अपने समय के अधिकतर राजघरानों की ही तरह, बहमनियों की दुनिया भी सत्ता, लालच और आपस की तीखी प्रतिद्वंदिता पर आधारित थी. उनके चारों तरफ ईर्ष्या फैली थी, खून और वफ़ादारी के जहरीले रिश्ते थे, भाइयों में झगड़े होते रहते थे, शक और नफ़रत का राज था. इस बात से परिचित पहले सुल्तान ने, 1358 में अपनी मौत के पहले, अपनी संतानों को सलाह दी थी कि वो एकजुट रहें, ऐसा ना हो कि लड़ाई-झगड़े उनके नए राज्य को खतरे के ऐसे भंवर में डाल दें जिससे बाहर ना निकला जा सके. और उन शुरूआती दिनों में तो चीजें फिर भी व्यवस्थित थीं. हसन गंगू के वारिस मुहम्मद शाह बहमनी ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए पहला कदम उठाया था. उसने दरबार में प्रोटोकॉल लागू किया, सुल्तान के प्रति शिष्टाचार और मर्यादा प्रदर्शित करने की व्यावस्था की और अपने इलाकों में रोजमर्रा के कामकाज के लिए नौकरशाही की प्रणाली को मजबूत किया.

यह शख्स एक निडर योद्धा भी था, उसने बंदूकों और तोपों का भरपूर इस्तेमाल करने के मकसद से बारूद के कारखाने भी लगाए. जब तेलुगु योद्धाओं के संघ के नेता कपया नायक, जिसने दो दशकों पहले काकतीयों के अधिकार क्षेत्र से दिल्ली के क्षत्रपों को बाहर निकालकर उनकी जगह ले ली थी, ने मुहम्मद शाह से रायचूर छीनने के लिए विजयनगर के साथ हाथ मिलाया, तो मुहम्मद शाह ने उसे हराया, और उसका पीछा ‘वारंगल के द्वार’ करता रहा. फिरोजा तख्त के साथ-साथ, नायक को मुहम्मद शाह के पास बहुत सारा सोना, अपने सर्वश्रेष्ठ हाथी, और उससे भी महत्वपूर्ण गोलकोंडा का अभेद्य किला छोड़ने को मजबूर होना पड़ा. यहीं से बहमनियों का विस्तार पूर्व दिशा की ओर होना शुरू हुआ, जो तभी खत्म हुआ जब उनकी सेनाएं बंगाल की खाड़ी तक पहुंच गई.

मुहम्मद शाह के बाद उसके एक बेटे ने गद्दी संभाली, जिसकी कद-काठी चौंकाने वाली थी, लेकिन उसका शासनकाल काफी छोटा था. केवल बीस साल की उम्र में मुजाहिद शाह ने विजयनगर पर आक्रमण किया, क्योंकि उसने ‘शहर की खूबसूरती की काफी तारीफ सुन रखी थी,’ लेकिन साथ ही इसलिए भी एक एक किले को सौंप देने की उसकी मांग को राय ने खारिज कर दिया था. जब छोटी उम्र का सुल्तान विजयनगर पहुंचा तो उसने पाया कि दुश्मन ने खाली कर दिया है, लेकिन जंगल में किसी गुप्त ठिकाने से गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया है. ये अध्याय तब खत्म हुआ जब सुल्तान को तुंगभद्रा पार करके अपने इलाके में लैटने को मजबूर होना पड़ा, जिसमें उसे फायदा तो कुछ नहीं हुआ, उल्टा उसकी इज्जत को चोट पहुंची.

