अभी सुबह के नौ बजे हैं. मैं रजिस्ट्रेशन काउंटर से 10 रुपये की पर्ची कटवाकर सवाई मान सिंह अस्पताल के चरक भवन पहुंचता हूं. मेरा पिछले 10 दिनों से इस चरक भवन से अच्छा-खासा परिचय हो चुका था. यहां नेत्र और चर्म रोग की ओपीडी लगा करती है. मैं चर्म रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ दीपक माथुर के चेंबर के बाहर खड़ा हूं. पिछले कई दिनों की तरह आज भी मेरी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा है कि डॉ माथुर आज भी ओपीडी में आयेंगे या नहीं?

सिक्योरिटी गार्ड बाहर के कंपाउंड से सीमित संख्या में लोगों को अंदर भेज रहा है. अंदर मौजूद गार्ड उनकी लाइन लगवा रहा है. डॉक्टर दीपक माथुर के चेंबर के बाहर करीब 70-80 मरीज खड़े हैं. सुबह करीब 9:30 बजे जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों की चहलकदमी शुरू होती है. केबिन के अंदर दो रेजिडेंट डॉक्टर्स कुर्सी पर विराजमान हैं. एक जूनियर रेजिडेंट पर्चे लाने-ले जाने का काम कर रही हैं. अभी 15 मिनट भी नहीं गुजरे कि जूनियर रेजिडेंट ने आधे मरीजों को देख डाला. अगले 15 मिनट में वहां के सारे मरीजों को देख लिया जाता है.

इतने ही लोगों की अगली खेप बाहर वाले कंपाउंड में अपनी बारी का इंतजार कर रही है. देखते ही देखते इन लोगों को भी देख लिया जाता है. मैं समय देखता हूं, अभी सिर्फ साढ़े दस बजे हैं.

और केबिन के अंदर क्या होता है? जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर टॉर्च की रोशनी में एक मरीज को चंद सेकंड के लिए देखती हैं. शायद ही कोई ऐसा मरीज रहा हो जिसके डायग्नोसिस पर 10 सेकंड से ज्यादा समय लगाया गया हो. अंदर टेबल पर जो दूसरी जूनियर/सीनियर रेजिडेंट मौजूद हैं. वे दवा लिखने का काम करती हैं. बाहर वाली डॉक्टर टॉर्च मारकर जोर से बीमारी बता देती हैं, अंदर वाली तुरंत दवा लिख देती हैं. जैसे ही 8/10 मरीजों के पर्चे लिखे जाते हैं. अंदर वाली रेजिडेंट डॉक्टर उन्हें बाहर लाकर दे देती हैं. और यह प्रक्रिया जारी रहती है.

पूरी दुनिया के चिकित्सा जगत में मरीज के डायग्नोसिस से लेकर उसके ट्रीटमेंट ओर उपचार हो जाने के बाद की स्थिति के लिए तय पैमाने और प्रक्रियाएं हैं. जब कोई मरीज अपने इलाज के लिए अस्पताल जाता है तो उसकी सबसे पहली और महत्वपूर्ण कड़ी डायग्नोसिस यानी निदान होता है. यदि निदान सही हुआ तो इलाज भी सही होगा.

इस प्रक्रिया में सबसे पहले मरीज की केस हिस्ट्री बनाई जाती है. ज्यादातर बड़े अस्पतालों में यह काम सभी विभागों के जूनियर/सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर करते हैं. जब आप किसी विभाग में किसी डॉक्टर को दिखाने जाएंगे तो विशेषज्ञ डॉक्टर के आने से पहले वहां मौजूद रेजिडेंट डॉक्टर आपसे बात करेंगे, आपकी मेडिकल हिस्ट्री और उस पर अपनी राय लिखेंगे. उसके बाद जब सीनियर डॉक्टर आ जाएंगे तो मरीज को दोबारा बुलाया जाएगा और उस केस के बारे में डॉक्टर को बताया जायेगा. इसके बाद सीनियर या कंसल्टेंट या विशेषज्ञ डॉक्टर रेजिडेंट डॉक्टरों के डायग्नोसिस पर अपनी राय देंगे.

