इस महीने की पांच तारीख को श्रीनगर शहर के बाहर, नेशनल हाइवे नंबर 44 पर तैनात सीआरपीएफ़ के जवानों पर हमला किया गया. मिलिटेंट्स के इस हमले में दो जवान मारे गए और तीन अन्य, जिनमें एक असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर भी शामिल था, घायल हो गए.

यह कश्मीर के इस हाइवे पर होने वाला पहला हमला नहीं था. अगर इतिहास पर नज़र दौड़ाएं और अभी के हालात भी देखें, तो शायद यह हमला आखिरी भी नहीं होगा. सालों से यहां हो रहे हमलों ने कश्मीर के इस हाइवे को सुरक्षा एजेंसियों के लिए तो सरदर्द बनाया ही है, यह कश्मीर के लोगों के लिए भी एक बुरा सपना बन गया है.

सवाल यह पैदा होता है कि ये हमले हो क्यों रहे हैं, इन्हें कौन अंजाम दे रहा है और क्यों अब एनएच-44 लोगों और सुरक्षा एजेंसियों के लिए सरदर्द बन गया है. इन सब बातों पर विस्तार से चर्चा होगी लेकिन पहले ज़रूरी है कि कश्मीर में इस हाइवे का महत्व समझा जाये.

कश्मीर एक घाटी है और इसको देश के अन्य राज्यों से जोड़ता है नेशनल हाइवे-44. वैसे तो यह हाइवे, जम्मू और श्रीनगर के बीच में 294 किलोमीटर का है, लेकिन यहां विशेष तौर पर बात हो रही है जवाहर टनल से श्रीनगर तक के इसके लगभग 95 किलोमीटर हिस्से की. यह कश्मीर घाटी का इकलौता राज मार्ग है और इसका ज़्यादातर हिस्सा मिलिटेन्सी प्रभावित दक्षिण कश्मीर से होकर जाता है.

यह हाइवे पहले एनएच-1ए हुआ करता था जो कश्मीर घाटी के विभिन्न शहरों, कस्बों और गांवों से होकर जाता था. ज़ाहिर है कि हर दिन सैन्य बलों के काफिलों को भी कश्मीर में आने-जाने के लिए इसी का इस्तेमाल करना होता था.

“और हमेशा हम देखते थे कि मिलिटेंट्स गांव और नगरों का फायदा उठा कर घात लगा कर हमले किया करते थे. बाज़ारों के बीच, जहां गलियों में से हमले करके भागने में आसानी होती थी” कश्मीर में स्थित एक वरिष्ठ इंटेलिजेंस अफसर ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

उन्होने पिछले एक दशक में ही हुए कई हमलों के उदाहरण दिये, चाहे वो पंपोर में हुआ हमला हो जिसमें आठ सीआरपीएफ़ के जवान मारे गए थे-या फिर बिजबेहरा नगर में बार-बार होने वाले हमले हों, जिनमें कई सैनिक और सीआरपीएफ़ के जवानों ने अपनी जानें गंवा दीं.

“और ये हमले अभी के नहीं हैं. ये 90 के दशक में भी हुआ करते थे. ऐसे ही बाज़ारों में घात लगा के मिलिटेंट्स बैठते थे और हमला करते थे” इस इंटेलिजेंस अफसर ने बताया, “साथ ही इस पुराने हाइवे पर पत्थरबाजी भी बहुत हुआ करती थी.”

इसी हाइवे पर 2017 में अमरनाथ यात्रियों पर भी अनंतनाग के बटेंगू इलाक़े में हमला हुआ था जिसमें करीब आठ श्रद्धालु मारे गए थे. “और वो भी एक बाज़ार में ही हुआ था जहां हमला करने वाले एक गली के रास्ते भाग गए थे.”

90 का दशक खत्म होते-होते, कश्मीर में भी देश के अन्य भागों की तरह ट्रैफिक बढ्ने लगा था और एक नए, बड़े हाइवे की ज़रूरत महसूस हुई. 2010 के आस-पास इस नए हाइवे पर काम शुरू हुआ और सारी चीजों को सामने रखते हुए सारे आबादी वाले बाइपास कर दिये गए.

जो नया हाइवे, एनएच-44 के नाम से, बना यह ज़्यादातर धान के खेतों के बीच से होकर गुज़रता है, जहां दूर-दूर तक न तो बाज़ार हैं न आबादी. यह एनएच-44, 2018 के मध्य में ट्रैफिक के लिए खोल दिया गया था.

लोग काफी खुश थे, क्योंकि अब काजीगुंड और श्रीनगर के बीच का 73 किलोमीटर का रास्ता एक से सवा घंटे में तय हो जाता था और वहीं सुरक्षा एजेंसियां भी खुश थीं क्योंकि सिर्फ कुछ जगहों पर अमरनाथ यात्रा के लिए लगाए गए बंकरों के अलावा उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ रहा था.