एक कहानी तो ये भी कहती है कि वो एक बद्दुआ के साथ लौटा था – विजयनगर में उसने एक हनुमान मंदिर को नष्ट किया था और भगवान की पत्थर की मूर्ति को हाथों से बिगाड़ा था. एक मरते हुए ब्राह्मण ने उसे बद्दुआ दी थी ‘इस गलती के लिए तुझे मौत मिलेगी जैसे ही तू अपने राज्य पहुंचेगा.’ ब्राह्मण ने चाहे जो कहा हो, तथ्य यही है कि नौजवान सुल्तान उसके थोड़े समय बाद ही मर गया. और इसका कोई संबंध बद्दुआ से हो या नहीं, उसके कर्मों से ज़रूर था. चौदह साल की उम्र में सुल्तान को कुश्ती का बहुत शौक था और उसने एक बार अपनी ताकत का घमंड दिखाने के लिए एक शख्स की गर्दन तोड़ दी थी. अब, 1378 में विजयनगर के उसके बिगड़े अभियान के बाद, राज्य को सुल्तान से छुटकारा दिलाने की साजिश रची गई. 16 अप्रैल 1378 को मुजाहिद शाह की हत्या कर दी गई और दोषियों में उसे पान परोसने वाला भी शामिल था, जो उसी आदमी का बेटा था, जिसकी गर्दन सुल्तान ने अपने घमंड में तोड़ दी थी.

हसन के दूसरे बेटे से हुए उसके एक और पोते को गद्दी पर बैठाया गया. लेकिन हसन की एक पोती ये चुनाव चुपचाप बर्दाश्त नहीं किया, और उसी साल कटार घोंपकर उसकी हत्या उस समय कर दी गई, जब वो गुलबर्गा की बड़ी मस्जिद में नमाज पढ़ रहा था. पोती के लोगों ने शाही खजाने पर कब्जा कर लिया था, और सुल्तान के नौ साल के बेटे को अंधा कर दिया था, इस तरह हसन के वारियों का ये परिवार हमेशा के लिए राजनीतिक रूप से मिटा दिया गया था.

इस्लामी कानून के तहत एक अंधा आदमी सुल्तान बनेन के काबिल नहीं था. फिरोजा तख्त पर अब एक ऐसा सुल्तान बैठा जिससे मनमाफिक काम करा लेना आसान लगता था औऱ उसने अपने लिए जरूरी सारे वफादार खरीद लिए थे. वैसे ये शख्स, मुहम्मद द्वितीय नेकनीयत था और अपने राजकाज के उन्नीस वर्षों में इसने अपने आप को हर तरह के राजनीतिक टकरावों से दूर रखा, इसलिए भी कि एक विनाशकारी अकाल ने काफी लंबे समय तक सुल्तान को व्यस्त रखा था. जैसा कि बहमन नामा में इस ‘दक्कन के अरस्तू’ के बारे में कहा गया है, ‘नौजवान सुल्तान ने अपनी दौलत से दुनिया पर काबू किया/ और राजसी छत्र को अपने ऊपर बनाए रखा/ कई वर्षों तक उसने कामयाबी और समृद्धि का जवीन जिया/ और राज्य की गद्दी पर बगैर किसी विवाद के रहा.’

उसके शुरूआती कामकाज में एक था दरबार खर्च पर गरीबों को पढ़ाने के लिए मदरसा खोलना और इसके बाद भलाई के खई और काम किए गए. मिसाल के लिए अकाल के असर को कम करने के मकसद से दस हजार बैलगाड़ियां नियमित तर पर उसके राज्य के बाहर के बाज़ारों में जाती थीं औऱ अनाज लाती थीं. लेकिन उसका सबसे सनसनीखेज काम तब सामने आया जब इस कला प्रेमी सुल्तान ने मशहूर फारसी कवि हाफिज को भारत आने का बुलावा भेजा. हाफिज तैयार था और वो अपने जहाज पर चढ़ने के लिए होर्मुज भी गया. लेकिन उसकी यात्रा शुरू होने के तुरंत बाद आए एक भयानक तूफान उसकी हिम्मत कमजोर कर दी, वो वापस लौट गया और खेद जताते हुए एक कविता भेज दी. फिर भी, उसकी कोशिश को देखते हुए प्रशंसक सुल्तान ने हाफिज को समुद्र के रास्ते एक हजार सोने की मुहरें भेज दीं.