यह प्रक्रिया रेजिडेंट डॉक्टर्स की पढ़ाई भी है. यह वह तरीका है जो डॉक्टर्स के किताबी ज्ञान को व्यवहारिक बनाता है. इसी तरीके से सीनियर डॉक्टर्स, जूनियर डॉक्टर्स और अपने स्टूडेंट्स को वह ज्ञान देते हैं जो उन्हें किताबों से आगे ले जाता है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में यह बात तथ्यों व शोधों से प्रमाणित हो चुकी है कि यदि डॉक्टर और मरीज के बीच संवाद और उनका रिश्ता सही है तो मरीज के ठीक होने की दर कई गुना बढ़ जाती है. हम जितनी भी रक्त के जांच की रिपोर्ट देखते हैं, रेडियोलजी विभाग की जांच करवाते हैं या फिर एक्सरे या कोई अन्य जांच करवाते हैं तो उस पर अंत में एक लाइन लिखी होती है - उपयुक्त जांच को क्लीनिकली कनेक्ट करें/ देखें. मतलब जांच की रिपोर्ट को मरीज की स्थिति से जोड़कर देखें. यानी अपने आप में वह कुछ भी नही है. यह काम सीनियर डॉक्टर का है. वह इसे ओपीडी जैसी जगहों पर अपने छात्रों को भी सिखाता-समझाता है.

लेकिन क्या सवाई मान सिंह अस्पताल के चर्म रोग विभाग में ऐसा कुछ हुआ? मैं करीब 11 बजे वहां मौजूद जूनियर रेजिडेंट से सीनियर डॉक्टर के बारे में पूछता हूं. ‘देखिए वे विभाग के अध्यक्ष है और हम जूनियर रेजिडेंट. अगर हमें यहां पढ़ाई करनी है तो उन सब बातों पर चलना होगा जो वे चाहते हैं. नहीं तो हम न तो पढ़ाई कर पाएंगे न विभाग में रह पाएंगे. हम सवाल पूछने के लिए नहीं बने हम केवल आज्ञा सुनने के लिए बने हैं. हमें सुबह 11:30 बजे के बाद दूसरे काम निपटाने होते हैं इसलिए हम दो घंटे में मरीजों को देख लेते हैं.”

डेढ़ बजे तक इंतजार करने के बाद मैं डॉक्टर दीपक माथुर को फोन करता हूं. उन्हें बताता हूं कि मैं उनके विभाग में पिछले तीन दिनों से आ रहा हूं और पूछता हूं वे अपने विभाग में क्यों नहीं आ रहे हैं? डॉक्टर माथुर बताते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से आजकल वे ज्यादातर पेशेंट अपने घर पर ही देखते हैं. वे मुझे भी अपने घर पर ही बुलाते हैं. वहां पर मुझसे फीस लेकर बाकी दसियों मरीजों के साथ मुझे भी देखा जाता है.

चरम विभाग में मौजूद एक ड्यूटी डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि डॉक्टर दीपक माथुर पिछले मार्च के महीने से ही ओपीडी में नहीं आ रहे हैं और आते भी हैं तो 5-10 मिनट या कभी-कभार सिर्फ आधे घंटे के लिए तब जब उन्हें किसी खास व्यक्ति को देखना होता है या विभाग के कुछ काम निपटाने होते हैं.

‘ऐसा नहीं है कि केवल डॉ दीपक माथुर ऐसा कर रहे हैं. आप पूरे चर्म रोग विभाग में देख लो सारे प्रोफेसरों की यही हालत है. सब के सब पैसा बनाने में लगे हैं. उनको टीचिंग, एक्सपर्टीज, डिपार्टमेंट से कोई वास्ता ही नहीं है. आप चिकित्सा के क्षेत्र में शोध की बात कर रहे हैं, हमारे यहां तो सामान्य क्लास ही नहीं हो रही है. पढ़ाई नहीं हो रही है शोध की तो बहुत आगे की बात है” वे रेजिडेंट डॉक्टर हमें बताती हैं.

