रोजाना की तरह आज भी प्रह्लाद खोड़ा, जगदीश, छोटेलाल और बंशीधर, सुबह करीब चार बजे लाल कोठी जयपुर होलसेल मंडी में पहुंच गए हैं. प्रह्लाद के पास हरी मिर्च, जगदीश के पास टमाटर, छोटेलाल के पास लौकी और बंशीधर के पास गाजर हैं. ये लोग चैनपुरा की ढाणी, जमना राम गढ़ से, जो कि जयपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर है, यहां अपना उत्पाद बेचने आते हैं.
होलसेल सब्जी मंडी का काम सुबह तीन/चार बजे से शुरु होकर लगभग आठ बजे तक चलता है. दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों के दुकानदार, रेहड़ी-खोमचे वाले, कॉलोनीयों के दुकानदार, होटल व टिफिन सप्लाई वाले और शादी विवाह वाले सभी ग्राहक सुबह आठ बजे से पहले ही यहां से अपना सामान ले जाते हैं. यदि वे मंडी से सामान देरी से लेकर जायेंगे तो अपने बिक्री स्थान पर जाकर अपना सामान कब बेचेंगे?
प्रह्लाद व जगदीश जैसे हज़ारों किसानों को इनसे पहले ही अपनी फसल लेकर मंडी में आना होता है. ऐसा नहीं हैं कि यह केवल जयपुर की मंडी में होता - हिंदुस्तान के हर कोने में स्थित होलसेल की मंडियों में ऐसे ही कारोबार होता है.
प्रह्लाद, जगदीश व बंशीधर ने आढ़ती अंकित की दुकान के सामने खाली पड़े थड़े (वह जगह जहां किसान अपने लाये उत्पाद को रखते हैं) पर अपने-अपने उत्पादों को रख दिया है. ग्राहक उनकी सब्जियों को जांच-परखकर उसका भाव/मूल्य आंकते हैं. यदि किसान और ग्राहक में मूल्य को लेकर सहमति बन जाये तो सौदा हो जाता है.
प्रह्लाद की कुल हरी मिर्च 55 किलो है जिसकी कीमत 50 रुपये प्रति किलो के हिसाब से 2750 होती है. आढ़ती ‘अंकित’ ने अपना चार फीसदी कमीशन/आढ़त काटकर शेष बची रकम - 2640 रुपये - प्रह्लाद को सौंप दी है. हालांकि ग्राहक ने उनसे यह सौदा उधार में किया है. आढ़ती अंकित को ग्राहक से 2750 के साथ अपना छह फीसदी खर्चा भी लेना है जो हर ग्राहक से वसूला जाता है. मतलब आढ़ती को किसी भी ऐसी बिक्री में कुल 10 फीसदी कमीशन मिलता है.
प्रह्लाद की उम्र अभी 22 वर्ष है. वह अपने पिता लल्लू राम खोड़ा की खेती-किसानी के कार्यों में मदद करता है और साथ में जयपुर के सुबोध कॉलेज से बीएससी फाइनल ईयर की पढ़ाई भी करता है. प्रह्लाद अपनी ढाणी में सबसे ज्यादा पढा-लिखा व्यक्ति है.
कृषि सुधारों के नाम पर केंद्र सरकार ने जो तीन कानून बनाये हैं. उनको लेकर प्रह्लाद अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहता है, ‘देखिये मैं हरी मिर्च लेकर आया, चार फीसदी आढ़त काटकर मुझे 2640 रुपये मिल गए. इसमें से 50 रुपया किराये में चले जायेंगे. कुल बचत हुई 2590 रुपये.’
प्रह्लाद आगे बताता है, ‘मैं तो ये सोचकर आया था कि अगर मेरी हरी मिर्च 40 रुपये/किलो के हिसाब से भी बिक जाएगी तो मैं तुरंत दे दूंगा लेकिन आढ़ती ने मिर्च देखकर कहा कि रेट ज्यादा लगाएंगे. आढ़ती को ज्यादा फायदा तभी होगा जब मेरी मिर्च ज्यादा महंगी बिकेगी. आढ़ती ने इसे उधार में बेचा है. लेकिन मुझे इस बात से कोई वास्ता नहीं. मैं पिछले 2 वर्षों से मंडी में आ रहा हूं. अब आढ़तियों के बिना ये सब कैसे होगा समझ नहीं आ रहा है.’
