करीब तीन दशक से वैक्सीन शोधकर्ता एमआरएनए तकनीक से उम्मीदें बांधते और आखिर में निराश होते रहे हैं. लेकिन इस बार ये उम्मीदें पूरी होती दिख रही हैं. चर्चित फार्मा कंपनियों फाइजर और मॉडर्ना का दावा है कि कोरोना वायरस के खिलाफ तैयार की गई उनकी एमआरएनए वैक्सीन असाधारण रूप से कारगर रही हैं. फाइजर के मामले में यह आंकड़ा 90 फीसदी है जबकि मॉर्डना की वैक्सीन 94.5 फीसदी तक असरदार रही. दोनों कंपनियों ने यह दावा फेज-3 ट्रायल के बाद किया है. इस चरण में लोगों की एक बड़ी संख्या पर वैक्सीन का परीक्षण किया जाता है. फाइजर ने यह परीक्षण 43,538 लोगों पर किया जबकि मॉडर्ना के मामले में यह आंकड़ा 30 हजार था. उम्मीद की जा रही है कि जल्द ही ये वैक्सीन सामान्य लोगों के लिए भी उपलब्ध हो जाएंगी.

आगे बढ़ने से पहले यह समझते हैं कि वैक्सीन बनती कैसे है. आम तौर पर वैक्सीन में वायरस का ही निष्क्रिय स्वरूप या फिर उसका वह खास प्रोटीन होता है जिसकी मदद से वायरस हमारे शरीर की किसी कोशिका से जुड़कर उसे संक्रमित करता है. इसलिए जब यह वैक्सीन हमें लगाई जाती है तो वायरस या उससे जुड़े प्रोटीन को पहचानते ही शरीर का रोग प्रतिरक्षा तंत्र यानी इम्यून सिस्टम सचेत हो जाता है और इसकी प्रतिक्रिया में एंटीबॉडीज यानी वायरस से लड़ने वाले खास प्रोटीन बना देता है. नतीजा यह होता है कि जब असल वायरस हम पर हमला करता है तो शरीर में पहले से ही मौजूद ये एंटीबॉडीज उसे घेर कर उसका खात्मा कर देते हैं. एमआरएनए वैक्सीन अब तक प्रचलित वैक्सीनों से इस मायने में अलग है कि इसमें कोरोना वायरस के जेनेटिक मटीरियल (आनुवंशिक सामग्री) का एक खास हिस्सा होता है. इसे मैसेंजर आरएनए या एमआरएनए कहते हैं. शरीर में दाखिल होने पर यह एमआरएनए हमारी ही कोशिकाओं को वायरस वाला वह प्रोटीन बनाने का निर्देश देने लगता है जिसकी मदद से असली कोरोना वायरस हम पर हमला बोलता है. नतीजतन हमारा इम्यून सिस्टम सचेत हो जाता है और एंटीबॉडीज बनाने लगता है.

वैक्सीन बनाने के पारंपरिक तरीकों में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ये बहुत समय लेते हैं. शोध की शुरुआत से लेकर विभिन्न परीक्षणों और आखिर में नियामक से स्वीकृति तक यह अवधि कई साल की हो सकती है. तब तक महामारियां व्यापक विनाश का कारण बन सकती हैं जैसा कि हम अभी कोविड-19 के मामले में देख ही रहे हैं. एमआरएनए वैक्सीन का सबसे बड़ा फायदा यही है कि इसे बहुत कम समय में विकसित किया जा सकता है. जानकारों के मुताबिक इसकी वजह यह है कि वायरस का निष्क्रिय स्वरूप या फिर उससे जुड़ा प्रोटीन विकसित करने में काफी वक्त लगता है. एमआरएनए वैक्सीन के निर्माण में ऐसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि इसमें जोर शरीर को ही वायरस से जुड़े प्रोटीन बनाने के लिए उत्प्रेरित करने पर होता है. एमआरएनए की संरचना वायरल प्रोटीन के मुकाबले कहीं कम जटिल होती है इसलिए इसे बनाने और इसके बड़े पैमाने पर उत्पादन में भी ज्यादा समय नहीं लगता. कम जटिल होने के चलते इसे भविष्य में दूसरी महामारियों के लिए भी बहुत कम समय में रि-डिजाइन किया जा सकता है.

जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, एमआरएनए से वैक्सीन बनाने की कोशिशें काफी पहले से हो रही हैं. लेकिन समस्या यह थी कि एक तो एमआरएनए बहुत ही अस्थिर प्रकृति का होता है जिसके चलते यह बहुत आसानी से दूसरे स्वरूपों में विभाजित हो जाता है. दूसरी बात यह है कि मानव शरीर का इम्यून सिस्टम इसे बहुत जल्दी पहचानकर खत्म कर देता है जिसके चलते इसे इच्छित लक्ष्य तक पहुंचा पाना टेढ़ी खीर हो जाता है. कुछ समय पहले ही वैज्ञानिकों ने एमआरएनए को स्थिर बनाने और इसे कुछ सूक्ष्म कणों के भीतर पैक करके शरीर में भेजने का एक तरीका खोजा था. इससे वैक्सीन बनाने की राह में खड़ी एक बड़ी बाधा दूर हो गई.

जानकारों के मुताबिक फाइजर और मॉडर्ना की वैक्सीनों के फेज-3 ट्रायल के बाद अगर सब कुछ ठीक रहा तो एमआरएनए कोविड-19 वैक्सीन अपनी तरह की पहली (एमआरएनए) वैक्सीन होगी. इसने परीक्षणों में तो उत्साहजनक नतीजे दिए हैं, लेकिन अभी इन परीक्षणों से जुड़ी पूरी जानकारियां सामने नहीं आई हैं. मसलन अभी यह पता नहीं है कि जिन लोगों को यह वैक्सीन दी गई उन पर कोई दूसरे हानिकारक प्रभाव तो नहीं पड़े. अभी यह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि एमआरएनए वैक्सीन से कितने समय तक कोरोना वायरस से सुरक्षा मिल सकती है. इसके अलावा इस बारे में भी पूरी जानकारी नहीं है कि क्या यह वैक्सीन हर उम्र या नस्ल के लोगों पर उतनी ही असरदार है या नहीं. इन तमाम जानकारियों की पुष्टि होने के बाद ही यूएस-एफडीए और दूसरे नियामक वैक्सीन को मंजूरी देंगे और तभी इसकी आगे की राह साफ हो सकेगी.

इन सब बातों के अलावा एक चुनौती यह भी है कि इस तरह की वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिए इसे बहुत ही कम तापमान में रखना होता है. उदाहरण के लिए फाइजर की वैक्सीन को -70 डिग्री तापमान पर रखना होगा. इसे अल्ट्रा कोल्ड स्टोरेज कहा जाता है. नॉर्मल रेफ्रिजेरेशन यानी किसी घरेलू फ्रिज में यह वैक्सीन पांच दिन में खराब हो जाएगी. फैक्ट्री से लेकर सुदूर किसी गांव तक इस असाधारण कोल्ड चेन को मेंटेन करना बहुत ही दुष्कर काम है. हालांकि, मॉडर्ना का दावा है कि उसकी एमआरएनए वैक्सीन घरों के फ्रीजर में भी छह महीने तक स्टोर की जा सकती है. लेकिन इस दावे का भी अभी जमीन पर सही साबित होना बाकी है.

जानकारों के मुताबिक वैक्सीन लगाने के लिए बड़े पैमाने पर सुइयों यानी सिरिंजों की भी जरूरत होगी और इतने बड़े पैमाने पर उनकी आपूर्ति भी बड़ी चुनौती साबित हो सकता है. यूनिसेफ ने घोषणा की है कि वैक्सीन से पहले सिरिंज पहुंच जाए, इसके लिए वह इस साल के आखिर तक अपने गोदामों में 52 करोड़ सिरिंजों का स्टॉक करेगी.

कोरोना वायरस संक्रमण की शुरुआत में आरटी-पीसीआर जांच के लिए कोई नियम नहीं था इसलिए लोगों को इस टेस्ट के लिए 7-8 हजार रु तक चुकाने पड़े. काफी समय बाद इसे 1500 रु तक लाया गया. जानकारों का मानना है कि इसी तरह वैक्सीन तक भी केवल उन्हीं लोगों की पहुंच होगी जो उसे खरीदने में सक्षम होंगे. किसे पहले और ज्यादा सप्लाई मिले, इसे लेकर होड़ काफी पहले ही शुरू हो चुकी थी. ब्रिटेन एमआरएनए वैक्सीन की नौ करोड़ खुराक के लिए फाइजर के साथ समझौता कर चुका है. अमेरिका और कनाडा भी कंपनी के साथ क्रमश: 60 करोड़ और दो करोड़ खुराक के लिए डील कर चुके हैं. फाइजर का कहना है कि वह पहले इन्हीं देशों को सप्लाई करेगी. माना जा रहा है कि इसके चलते भारत जैसे विकासशील देशों को वैक्सीन मिलने में काफी देर हो सकती है.