सवाई मान सिंह अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज की स्थापना 1934 में हुई थी. यह राजस्थान का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल हैं. इसमें छह हज़ार बेड्स की क्षमता हैं. इसके 40 विभाग और पांच स्पेशिऐलिटी सेन्टरों से जुड़े 43 वार्ड्स में 255 डॉक्टर व 660 नर्सिंग स्टाफ काम करते हैं. यानी कि एसएमएस महज एक सामान्य क्लीनिक नहीं है कि मरीज आया, उससे फ़ीस ली और दवा देकर उसे रवाना कर दिया. यह चिकित्सा और उसकी शिक्षा का, गुणवत्ता का एक्सीलेंस सेंटर हैं. यहां होने वाले शोधों को ज़िले के तमाम डॉक्टर फॉलो करते हैं.

लेकिन अव्यवस्था अब यहां की कार्य संस्कृति बन गई है. बात सिर्फ चर्म रोग विभाग की ही नहीं है. अस्पताल के सभी विभागों की कमोबेश यही हालत है. सत्याग्रह द्वारा एक महीने में यहां के आठ विभागों के 15 सीनियर प्रोफेसरों की ओपीडी का अध्ययन किया गया और अस्पताल की आपातकालीन सेवाओं को भी नजदीक से देखा गया. लेकिन ज्यादातर जगह हमें निराशा ही हाथ लगी. सवाल यह है कि जब यहां की स्थिति ऐसी है तो इससे नीचे वाली सरकारी चिकित्सा संस्थाओं - जिला अस्पताल, पीएचसी या सीएचसी - के डॉक्टर और स्टाफ उससे क्या सीखेंगे?

अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में सत्याग्रह ने एसएमएस अस्पताल के नाक, कान ओर गला (ईएनटी) विभाग के जाने-माने चिकित्सक डॉक्टर सुनील सिंह कोशिश की, लेकिन उसे एक सप्ताह तक इस मामले में कोई सफलता हासिल नही हुई.

जैसे-तैसे जब हमारी उनसे बात हुई तो डॉक्टर दीपक माथुर की तरह उनका भी यही कहना था कि वे कोरोना वायरस की वजह से अब घर पर ही मरीजों को देखते हैं. लेकिन वे भी सरकारी तनख्वाह लेने के बाद ऐसा फीस लेकर ही करते हैं. उन्होंने घर पर हमें देखने के लिए हमसे 300 रुपये चार्ज किये.

राजस्थान और एसएमएस अस्पताल की चिकित्सा व्यवस्था की पूरी पोल यहां का आपातकालीन विभाग भी खोल देता है. यहां की बदहाल स्थिति के बारे में हमें एक जूनियर रेजिडेंट ने अवगत करया था. उन्होंने जिस तरह की बातें हमें बताईं उन पर पहले विश्वास कर पाना मुशकिल था. इसलिए सत्याग्रह ने खुद जाकर उसे देखने का फैसला किया.

एक दिन मैं सुबह करीब 11 बजे आपातकालीन विभाग पहुंचता हूं तो इमरजेंसी वार्ड की स्थिति बहुत भयानक पाता हूं. चारों तरफ खून, जिंदगी और मौत के बीच झूलते लोग, रोते-बिलखते एवं कागजी कार्यवाहियों में लगे परिजन और इलाज करने में लगे जूनियर ओर सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर. लेकिन यहां पर डॉक्टर से लेकर वॉर्ड बॉय तक पैसे बनाते भी नजर आते हैं. डॉक्टर इलाज करने के लिए पैसे लेते हैं, वार्ड बॉय स्ट्रेचर चलाने के लिए और लोगों को ज्यादातर दवाएं और उपकरण बाहर से खरीदकर लाने पड़ते हैं, तब भी जब वह अस्पताल में उपलब्ध हो.

35 वर्षीय मुरारी का एक्सीडेन्ट हुआ है. उसके वृद्ध पिता हमें बताते हैं कि वह एक मोटरसाइकिल पर जा रहा था तभी एक ट्रक ने उसे टक्कर मार दी. उसकी दाएं कूल्हे की हड्डी टूट गई है. मुरारी के पिता को देखकर आसानी से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि वे बहुत गरीब हैं. वे हमें बताते हैं कि कुछ ही देर पहले उनसे एक सीनियर डॉक्टर ने उनसे 40 रुपये ले लिए हैं. इस बारे में जब सत्याग्रह ने कुछ और पड़ताल की तो उसकी मुलाकात एक रेजिडेंट डॉक्टर से हुई जिन्होंने हमसे ड्यूटी के बाद आकर मिलने को कहा.

