उत्तर प्रदेश और भाजपा शासित दूसरे राज्यों की तर्ज पर अब मध्य प्रदेश सरकार भी धर्मांतरण के खिलाफ कानून लाने की तैयारी में है. राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा है कि इसका नाम ‘धर्म स्वतंत्रता अधिनियम 2020’ होगा. उन्होंने इसे जरूरी बताया है.

भाजपा शासित राज्यों में धर्मांतरण के खिलाफ अपने-अपने कानून को एक-दूसरे से कड़ा बनाने की होड़ लगी है. पार्टी के अलग-अलग मंत्री जिस तरह से बयान दे रहे हैं उनके चलते इन्हें लव जिहाद कानून कहा जाने लगा है. मसलन उत्तर प्रदेश में यह कानून आने से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना था, ‘छद्म वेश में, चोरी-छिपे, नाम छिपा के, स्वरूप छिपा के जो लोग बहन बेटियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ करते हैं उनको पहले से मेरी चेतावनी, अगर वे सुधरे नहीं तो राम नाम सत्य की है.’

इसी तरह मध्य प्रदेश में प्रस्तावित कानून के बारे में नरोत्तम मिश्रा का कहना है, ‘कोई भी बहलाकर, फुसलाकर, दबाव में शादी करता है या धर्म परिवर्तन करता है अथवा ‘लव’ की आड़ में ‘जिहाद’ की तरफ़ ले जाता है तो उसको पांच साल का कठोर कारावास दिया जाएगा. यह अपराध संज्ञेय होगा और गैर-जमानती भी होगा. इसके साथ-साथ इस अपराध में सहयोग करने वाले जो कोई भी हों, परिवार वाले हों या रिश्तेदार हों, या दोस्त यार हों, वो सब भी उसी श्रेणी के अपराधी माने जाएंगे, जिस श्रेणी का अपराधी धर्म परिवर्तन करवाने वाले को माना जाएगा.’

दक्षिणपंथी संगठन खासकर ऐसी शादियों को लव जिहाद कहते हैं जिनमें पुरुष मुसलमान हो और महिला हिंदू. माना जाता है कि 2009 के आसपास कर्नाटक और केरल में इस शब्द का इस्तेमाल होना शुरू हुआ जो अब आम हो चला है. गौर करने वाली बात यह है कि देश के मौजूदा कानून में ‘लव जिहाद’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है. किसी भी केंद्रीय एजेंसी की ओर से ‘लव जिहाद’ के किसी मामले की सूचना भी नहीं दी गई है. यह बात खुद केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने चार फरवरी 2020 को लोकसभा में दिए गए एक सवाल के जवाब में कही है.

बहरहाल, भाजपा शासित राज्यों की इस होड़ ने देश में अंतरधार्मिक शादियों को लेकर नई बहस छेड़ दी है. इस सबके बीच आइए उन पांच कानूनों पर नजर डालते हैं जिनके दायरे में भारत में होने वाली ज्यादातर शादियां आती हैं.

विशेष विवाह अधिनियम

विशेष विवाह अधिनियम यानी स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 में बना था. इसके तहत दो भारतीय नागरिक, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म से हों, शादी कर सकते हैं. हालांकि यह कानून बना तो ऐसे लोगों की सुविधा के लिए था, लेकिन व्यवहार में देखें तो इस राह जाने वालों को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. भावी वर-वधू को शादी से 30 दिन पहले मैरिज रजिस्ट्रार को अपने नाम, पते और फोटो जैसी जानकारियां देनी होती हैं. इन्हें एक नोटिस के रूप में रजिस्ट्रार कार्यालय पर चिपकाकर विवाह पर आपत्तियां मंगाई जाती हैं और आने पर उनकी छानबीन की जाती है. इस प्रावधान को चुनौती देती याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है. याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह न सिर्फ निजता के अधिकार का हनन है बल्कि इससे अपने परिवार और समुदाय की मर्जी के खिलाफ शादी करने जा रहे जोड़ों के लिए खतरा बढ़ जाता है. याचिका के मुताबिक शादी से पहले इस तरह का नोटिस दूसरे मैरिज एक्ट्स में नहीं है इसलिए यह अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का हनन भी है.

