भारतीय सेना ने उन रिपोर्टों को खारिज किया है जिनमें कहा गया था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में ‘माइक्रोवेव’ हथियारों का इस्तेमाल किया है. इस इलाके में भारत और चीन की सेनाओं के बीच बीते कई महीनों से टकराव चल रहा है. बीते जून में तो एक झड़प में दोनों पक्षों के 60 से भी ज्यादा सैनिकों की मौत की खबर आई थी. अपने ट्वीट में सेना ने कहा, ‘पूर्वी लद्दाख में माइक्रोवेव हथियारों के इस्तेमाल को लेकर मीडिया में आई खबरें बेबुनियाद हैं. यह खबर फर्जी है.’
यह विवाद ब्रिटिश अखबार द टाइम्स में एक खबर छपने के बाद शुरू हुआ. इसमें दावा किया गया था कि लद्दाख की पैंगॉन्ग झील के पास भारतीय सेना का कब्जा हटाने के लिए चीन ने बीती 29 अगस्त को एक माइक्रोवेव हथियार का इस्तेमाल किया था. यह दावा बीजिंग की रेनमिन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर जिन केनरॉन्ग के हवाले से किया गया था. उनका कहना था कि चीनी सैनिकों ने चोटियों पर स्थित दो अहम रणनीतिक ठिकानों को पारंपरिक हथियारों के इस्तेमाल के बिना खाली करा लिया. जिन ने कहा, ‘हथियारों के इस्तेमाल के 15 मिनट के भीतर ही चोटी पर कब्जा जमाए लोगों ने उल्टियां शुरू कर दीं. उनके लिए खड़े रह पाना भी मुश्किल हो गया था, इसलिए वे भाग गए. इस तरह से हमने वो जमीन वापस ले ली. हमने इसका प्रचार नहीं किया क्योंकि हमने समस्या बढ़िया तरीके से हल कर ली थी. उन्होंने (भारत) भी ये बात छिपाई क्योंकि उनकी इतनी बुरी हार हुई थी.’
जून में हुई झड़प के बाद हालात को सामान्य बनाने के लिए भारत और चीन के बीच लगातार बातचीत हो रही थी. लेकिन काफी समय तक इसमें कोई प्रगति नहीं हुई. अगस्त में सीडीएस जनरल बिपिन रावत का बयान आया था कि सैन्य कार्रवाई द्वारा चीन को पीछे धकेलने का विकल्प भी खुला है. इसके बाद खबरें आईं कि भारतीय सेना ने पैंगॉन्ग झील के दक्षिणी छोर पर स्थित पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया है. जानकारों के मुताबिक इस कार्रवाई का नतीजा यह हुआ कि रणनीतिक रूप से उसे इस इलाके में चीनी सेना पर बढ़त मिल गई. अब चोटियों पर स्थित अपने ठिकानों से वह मोल्डो में स्थित चीन के अहम सैन्य अड्डे पर नजर भी रख सकती थी. अब इन्हीं ठिकानों को माइक्रोवेव हथियारों के इस्तेमाल से खाली कराए जाने का दावा किया जा रहा है.
माइक्रोवेव हथियार, डायरेक्टेड एनर्जी वेपन (डीईडब्ल्यू) की श्रेणी में आते हैं. इन हथियारों में ऊर्जा को केंद्रित (फोकस) करके उसे सोनिक, लेजर या फिर माइक्रो तरंगों के रूप में लक्ष्य की तरफ दागा जाता है. चूंकि इन तरंगों पर गुरुत्वाकर्षण का बहुत कम असर पड़ता है इसलिए इनसे बने हथियार कहीं ज्यादा दूर तक और सटीक मार कर सकते हैं. चूंकि ये तरंगों का इस्तेमाल करते हैं सो इन्हें ऐसे इस्तेमाल किया जा सकता है कि दुश्मन को कोई खबर न लगे. यह खासियत भी इन्हें परंपरागत हथियारों पर हथियारों पर बढ़त देती है.