‘हम हर रोज ये खेल देखते हैं. ये (गाली) प्रोफेसर 30 रुपये से लेकर 200 रुपये तक जो मिल जाये, हर मरीज के परिवार वालों से पैसा वसूलता है और ये सब धड़ल्ले से चलता है. सीनियर डॉक्टर आपरेशन के लिए जरूरी चीजें मंगवाते हैं, इंजेक्शन और दवाएं मंगवाते हैं लेकिन उनमें से अधिकतर यहां फ्री में उपलब्ध हैं. लेकिन वे जान-बूझकर ऐसा करते हैं. फिर इन चीजों को बाहर बेच देते हैं. मरीज के रिश्तेदारों को क्या पता क्या लगेगा? जांचों के नाम पर अलग खेल चलता है” वे रेजिडेंट डॉक्टर नाम न छापने के अनुरोध के साथ हमें बताते हैं “मैं पिछले एक वर्ष से ये खेल देख रहा हूं. मेरे सीनियर बताते हैं कि ये काम तो हमारे समय से चल रहा है और ऐसे ही चलता रहेगा. और इसमें सबका हिस्सा फिक्स है. जब विभाग के प्रोफेसर की ये हालात है तो फिर हम नर्सिंग स्टाफ से कैसे उम्मीद करेंगे कि वो अपना काम करेंगे, वार्ड बॉय अपनी ड्यूटी करेंगे. वे स्ट्रेचर पर लाने-ले जाने और बेड दिलाने के पैसे लेते हैं. और हम किसी को बोल नही सकते. क्योंकि हम इंटर्नशिप कर हैं या फिर कॉन्ट्रैक्ट पर रेसिडेंटशिप कर रहे हैं. जबकि नर्सिंग स्टाफ परमानेंट हैं. अस्पताल में उन लोगों की ज्यादा चलती है.”

वे रेजिडेंट डॉक्टर हमें आगे बताते हैं कि ‘अगर आपको असली खेल जानना है तो जो मरीज हमारे यहां भर्ती हैं उनको जाकर देखिये. 15-15 दिन में भी सीनियर डॉक्टर राउंड पर नही आते हैं लेकिन कागजों में दिखलाते हैं कि दिन में दो बार कंसलटेंट राउंड पर आ रहा है. सब कार्यवाही सीनियर रेजिडेंट के कंधों पर है और वे इसे हमारे कंधों पर डाल देते हैं. वे अकेले क्या-क्या संभालें? हम लोग अपनी समझ से जो कर सकते हैं, करते रहते हैं.”

इस जूनियर डॉक्टर की बात सुनकर, उनकी परेशानी समझकर जो बात सबसे पहले दिमाग में आती है वह यह कि किसी प्रोफेसर डॉक्टर का काम केवल बीमारी का इलाज करना ही नहीं बल्कि अच्छे डॉक्टरों की नई पौध तैयार करना भी है. लेकिन कई तथाकथित प्रोफेसर इन दोनों कामों में से एक भी ठीक से नहीं कर रहे हैं और इसकी कीमत न जाने कितने लोग चुकाएंगे!

कोविड सेंटर की हालत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कोविड 19 की चुनौती हमारे लिए एक अवसर भी लेकर आई है. अगर थोड़ी इच्छाशक्ति होती तो पिछले कुछ महीनों में हम वेंटिलेटर पर पड़े अपने स्वास्थ्य तंत्र को दुरुस्त कर सकते थे. लेकिन हमने इस मौके को हाथ से जाने दिया. अन्य कई राज्यों की तरह राजस्थान में भी कोविड-19 का इलाज भगवान भरोसे ही चल रहा है. सवाई मान सिंह अस्पताल में कोविड-19 के इलाज के लिए भर्ती हुए राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने इसमें मौजूद अव्यवस्थाओं की पूरी कलई खोल दी. उन्होंने यहां मौजूद व्यवस्था से नाखुशी जाहिर करते हुए खुद को अपने घर पर शिफ्ट कर लिया. जब उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के मामले में स्थिति यह है तो आप आम इंसान के इलाज की क्या उम्मीद करेंगे?