“और उनमें से भी कई बंकर 2018 के आखिर तक हटा दिये गए थे” एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

लेकिन फिर वह हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था. जहां सुरक्षा एजेंसियां चैन की सांस ले रही थीं वहीं मिलिटेंट्स ने कश्मीर में अभी तक का सबसे बड़ा हमला अंजाम दे दिया और वह भी इसी “सुरक्षित” एनएच-44 पर.

14 फ़रवरी 2019 को पुलवामा जिले के लेथपोरा इलाक़े में एक आत्मघाती कार विस्फोट में 40 से ज़्यादा सीआरपीएफ़ के जवान मारे गए और उतने ही लगभग ज़ख्मी भी हुए थे. इस हमले ने, जिसको अब हम पुलवामा हमले के नाम से याद करते हैं, भारत और पाकिस्तान को युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था.

फ़रवरी का अंत आते-आते “बालाकोट स्ट्राइक” भी हो गयी थी और पाकिस्तान ने अभिनंदन का जहाज़ भी गिरा दिया था.

पुलवामा हमले के बाद एनएच-44 | पीटीआई

और इसी समय से यह हाइवे कश्मीर की आम जनता के लिए एक बुरा सपना बन गया है.

पुलवामा हमले के अगले दिन ही तब के देश के गृह मंत्री, राजनाथ सिंह, कश्मीर आए और हालात का जायजा लेते हुए यह निर्णय लिया कि सुरक्षा बलों के कॉन्वॉय के समय इस हाइवे से निकलने वाले असैनिक ट्रैफिक को रोक दिया जाएगा. “हां मुझे पता है लोगों को थोड़ी तकलीफ होगी लेकिन मुझे लगता है कि लोग हमें इस बारे में समर्थन ज़रूर देंगे” गृह मंत्री का कहना था.

यह थोड़ी सी तकलीफ थोड़ी सी नहीं रहने वाली थी और कश्मीर में उस वक्त लोगों को इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था. कई दिनों तक कश्मीर में लोग घंटों ट्रैफिक में खड़े रहे, स्कूल बसें और एम्बुलेंस जैसी सेवाओं को भी रोका जाने लगा, लोग अपने दफ्तर देर से पहुंचने लगे.

यह सिलसिला यहीं नहीं रुका. इसके कुछ समय बाद अप्रैल के महीने में राज्य प्रशासन ने (जो उस समय राज्यपाल सत्यपाल मलिक चला रहे थे) यह आदेश सुनाया कि इस हाइवे पर हफ्ते में दो दिन सिर्फ सेना की गाडियां ही चला करेंगीं.

लोगों ने उनके इस निर्णय के बाद प्रदर्शन किए, गुहार लगाई लेकिन प्रशासन टस से मस नहीं हुआ और यह प्रतिबंध पूरे दो महीने तक लागू रहा. “उस समय यह सोचा जा रहा था कि सुरक्षा बलों को कैसे सुरक्षित रखा जाये. यह सब एक तरह से ट्रायल बेसिस पर हो रहा था,” नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं.

बाद में यह प्रतिबंध तो हट गया लेकिन कश्मीर में लोगों की दिक्कतें कम नहीं हुई हैं. अभी भी घंटों इस हाइवे पर ट्रैफिक बंद रहता है ताकि सेना की गाडियां निकल सकें. “कश्मीर में लोगों की ये खुशी कि अब सफर करना आसान हो गया है बहुत थोड़े दिनों के लिए थी” एक टॅक्सी ड्राईवर, समीर अहमद, ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

समीर अहमद श्रीनगर और अनंतनाग के बीच टैक्सी चलाते हैं और कहते हैं कि वे रोज़ घंटों एनएच-44 पर इस इंतज़ार में खड़े रहते हैं कि कब कॉन्वॉय खत्म हो और कब वे आगे का सफर तय करें. “अभी भी में रोज़ देखता हूं कि एम्बुलेंस भी रोक दी जाती हैं, आम लोगों की तो बात ही नहीं है.”

सत्याग्रह पिछले एक साल से कोशिश कर रहा है कि कोई अधिकारी इस विषय पर खुल कर बात करे, लेकिन जवाब सिर्फ, “इस बारे में मुझे बात नहीं करनी,” या “मैं अभी व्यस्त हूं’’ ही मिलते हैं.

पुलवामा हमले से लेकर अभी तक काजीगुंड और श्रीनगर के बीच दर्जनों नए बंकर बना लिए गए हैं, जिनमें चौबीसों घंटे सुरक्षा बल तैनात होते हैं. लेकिन लोगों की मुश्किलें फिर भी कम होती दिखाई नहीं देती हैं.