हिंदू विवाह अधिनियम

1955 में बना हिंदू विवाह अधिनियम हिंदू धर्म से ताल्लुक रखने वाले सभी व्यक्तियों पर लागू होता है. कानून के मुताबिक हिंदू धर्म में वीरशैव, लिंगायत, ब्रह्मा, प्रार्थना और आर्य समाज के अनुयायी भी आते हैं. इसके अलावा हिंदू विवाह अधिनियम के दायरे में बौद्ध, जैन और सिख धर्म भी आते हैं. इसमें विवाह संबंध और उसके विच्छेद यानी तलाक से जुड़े कई प्रावधान हैं. विवाह की रीतियों के मामले में अलग-अलग समुदायों की परंपरा के हिसाब से उन्हें कुछ छूट भी दी गई है. यानी मुख्य रीति के तौर पर सप्तपदी (अग्नि के सात फेरे) के अलावा दूसरी विधियां भी मान्य हैं. कानून के मुताबिक वर-वधू सपिंड नहीं होने चाहिए यानी उनमें कुछ पीढ़ियों की सीमा तक रक्त संबंध नहीं होना चाहिए. हालांकि उन हिंदू समुदायों के लिए यह प्रावधान लागू नहीं होगा जहां ममेरे भाई से विवाह जैसी परंपरा सर्वमान्य है.

मुस्लिम फैमिली लॉ

मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों के लिए शादी या निकाह से जुड़ा कानून मुस्लिम फैमिली लॉ है. यह 1937 के शरिया कानून और समय-समय पर इससे संबंधित मामलों में दी गई अदालती व्यवस्थाओं से संचालित होता है. दूसरे कानूनों की तरह यह स्पष्ट और व्यवस्थित नहीं है इसलिए इसे ऐसा रूप देने की मांग चल रही है. यह मांग करने वालों का कहना है कि स्पष्टता के अभाव में लोग बात का मतलब अपनी-अपनी मान्यताओं और सहूलियत के अनुसार निकाल लेते हैं जिसका नुकसान महिलाओं को होता है. हिंदू, ईसाई या पारसी समुदाय से अलग मुस्लिम समुदाय में शादी दो पक्षों के बीच अनुबंध होती है जिसे निकाहनामा कहते हैं. दोनों परिवारों के सदस्यों के अलावा काजी और दो गवाहों की मौजूदगी में दोनों तरफ से प्रस्ताव (इजाब) और उस पर सहमति (कबूल) होती है. इसके बाद वर-वधू, काजी और गवाहों के निकाहनामे पर दस्तखत होते हैं और शादी संपन्न हो जाती है. दूल्हे की तरफ से दुल्हन को एक रकम भी दी जाती है जिसे मेहर कहते हैं. कुरान हर मर्द को चार शादियों की इजाजत देती है और यह भी कहती है कि वह किसी पत्नी के साथ भेदभाव नहीं करेगा.

ईसाई विवाह अधिनियम

ईसाई समुदाय में होने वाली शादियां 1872 के भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम या क्रिश्चियन मैरिज एक्ट के दायरे में आती हैं. यह त्रावणकोर-कोचीन और मणिपुर को छोड़कर पूरे भारत में लागू होता है. इसके लिए दोनों या कम से कम एक पक्ष को ईसाई होना चाहिए. शादी संबंधित चर्च की रस्मों के अनुसार एक पादरी या चर्च द्वारा ऐसे धार्मिक कार्यों के लिए नियुक्त किए गए किसी अधिकारी या मैरिज रजिस्ट्रार की मौजूदगी में होनी चाहिए. इसका समय सुबह के छह बजे से शाम के सात बजे तक निर्धारित है और यह किसी ऐसे चर्च में ही होनी चाहिए जहां नियमित रूप से प्रार्थना होती हो. अगर वर-वधू के निवास के पांच मील के दायरे में कोई ऐसा चर्च न हो तो फिर इसके लिए किसी दूसरे उपयुक्त स्थान का चयन किया जा सकता है.

पारसी विवाह और तलाक अधिनियम

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में करीब 57 हजार पारसी रहते हैं. इस समुदाय में होने वाली शादियों पर 1936 का पारसी विवाह और तलाक अधिनियम लागू होता है. शादी के लिए एक पुजारी और दो गवाह जरूरी होते हैं. पारसी समुदाय में भी शादी एक अनुबंध जैसी होती है. इसके अलावा वर-वधू रक्तसंबंध के लिहाज से एक सीमा से बाहर होने चाहिए.