पिछले दो महीने से कोविड वार्ड में कार्यरत एक नर्सिंग स्टाफ वहां की अव्यवस्था की ओर ध्यान दिलाते हुए सत्याग्रह को बताते हैं कि ‘सब झूठी हवाबाजी चल रही है. आप सीनियर डॉक्टर को तो छोड़िए रेजिडेंट भी यहां बहुत कम आते हैं. वे हमसे व्हाट्सअप पर जानकारी लेते हैं और दवा का नाम लिखकर भेज देते हैं. मरीजों को देखने वाला कोई नहीं है. हमें भी अपनी जान प्यारी हैं. जब डॉक्टर ही नहीं आयेंगे तो हम वार्ड में जाकर क्या करेंगे? हम भी दिन में एक बार वहां जाते हैं. जो होना होता है, सब अपने आप होता है.’

ऐसा नहीं है कि इस एक्सिलेंस सेन्टर की ऐसी हालत कोविड 19 के दौरान हुई है या कांग्रेस के राज में हुई है. तीन साल पहले भाजपा के शासन में भी इसके यही हाल थे. भीलवाड़ा ज़िले के रहने वाले 66 वर्षीय रमेश पिछले चार वर्षों से यहां पर मधुमेह का इलाज करवा रहे हैं. रमेश इस बारे में हमें बताते हैं, “हम भीलवाड़ा से रात में निकलते हैं, पहले ट्रेन आती थी तो 100 रुपये में आ जाते थे लेकिन कोरोना के कारण ट्रेन बन्द हैं तो अब बस से आना पड़ता है. उसका किराया 200 रुपये लगता है. सुबह लाइन में लगकर 10 रुपये की पर्ची कटवाते हैं. उस पर्ची को लेकर मधुमेह के डॉक्टर की लाइन में लगते हैं जहां रक्त की जांचं लिखकर दी जाती हैं. फिर उस स्लिप को लेकर हम जांच की पेमेंट करते हैं. फिर उस पेमेंट स्लिप को लेकर जांच करवाने की लाइन में लगते हैं ‘ रमेश की रिपोर्ट पांच बजे शाम को आती है. तब तक डॉक्टर की ड्यूटी खत्म हो जाती है. वे फिर उस रिपोर्ट को लेकर सीनियर डॉक्टर के घर पर जाते हैं जो 300 रुपया फीस लेकर दवा लिखते हैं.

‘यदि हम ये 300 रुपया बचाने की सोचें तो रात में किसी धर्मशाला में रुकना पड़ेगा. वहां भी एक रात का 200-300 रुपया लग जायेगा. इससे अच्छा है कि ये 300 रुपया देकर जान छुड़वाओ” रमेश कहते हैं कि जरूरी नहीं है कि अगले दिन भी डॉक्टर मिले ही.

रमेश आगे बताते हैं कि ‘हमें घर पर इसलिए भी दिखाना पड़ता हैं क्योंकि अस्पताल में जूनियर डॉक्टर ही दवा लिख देते हैं. वहां कभी बड़े डॉक्टर मिलते ही नहीं हैं. इसलिए हम लोग अस्पताल की पर्ची बना लेते है जिससे कम से कम खून की जांच और दवा के लिए पैसे खर्च न करने पड़ें. और फिर बड़े डॉक्टर को उनके घर पर दिखा देते हैं.”

जब हमने रमेश के इस दावे का परीक्षण किया तो उसे एकदम सही पाया. मधुमेह विशेषज्ञ डॉक्टर बलराम शर्मा के घर, जवाहर कला केंद्र के पीछे के गेट पर दिन भर भीड़ लगी रहती है. डॉ बलराम शर्मा अपने विभाग में न के बराबर जाकर अपने घर पर ही मरीज़ों को देखा करते हैं. बलराम शर्मा ने एक नियम भी बनाया हुआ है - बाहर के मरीज किसी भी समय उनके पास आ सकते हैं जबकि अस्पताल के सभी मरीज शाम पांच बजे के बाद ही उनके यहां आ सकते हैं.