और चीजों का जायजा लें तो ये बंकर सुरक्षा एजेंसियों की भी मुश्किलें बढ़ा ही रहे हैं कम नहीं कर रहे.

ये बंकर ज़्यादातर अनुच्छेद-370 हटाये जाने के बाद लगे लॉकडाउन के दौरान बनाए गए हैं, ईंट-पत्थरों का इस्तेमाल कर के. बंकरों में सारी सुविधाएं हैं, पानी से लेकर बिजली तक.

लेकिन मुश्किल यह है कि ये बंकर सड़क पर हैं और आसपास सिर्फ खेत-खलिहान हैं. कहीं-कहीं आस-पास की जगह घने पेड़ों से घिरी हुई है. सत्याग्रह ने इन बांकरों में तैनात कई सुरक्षा बलों से बात की जो आपके हाथ में कागज-कलम देखकर सतर्क हो जाते हैं और “हमारी ड्यूटी है’’ कह कर बात को टाल देते हैं.

लेकिन आप कागज-कलम बंद करें और उनसे उधर-इधर की बातें कर लें तो ये लोग बताते हैं कि उन्हें भी सड़क पर इन बंकरों में रहना खतरे से खाली नहीं लगता है.

“सड़क है, कितनी गाड़ियों पर नज़र रखेंगे आप. और हमें हर बार नज़र रखनी है, आतंकियों को बस एक मौका मिलना चाहिए” अनंतनाग जिले में बंकर पर तैनात एक सीआरपीएफ़ कर्मी सत्याग्रह को बताते हैं, “और फिर आस-पास देखें तो या तो खेत हैं या पेड़. कोई इन पेड़ों के बीच से निकलकर हम पर गोली चला दे तो? इन चीजों को कैसे रोका जा सकता है?”

एनएच-44 | एएफपी

और बीते पांच अक्टूबर को बिलकुल यही हुआ भी जब बाइक पर सवार दो मिलिटेंट्स ने सीआरपीएफ़ के जवानों पर अंधाधुंध गोलियां चलायीं.

कश्मीर के डाइरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, दिलबाग सिंह, की बात सुनें तो वे भी यही कहते हैं. सिंह कहते हैं कि हाइवे पर असैनिक गाडियां 99.9 प्रतिशत होती हैं और मिलिटेंट्स की मूवमेंट सिर्फ 0.1 प्रतिशत.

“अब सिर्फ 0.1 प्रतिशत के लिए बाकी सारी 99.9 प्रतिशत गाड़ियों की तलाशी नहीं ली जा सकती है. हम अपने तरीके से, इनपुट के आधार पर, गाडियां रोक कर तलाशी लेते हैं” सिंह कहते हैं और बताते हैं कि हाइवे पर सुरक्षा के विस्तृत इंतजाम हैं और सुरक्षा एजेंसियां अपने तरीके से यहां पर हमले रोकने की कोशिश कर रही हैं.

लेकिन सवाल फिर वही है कि हाइवे पर इतनी भारी संख्या में सुरक्षा बल खड़े करना उन्हें खतरे में डालना है कि नहीं. “इतने सारे बंकर बनाकर हमने सेना के कॉन्वॉय को तो सुरक्षित कर लिया है, लेकिन ये लोग जो उसकी सुरक्षा में खड़े हुए हैं ये भी तो चपेट में आ सकते हैं” पुलिस अधिकारी ने सत्याग्रह से हुई लंबी बातचीत में बताया.

वे सिंह के बयान पर सवाल करते हुए पूछते हैं कि क्या हर बार पुलिस या सुरक्षा बलों को मिलिटेंट्स के मूवमेंट की खबर पहले ही मिल जाएगी. “ऐसा संभव नहीं है न. और फिर जब हमला होता है तो असैनिकों का ध्यान रखना पड़ता है, जैसे सिंह साहब कहते हैं कि 99.9 प्रतिशत गाड़ियां असैनिकों की होती हैं. उनमें से किसी को गोली लग गई तो?”

यही खतरा कश्मीर के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, विजय कुमार, ने भी अपने बयान में जताया है. पांच अक्टूबर के हमले के बाद कुमार ने कहा कि सुरक्षा बलों को असैनिकों का ध्यान रखते हुए जवाबी कार्रवाई बहुत सोच-समझ कर करनी पड़ती है.

और ऐसे में हमला करने वाले मिलिटेंट्स को भागने का मौका मिल जाता है.

यह खतरा अब और बढ़ गया है क्योंकि दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में सेना अपने लिए इसी एनएच-44 पर एक लैंडिंग स्ट्रिप तैयार कर रही है. 3.5 किलोमीटर लंबी यह लैंडिंग स्ट्रिप 119 करोड़ रुपये की लागत से बनाई जा रही है और यह इस हाइवे के बिलकुल बीचों-बीच है.

