साल 2000 में अपने एक व्याख्यान में चर्चित अर्थशास्त्री टीएन श्रीनिवासन ने कहा था कि ‘भारत में अगर कोई गरीब है तो इसकी ज्यादा संभावना है कि वह किसी ग्रामीण इलाके में रह रहा होगा, अनुसूचित जाति या जनजाति या फिर सामाजिक रूप से पिछले वर्ग से ताल्लुक रखता होगा, कुपोषित, बीमार या फिर कमजोर स्वास्थ्य वाला होगा, अनपढ़ या फिर कम पढ़ा-लिखा होगा और कुछ खास राज्यों (जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और ओडिशा) में रह रहा होगा.’

प्रोफेसर श्रीनिवासन का व्याख्यान भारत में आर्थिक संभावनाओं से जुड़ी विषमताओं पर था. 20 साल बाद और दिल्ली व उत्तर प्रदेश में हाल में घटी घटनाओं के संदर्भ में मैं एक पूरक थ्योरी देना चाहूंगा. इसका संबध भारत में न्याय पाने से जुड़ा है. मेरा मानना है कि भारत में अगर कोई पुलिस, प्रशासन और अदालतों से निष्पक्ष बर्ताव की उम्मीद करता है तो इसकी संभावना तब कम हो जाती है जब वह कोई महिला या दलित या आदिवासी या फिर मुसलमान हो. अगर वह शहरों से दूर रह रहा हो, कम पढ़ा-लिखा हो और अंग्रेजी न बोलता हो, तब भी यह बात उतनी ही सच है.’
भारत में न्याय की चौखट पर वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव लंबे समय से होता रहा है. लेकिन हमारे इन निम्न मानदंडों के लिहाज से भी देखें तो बीते कुछ समय के दौरान दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस और प्रशासन ने जिस तरह से व्यवहार किया है वह असाधारण है. फरवरी-मार्च 2020 के दौरान राजधानी दिल्ली में हुए दंगों के मामले में दायर आरोपपत्रों में जिस तरह से झूठ और मनगढ़ंत बातें परोसी गई हैं उनसे लगता है कि ये असत्य के साथ प्रयोगों के सिलसिले की नई कड़ी हैं. इन आरोपपत्रों में उन छात्रों और मुसलमानों को खलनायक बनाने की कोशिश है जिन्होंने अहिंसा की बात की और वैसा ही बर्ताव भी किया. दूसरी तरफ इनमें दक्षिणपंथी और सत्ताधारी पार्टी से जुड़े उन लोगों की पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई है जिन्होंने हिंसा के लिए उकसाने वाले भाषण दिए थे.
दिल्ली पुलिस ने अगर अपना भेदभावपूर्ण और सांप्रदायिक चेहरा दिखलाया है तो उत्तर प्रदेश पुलिस उससे और आगे है. बल्कि वह तो पितृसत्ता का समर्थन करने वाली और जातिवादी भी रही है. सरकार के ही अपने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश में दलितों के खिलाफ अपराधों में 47 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. देश की आबादी में राज्य की करीब 16 फीसदी हिस्सेदारी है लेकिन भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में उसकी हिस्सेदारी का आंकड़ा 25 फीसदी से भी ज्यादा है. और असल में आंकड़े निश्चित रूप से इससे ज्यादा होंगे क्योंकि अपराधों की एक बड़ी संख्या तो दर्ज ही नहीं होती.
उत्तर प्रदेश पुलिस की ‘प्रतिष्ठा’ पहले भी किसी से छिपी हुई नहीं थी. लेकिन मार्च 2017 में योगी आदित्यनाथ के सत्ता संभालने के बाद तो मामला और बिगड़ गया. फिर तो पुलिस जिस तरह से सत्ताधारी वर्ग की अधीनस्थ बन गई वैसा इसके इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था. जैसा कि चर्चित वेबसाइट आर्टिकल-14 पर प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि भारत में सबसे ज्यादा आबादी वाले इस राज्य को चलाने के लिए खास तौर से इस राजनेता का चुना जाना ‘भारतीय लोकतंत्र में भाजपा की विस्तार यात्रा का एक ऐतिहासिक मोड़ था. यह एक ऐसी शासन व्यवस्था के समर्थन का संदेश था जो बिना किसी खेद के खुलेआम मुस्लिम नागरिकों और राजनीतिक विरोधियों को जनविरोधी बताकर उन्हें निशाना बनाती है.’
आगे इस लेख में आदित्यनाथ के तौर-तरीकों के बारे में कहा गया है: ‘शुरुआत से ही मुख्यमंत्री ने एक अलग तरह की राज्य व्यवस्था बनाने और उसे मजबूत करने के लिए प्रशासन के उपकरणों का इस्तेमाल करने में कोई हिचक नहीं दिखाई. यह व्यवस्था खुद को हिंदू हितों का संरक्षक बताने वाले समूहों का फायदा उठाती है और हिंदुओं खास कर ‘ऊंची’ जातियों को प्राथमिकता में रखती है. साथ ही, यह कानून और पुलिस का इस्तेमाल मुसलमानों और इससे सहमति न रखने वालों को निशाना बनाने, दंडित करने, बदनाम करने, जेल में डालने और कुछ मामलों में उनकी हत्या तक करने में करती है.’