इस पूरे खेल को उनके विभाग के एक सीनियर रेजिडेंट समझाते हैं. वे कहते हैं कि “सामान्य शुगर फास्टिंग की जांच रिपोर्ट तो दो घंटे में आ जाती हैं. बहुत कम ऐसे केस रहते हैं जिसमें हम ऐसे टेस्ट लिखते हैं जिनकी रिपोर्ट आने में 4-5 घंटे लगते हैं. लेकिन ये सख्त हिदायत है कि रिपोर्ट चार-पांच बजे ही मिलनी चाहिए. अगर जांच रिपोर्ट जल्दी दे देगे तो मरीज उस रिपोर्ट को लेकर यहीं पर डॉक्टर को दिखा देंगे और इन सभी प्रोफेसरों की दुकानदारी बंद हो जाएगी.’

रेजिडेंट डॉक्टर आगे बताते हैं कि ‘अब मरीज क्या करेंगे? इन मरीजों में 90 फीसदी तो जयपुर से बाहर के ज़िलों से यहां आते हैं. वे रात में कहां रहेंगे? ऐसा नहीं है कि केवल बलराम शर्मा ऐसा करते हैं बल्कि सभी लोगों की फिक्स प्रैक्टिस है. सरकारें बदल जायें, मेडिकल सुपरिटेंडेंट बदल जायें, ये सब ऐसे ही चलता है.”

राजस्थान नागरिक मंच के कार्यकर्ता अनिल गोस्वामी भी कहते हैं कि “मैं पिछले 20 वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूं. शासन का केवल चेहरा बदलता है जबकि चरित्र वही का वही रहता है. अब हमने भी बोलना छोड़ दिया है. हमने ये भी स्वीकार कर लिया है कि सब कुछ ऐसे ही चलेगा. जो दबंग है उनको सरकार पसंद नहीं करती. डॉ समित शर्मा को वापस क्यों नहीं लाते जिन्होंने गहलोत साहब की पिछले सरकार में स्वास्थ्य क्षेत्र में इतना महत्वपूर्ण काम किया. उनको क्यों नहीं पूछते?

अनिल आगे कहते हैं कि “अभी चार महीने पहले अखिल अरोड़ा को स्वास्थ्य विभाग का प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाया गया किन्तु उनको वहां से हटा दिया गया क्योंकि वे फर्जी काम नही करते थे. वे जैसे ही स्वास्थ्य विभाग की गड़बड़ियों को सामने लाने लगे उनको हटा दिया गया. उनके स्थान पर एक ऐसे व्यक्ति को प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाया गया है जो पहले से विवादों में रहा है.”

मैंने इस पूरी स्थिति को अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर राजेश शर्मा के समक्ष रखा. उनसे विभाग में जाकर मिला. उनको बाद में व्हाट्सअप और फ़ोन भी किया. इन सभी बिंदुओं पर उनकी राय जाननी चाही. डॉ राजेश शर्मा का कहना था कि “ इन सवालों का जवाब मंत्री महोदय देंगे. आप उनसे ये सवाल पूछें मैं व्यस्त हूं.”

सत्याग्रह ने इस पूरी स्थिति को स्वास्थ्य विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी, सिद्धार्थ महाजन को उनके ऑफिशियल मोबाइल (व्हाट्सअप नम्बर) पर भेजा. उनसे कुछ सवाल भी पूछे. उनको फ़ोन भी किया. उन्होंने सभी व्हाट्सअप पढ़े किन्तु किसी का रिप्लाई नहीं किया.

स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि ऊपर से नीचे तक ऐसा कोई नहीं है जिसे एसएमएस अस्पताल में फैली अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के बारे में पता नहीं है. लेकिन सब इस तंत्र का हिस्सा हैं. पूर्व स्वास्थ्य सचिव अखिल अरोड़ा ऐसा करने के लिए तैयार नही थे तो उनका ट्रांसफ़र हो गया.