हैं. बीते महीने सरकार ने विधानसभा में ‘विशेष सुरक्षा बल अधिनियम’ को पारित कराया है. इसके तहत राज्य में सीआईएसएफ जैसा एक विशेष सुरक्षा बल बनाया जाएगा जिसके हाथ में बहुत सारी शक्तियां होंगी. इसके अधिकारियों और सदस्यों को बिना सरकार या मजिस्ट्रेट की इजाजत के किसी भी अभियुक्त को गिरफ्तार करने और उसकी तलाशी लेने का अधिकार होगा. इसे मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया जा रहा है और दावा किया जा रहा है कि इससे राज्य की कानून और व्यवस्था और चौकस हो जाएगी. लेकिन, जानकारों का मानना है कि इससे ऐसे पुलिस अधिकारियों को और शह और सुरक्षा मिल जाएगी जो अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते हैं.
इन जानकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश पुलिस का अगर बीते तीन सालों का इतिहास देखें तो वह पहले से कहीं अधिक संवेदनहीन और ढीठ लगती है. अब उसे ट्रिगर दबाने से पहले सोचना नहीं पड़ता, वह रासुका लगाकर असंतुष्टों को रोक सकती है, मीडिया को भी डरा सकती है, मां-बाप की इच्छाओं के खिलाफ जाकर उनकी बेटी के शरीर को भी जला सकती है, यहां तक कि अब यूपी पुलिस अपनी बनाई कहानी को साबित करने के लिए खुलेआम सबूतों को नष्ट करने से भी नहीं हिचकती. इन लोगों की मानें तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे राज्य की सत्ता ने खुली छूट दे दी है, जिसे शायद लगता है कि पुलिस के बल पर ही राम राज्य की स्थापना की जा सकती है.
कहा जाता है कि जब सत्तारूढ़ पार्टी या सरकार पुलिस का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं, असहमत नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों को उत्पीड़ित करने और मानवाधिकारों का हनन करने में करती है, तो इसे ही ‘पुलिस स्टेट’ यानी ‘पुलिसिया राज’ कहते हैं. इस तरह के माहौल में राजनीतिक सत्ता और पुलिस सत्ता के बीच एक ऐसा गठजोड़ हो जाता है कि पुलिस अपनी मनमानी का एक स्वायत्त क्षेत्र विकसित कर लेती है. उसकी मनमानी का सबसे बुरा असर समाज के कमजोर तबकों - अल्पसंख्यक, आदिवासी, दलित, महिलाओं - आदि पर पड़ता है. और पुलिस का बेजा इस्तेमाल करने वाली सरकारें उसकी हर तरह की मनमानियों की अनदेखी करती रहती हैं.
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