आंगन में पक्षी
आंगन हो घर में तो कुछ न कुछ पक्षी वहां फुदकने-चहकने आ ही जाते हैं. अगर आप आंगन में दाने बिखेर दो तो उनकी भीड़ भी लग सकती है. आंगन घर का वह हिस्सा है जो, एक तरह से घर का अन्तरंग होते हुए भी बाहर को चुपचाप न्योतता रहता है. कविता ऐसा ही आंगन है और हमारा यह सौभाग्य रहा है कि लगभग सत्तर बरसों से हम अपनी कविता के आंगन में संसार भर के पक्षियों को न्योतते रहे हैं. इन दशकों में पहली बार अनुवाद के माध्यम से हिन्दी कविता विश्व कविता का हिस्सा बनी. विश्व कविता का चुना हुआ हिस्सा भी अनुवाद के माध्यम से हिंदी का हिस्सा बना.

दशकों पहले मध्य प्रदेश के एक कस्बे पिपरिया में, जो पचमढ़ी के रास्ते पर है, हिन्दी कवि वंशी माहेश्वरी ने अपने ही साधनों से एक छोटी पत्रिका निकाली ‘तनाव’ नाम से. उसमें अन्य सामग्री के अलावा अनुवाद पर विशेष आग्रह था. धीरे-धीरे पूरी पत्रिका विश्व कविता के अनेक कवियों के हिन्दी अनुवाद पर एकाग्र हो गयी. यह न सिर्फ़ हिन्दी में अभूतपूर्व घटना थी, बल्कि शायद समूची भारतीय कविता में भी. विश्व कविता का हिन्दी अनुवाद में सबसे बड़ा संचयन अब तीन खण्डों में ‘दरवाजे में कोई चाबी नहीं’, ‘प्यास से मरती एक नदी’ और ‘सूखी नदी पर ख़ाली नाव’ रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत सम्भावना प्रकाशन हापुड़ से प्रकाशित हुआ है. वंशी माहेश्वरी ने ‘तनाव’ में प्रकाशित 33 देशों की 28 भाषाओं के 103 कवियों के 48 कवियों और विद्वानों द्वारा किये गये अनुवाद इस त्रिखण्डी संचयन में शामिल किये हैं और ‘अभावों के संघर्ष और तनाव की तीर्थयात्रा’ शीर्षक से एक लम्बी भूमिका भी लिखी है. हिन्दी के वर्तमान आंगन में अब कवि-पक्षियों की बहार है. कम से कम थोड़ी देर के लिए वह पक्षियों का ऐसा शरण्य सा बन गया है कि आंगन कम बगीचा ज़्यादा लगता है. ऐसा होते, ‘लाज़िम था कि हम भी देखेंगे’.
अनुवादकों में कुंवर नारायण, रघुवीर सहाय, सुरेश सलिल, सोमदत्त, असद जै़दी, गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, रमेशचंद्र शाह, प्रयाग शुक्ल, उदयन वाजपेयी, शिवकुटी लाल वर्मा, विष्णु खरे, प्रभाती नौटियाल, नन्दकिशोर आचार्य, त्रिनेत्र जोशी, वरयाम सिंह, दिविक रमेश, कान्ता, विनय दुबे, प्रेमलता वर्मा, सईद शेख़, हेमन्त जोशी, उज्ज्वल भट्टाचार्य आदि शामिल हैं. मूल कवि जापान, चीन, कोरिया, रूस, इटली, फ़िनलैण्ड, ग्रीस, अर्हेंतीना, वियेतनाम, क्यूबा, अफ्रीका, पोलैण्ड, पुर्तगाल, तुर्की, स्वीडन, ईरान, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेकास्लोवाकिया, इटली, अमेरिका, पेरू, चिली, फिलिस्तीन, इज़रायल, स्पेन, निकारागुआ, युगोस्लाविया, हंगरी देशों से हैं. संचयन में 1360 पृष्ठों की सामग्री है.
कुछ कविताएं
इस संचयन से कुछ कविताएं या कवितांश नीचे दिये जा रहे हैं ताकि यह देखा जा सके कि दूरदराज़ की भाषाओं में लिखी गयीं कविताएं भी अन्ततः हमारी मानवीयता को ही सत्यापित करती हैं और हमें ‘इतने पास अपने’ लगती हैं. वे हमारे आंगन का पक्षी सहज ही बन जाती हैं. तुर्की फाज़िल हुसन दाग्लारका की कविता ‘निरन्तरता’ कुमकुम सिंह के अनुवाद में:
जब तक शब्द मौजूद हैं
मौत किसी को
ख़त्म नहीं कर सकती
हमारे साथ
शब्दों के हाथ में सुरक्षित रहते हैं
हमारे पांव
शब्दों के पांव में सुरक्षित रहे आते हैं.
अर्हेन्तीनी कवि रोबेर्तो ख्यार्रोस की कविता का एक अंश प्रेमलता वर्मा के अनुवाद में:
हर आदमी चल रहा है अपनी कूवत भर
कुछ अधखुली छाती लिए
कुछ महज़ एक ही हाथ के साथ
कुछ आइडेंटिटी कार्ड जेब में
और कुछ लोग आत्मा में रखे
कुछ और भी लोग हैं जो लहू में ही
चांद की पेशकश किये चल रहे हैं,
और दूसरे हैं - बग़ैर लहू, बग़ैर चांद, बग़ैर याद के...
सुरेश सलिल के अनुवाद में जापानी बाशो के कुछ हाइकू :
जाग री तितली
देर हो गयी,
मीलों सफ़र साथ तै करना
....
चार मन्दिर-द्वार–
एक ही चन्द्रमा के नीचे
चार पन्थ
...
टोपी, न छाता,
हेमन्त की बारिश का
क्या जाता?
रूसी कवि ओसिप मन्दिलश्ताम का एक कवितांश अनिल जनविजय के अनुवाद में:
पितिरबुर्ग, ओ पितिरबुर्ग, मेरे पास पते अभी बचे हैं कुछ
जहां मृतकों को आवाज़ मिलेगी और बदलेगा उनका रूख़
परछत्ती में रहता हूं मैं, उस चोर-सीढ़ी के क़रीब यहां
कनपटी का मेरी मांस नोचती, बजती है तीख़ी घण्टी जहां
रात-रात भर रहता है मुझे, उन मेहमानों का इन्तज़ार
बेड़ी की तरह हिले है सांकल, मेरे दरवाज़े की लगातार
जर्मन कवि बेर्टोल्ट ब्रष्ट की एक कविता गिरधर राठी और रायनर लोत्स के संयुक्त अनुवाद में, शीर्षक ‘अंधेरे वक़्तों में’:
यह नहीं कहा जायेगा: जब अखरोट का पेड़ हवा में हिल रहा था
बल्कि: जब पुतैया मज़दूरों को रौंद रहा था.
यह नहीं कहा जायेगा: जब बच्चा पानी पर कंकर ढरका रहा था
बल्कि: जब बड़ी जंगों का सरंजाम जारी था.
यह नहीं कहा जायेगा: जब औरत कमरे में आयी
बल्कि: महाशक्तियां मज़दूरों के खिलाफ़ एकजुट हो रही थीं.
बहरहाल, यह नहीं कहा जायेगा: वक़्त थे अंधेरे
बल्कि: क्यों थे उनके कवि ख़ामोश?
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