द टाइम्स की खबर में जिन के हवाले से कहा गया है कि चीन ने लद्दाख में जो हथियार इस्तेमाल किए उनमें हाई फ्रीक्वेंसी वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों का इस्तेमाल किया गया था. ये तरंगें त्वचा की सतह के नीचे मौजूद कोशिकाओं में मौजूद पानी से टकराकर उसका तापमान बढ़ाने लगती हैं. इसके चलते असहनीय पीड़ा होती है. ये तरंगे माइक्रोवेव अवन में भी इस्तेमाल होती हैं. इसमें एक इलेक्ट्रॉन ट्यूब (मैगनेट्रॉन) होती है. यह इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें पैदा करती है जो माइक्रोवेव के भीतर रखे खाने में मौजूद पानी के अणुओं से टकराती हैं. यह टक्कर एक घर्षण पैदा करती है जिससे खाना पकता या गर्म होता है. इसलिए जिन चीजों में ज्यादा पानी होता है वे अवन में जल्दी पकती हैं.
डीईडब्ल्यू को कभी साइंस फिक्शन के तौर पर देखा जाता था. लेकिन अब यह हकीकत बन चुके हैं. इस दिशा में गंभीर कोशिशों की शुरुआत 19वीं सदी के आखिर से हुई थी. 1930 में रडार की खोज को इस रास्ते में मील का पत्थर माना जाता है. इसके बाद सैन्य क्षेत्र में वायरलेस और रडार तकनीक का तेजी से उभार हुआ. माइक्रोवेव हथियारों को युद्ध का भविष्य माना जा रहा है. ऐसे कई देश हैं जिनके पास इंसानों या फिर इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम्स को निशाना बनाने वाले ये हथियार हैं. एक खबर के मुताबिक चीन ने 2014 में एक एयर शो के दौरान पहली बार पॉली डब्ल्यूबी-1 नाम का एक माइक्रोवेव हथियार प्रदर्शित किया था. अमेरिका ने भी इस तरह के कुछ हथियार विकसित किए हैं जिन्हें वह एक्टिव डिनायल सिस्टम कहता है. कहा जाता है कि उसने ये हथियार अफगानिस्तान में तैनात भी किए थे, लेकिन इन्हें कभी इस्तेमाल नहीं किया गया. भारत में डीआरडीओ भी इस तरह के हथियारों की दिशा में काम कर रहा है.
2017 में खबरें आई थीं कि क्यूबा के हवाना में अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों को इस तरह के किसी हथियार से निशाना बनाया गया. एक साल बाद ही खबर आई कि चीन के गुआंगजू में स्थित अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर भी इसी तरह का संदिग्ध हमला हुआ है. इन घटनाओं में तीन दर्जन से भी ज्यादा अमेरिकी राजनयिकों और उनके परिवारों को निशाना बनाया गया था. इन सभी लोगों ने अपने घरों या होटलों के कमरों में पहले कर्कश आवाज या फिर तेज कंपन और इसके बाद उल्टी, सिरदर्द, थकावट और चक्कर आने के अलावा सुनने और नींद में दिक्कत होने की शिकायत की. चूंकि इस तरह की घटना पहले हवाना में हुई थी तो इन लक्षणों वाली अवस्था को हवाना सिंड्रोम ही कहा जाने लगा.
सवाल है कि क्या चीन ने वास्तव में लद्दाख में इस तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया. बीबीसी से बातचीत में रक्षा मामलों के जानकार कर्नल दानवीर सिंह कहते हैं, ‘इस तरह के सभी हथियार लाइन-ऑफ-साइट यानी एक सीधी रेखा में काम करते हैं. पहाड़ी इलाकों में इनका इस्तेमाल वैसे भी आसान नहीं है… ये पूरी तरह से एक चीनी प्रोपेगैंडा है.’ दूसरे जानकार भी यही बात दोहराते हैं. रक्षा मामलों पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राहुल बेदी कहते हैं, ‘ये एक फेक न्यूज लगती है. ये एक चीनी प्रोपेगैंडा लगता है. इसमें कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है.’ जानकारों के मुताबिक छोटे-मोटे लेवल पर ऐसा हो भी सकता है, लेकिन जितने बड़े पैमाने का दावा चीन कर रहा है वह बिलकुल असंभव है.
जानकारों के मुताबिक अगर चीन इस तरह का कोई काम करता तो भारत भी चुप नहीं बैठता और नतीजतन दोनों देशों के बीच टकराव एक नए स्तर पर पहुंच जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. जून में हुए टकराव के बाद से दोनों देश लगातार बातचीत के जरिये हालात को सामान्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं. आठ नवंबर को ही दोनों पक्षों के सैन्य कमांडरों के बीच वार्ता का आठवां दौर संपन्न हुआ है.
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