मुस्लिम समुदाय के खिलाफ आदित्यनाथ प्रशासन का पूर्वाग्रह खुलेआम तब भी दिखा जब डॉ. कफील खान को प्रताड़ित किया गया. यह तब भी नजर आया जब नागरिकता (संशोधन) विधेयक का शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने वालों का उत्पीड़न किया गया और उन्हें धमकाया गया. हाल के हाथरस मामले में भी इसका जाति और पितृसत्तावादी चेहरा साफ दिखता रहा है. दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में गिने जाने वाले द फाइनेंशियल टाइम्स ने भी इस घटना पर टिप्पणी की है. उसने लिखा है : ‘दलित महिलाओं के खिलाफ हिंसा का एक लंबा और बदनाम इतिहास रहा है... जो बात नई है वह यह है कि प्रशासन खुलेआम अपनी ताकत का इस्तेमाल पीड़ित परिवार के खिलाफ कर रहा है और उसके हक में आवाज उठाने वालों को डराने के लिए उन हाईटेक उपकरणों का इस्तेमाल कर रहा है जो नागरिकों को डराने के लिए उन पर लगातार नजर रखने वाली किसी राज्य व्यवस्था (सर्वेलेंस स्टेट) की पहचान होते हैं.’
इससे पहले कि ‘दूसरों के बारे में कुछ क्यों नहीं बोलते’ कहने वाले कूद पड़ें, मैं सीधे-सीधे कहता हूं कि दूसरे राज्यों में भी पुलिस का कमोबेश यही हाल है और वह बड़ी हद तक या पूरी तरह से सत्ताधारियों के हिसाब से चलती है. पश्चिम बंगाल में पुलिस ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के लिए उतना ही बड़ा हथियार है जितना वह उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और उनकी पार्टी के लिए है. कांग्रेस शासित राज्यों में भी पुलिस अक्सर पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करती है. कोई भी जगह हो, पुलिस की प्रवृत्ति महिलाओं, निचले तबकों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव वाली ही होती है.
लेकिन जो बर्बरता उत्तर प्रदेश पुलिस दिखा रही है वह शायद सबसे असाधारण है और यही बात उस दमनकारी रवैय्ये के बारे में कही जा सकती है जो यहां की राज्य व्यवस्था उससे असहमति रखने वालों और मीडिया के साथ अपना रही है. 2012 में कांग्रेस शासित दिल्ली में बलात्कार की शिकार निर्भया को न्याय दिलाने की मांग के साथ दिल्ली में जैसे विशाल प्रदर्शन हुए थे, आज उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे या शहर में ऐसे प्रदर्शनों की बात सोची भी नहीं जा सकती.
ठीक से चलने वाले किसी लोकतंत्र में अगर पुलिस या प्रशासन कानून के प्रावधानों का दुरुपयोग करते हैं तो दूसरी संस्थाएं उन पर लगाम लगाती हैं. लेकिन इस तरह के मामलों में हमारे देश में यह बात बहुत दूर की कौड़ी हो गई है. जैसा कि जस्टिस एपी शाह ने अपने एक लेख में कहा है: ‘आज भारत में हर उस संस्था, तंत्र या उपकरण को व्यवस्थित तरीके से तबाह किया जा रहा है जिसका गठन कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने के लिए हुआ था. यह प्रक्रिया 2014 में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के साथ शुरू हुई. यहां पर इसकी तुलना अतीत में इंदिरा गांधी सरकार के ऐसे ही कृत्यों से करने का मन करता है जिसने खुलेआम इसी तरह का विनाश किया था. लेकिन आज हम जिस ताकत को देख रहे हैं उसकी रणनीति इस नीयत के साथ काम करती दिखती है कि भारतीय लोकतंत्र कोमा में पहुंच जाए और सारी ताकत कार्यपालिका के हाथ में आ जाए.’ जस्टिस शाह का आगे कहना था: ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सो रहा है. जांच संस्थाओं का छोटे से छोटे मौके पर भी गलत इस्तेमाल हो रहा है. ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग में भी सेंध लग चुकी है. सूचना आयोग लगभग निष्क्रिय है.’
यानी राज्य व्यवस्था को जवाबदेह बनाने और उस पर लगाम रखने वाली संस्थाएं ढह चुकी हैं. ऐसी स्थिति में न्यायपालिका से उम्मीद रहती है. लेकिन त्रासदी यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने भी बड़ी हद तक हमें निराश किया है. धारा 370 के उन्मूलन या फिर नागरिकता संशोधन कानून जैसे अहम संवैधानिक मामलों में सुनवाई को लेकर उनकी अनिच्छा चिंताजनक है. सेलिब्रिटीज से जुड़े मामले तत्परता के साथ सुने जा रहे हैं जबकि गरीब और असहाय लोगों से संबंधित मामलों की सुनवाइयां टलती जा रही हैं जिससे सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को चोट पहुंच रही है. शीर्ष अदालत अभी तक कश्मीर में 4जी सेवाएं बहाल नहीं करवा सकी है जो उसमें आ चुकी कमजोरी की एक त्रासद स्वीकारोक्ति है.
एक दलित लड़की के बलात्कार और प्रशासन द्वारा इस मामले में बरती गई लापरवाही के मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों दावा किया कि यह सब उन्हें और उनकी सरकार को बदनाम करने की एक ‘अंतरराष्ट्रीय साजिश’ का हिस्सा है. सच यह है कि भारतीय राज्य व्यवस्था को इस मामले में किसी विदेशी सहायता की जरूरत नहीं है. वह खुद ही खुद को बदनाम करने के लिए तैयार और इसकी इच्छुक दिखती रही है. यह लंबे समय से एक ऐसा देश रहा है जहां अगर कोई महिला, गरीब, मुसलमान या दलित है तो उसके लिए न्याय पाना मुश्किल रहा है. मौजूदा सत्ता के दौर में यह और भी मुश्किल हो गया है.
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