“ऐसे में इस स्ट्रिप की भी सुरक्षा बढ़ानी पड़ेगी, ज़ाहिर सी बात है. अब और सुरक्षा बल तैनात होंगे और मिलिटेंट्स को और टार्गेट मिल जाएंगे” पुलिस अधिकारी ने सत्याग्रह को बताया, “परेशानी यह है कि अभी तक इस समस्या का समाधान नहीं मिल पाया है.

हालांकि ऐसा नहीं है कि इस विषय पर काम नहीं हो रहा है:

कुछ समय पहले सत्याग्रह ने नेशनल हाइवेज़ अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) के रीजनल मैनेजर, हेमराज भगत, से बात की थी जिन्होंने बताया था कि एनएच-44 के साथ-साथ एक दीवार खड़ी करने का प्रस्ताव भी रखा गया है.

उनसे इस विषय में हमने फिर बात की तो उन्होंने बताया कि श्रीनगर-काजीगुंड के बीच यह दीवार बनाने का प्रस्ताव अभी सिर्फ डीटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट यानी डीपीआर के स्तर पर ही है. “यह डीपीआर बनते ही प्रशासन को दिया जाएगा और देखते हैं कि मंजूर होता है या नहीं” भगत कहते हैं.

हालांकि सिविल एडमिनिस्ट्रेशन में सूत्रों ने सत्याग्रह को बताया कि अनंतनाग में बन रही लैंडिंग स्ट्रिप के इर्द-गिर्द दीवार खड़ी करने के प्रस्ताव पर काम जारी है. “मुझे कल ही पता चला है और मैंने भी अपने तौर पर असैनिकों को इससे होने वाली असुविधा के बारे में प्रशासन के सामने बात रखी है. देखते हैं क्या होता है” इनमें से एक सूत्र सत्याग्रह को बताते हैं.

जानकार कहते हैं कि दीवार खड़ी करना ही एक मात्र समाधान है.

“इससे मिलिटेंट्स के आने और जाने के रास्ते कम हो जाएंगे और उन पर नज़र रखने में आसानी होगी,” दक्षिण कश्मीर में ही स्थित एक पुलिस अधीक्षक ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा. और सिर्फ इसी विषय पर बात नहीं हो रही है. सुरक्षा एजेंसियां इस खतरे को मिलिटेन्सी की कमर तोड़ कर कम करने में भी लगी हुई हैं.

इंटेलिजेंस के अधिकारियों के मुताबिक ये हमले ज़्यादातर या तो लश्कर-ए-तोइबा या फिर जैश-ए-मुहम्मद के मिलिटेंट्स करते हैं, और इन दोनों गुटों की फिलहाल कमर टूटी हुई है, “क्योंकि इस साल सिर्फ लश्कर के ही 24 पाकिस्तानी आतंकी मारे गए हैं अलग-अलग मुठभेड़ों में,”

हालांकि ये अधिकारी कहते हैं कि इस वजह से इन हमलों का खतरा और बढ़ जाता है और ऐसे में सतर्क रहने की और ज़्यादा ज़रूरत है.

“अब इन हमलों का खतरा ज़्यादा है क्योंकि, इन गुटों को अपनी ताकत दिखानी है. अपनी उपस्थिति इन हमलों से ज़्यादा किसी और चीज़ से नहीं दिखाई जाती है” उन्होंने बताया, “हालांकि इन हमलों को रोकने का सबसे आसान तरीका भी यही है कि इन मिलिटेंट्स को खत्म कर दिया जाये.”

दिलबाग सिंह भी 24 पाकिस्तानी मिलिटेंट मारे जाने की पुष्टि करते हुए कहते हैं, “बाकी कुछ बचे हैं उनको भी जल्दी खत्म कर दिया जाएगा.”

पुलिस अपनी इंटेलिजेंस के जरिये इन मिलिटेंट्स का ग्राउंड सपोर्ट खत्म करने में जुटी भी हुई है. जैसे हाल ही में, पांच अक्टूबर के हमले के कुछ दिन बाद ही, श्रीनगर में छह लोग पकड़े गए थे, जो पुलिस ने बताया कि हाइवे पर हुए हमलों में शामिल थे. उनके पास से छह गाडियां भी पकड़ी गयी हैं.

अब जहां एक तरफ यह थोड़ी राहत की बात है वहीं इन लोगों का पकड़ा जाना यह भी दर्शाता है कि मिलिटेंट्स भी कोशिश करते ही रहेंगे. और हाइवे पर हमले करने में मिलिटेंट्स का ज़्यादा ध्यान इसलिए भी होता है क्योंकि ऐसे हमलों को मीडिया कवरेज भी ज्यादा मिलता है.

तो जब तक सुरक्षा एजेंसियां कोई पक्का समाधान नहीं ढूंढ लेती हैं तब तक एनएच-44 शायद खबरों में आता रहगा.