जगदीश पिछले 20 वर्षों से जयपुर मंडी में आ रहे हैं. उन्होंने लॉकडाउन के समय आढ़ती से नौ हज़ार रुपये उधार लिए थे. अपने टमाटर के हर चक्कर के साथ वे 500 रुपये कटवा देते हैं.
जगदीश हमें बताते हैं कि ‘हमें जब भी आवश्यकता पड़ती है. घर में कोई बीमार हो जाये, कोई त्यौहार हो तो हम आढ़ती के पास ही आते हैं. आढ़ती हमारा बिना ब्याज का एटीएम कार्ड भी है. मुझे नौ हज़ार रुपये का कोई ब्याज नहीं देना है. थोड़ा-थोड़ा करके मैं उसे लौटा रहा हूं.”
जगदीश इन कानूनों को तो नहीं समझते लेकिन उनके दिमाग में एक सवाल जरूर है. जगदीश कहते हैं कि मंडी में हज़ारों किसान अपना सामान लेकर आते हैं. खुला बाजार है. सैंकड़ों आढ़ती हैं. एक के साथ न जंचे तो दूसरे, तीसरे के पास चले जाओ. अगर लाल कोठी मंडी न जंचे तो मुहाना मंडी में चले जाओ. वही चार फीसदी आढ़त देनी है. अब पता नहीं कौन लोग खरीदेंगे? अगर किसी को उनके साथ नहीं जंचे तो किसान क्या करेगा? यदि वे किसान के हिसाब की कीमत न दें तो वह क्या करेगा, किसके पास जायेगा? हो सकता है आगे जाकर सब ठीक हो जाए लेकिन अगर कुछ साल भी इस मामले में अव्यवस्था रही तो क्या होगा?
कितने बड़े खलनायक?
आये दिन सरकार और आम लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि आढ़तिये/कमीशन एजेंट किसानों से औने-पौने दामों पर उनका उत्पाद खरीद लेते हैं और बाद में ऊंचे दामों पर उन्हें बेच देते हैं. कुछ लोग इसी बात को जमाखोरी से जोड़ देते हैं. इनका मानना है कि आढ़ती पहले किसान से सस्ते में फसल खरीद के उसकी जमाखोरी करते हैं और बाद उसे ज्यादा कीमत पर बेचते हैं. हालांकि नये कानून के तहत अब यह कोई समस्या ही नहीं रही है.
मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों में से एक है आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन. इसके तहत सरकार ने अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया है. यानी कि कुछ असाधारण हालात को छोड़कर इन चीजों के उत्पादन और बिक्री में सरकार का कोई दखल नहीं रहेगा. साथ ही पहले की तरह इनके भंडारण यानी स्टॉक की कोई सीमा भी नहीं होगी. आवश्यक वस्तु अधिनियम की मदद से सरकार ‘आवश्यक वस्तुओं’ का उत्पादन, आपूर्ति और वितरण नियंत्रित करती है. इसके पीछे सोच यह है कि इससे जमाखोरी पर लगाम लगती है और लोगों को जरूरी चीजें ठीक दाम पर उपलब्ध होती हैं. यानी कि अब आढ़तियों पर लगने वाला जमाखोरी का आरोप खुद-ब-खुद खत्म हो गया है.
अगर बाकी दो कृषि कानूनों की बात करें तो इनमें से एक है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून. इसमें प्रावधान है कि किसान अपनी उपज को मंडी के बाहर देश में कहीं भी बेच सकता है. इस कानून में कहा गया है, ‘किसी भी किसान, व्यापारी या इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग एंड ट्रांज़ैक्शन प्लेटफॉर्म को राज्य के भीतर या बाहर किसी भी व्यापार क्षेत्र में उपज का व्यापार करने की आजादी होगी.’ कानून के मुताबिक खरीदार को किसान को सौदे के दिन ही या फिर अधिकतम तीन दिन के भीतर भुगतान करना होगा. इस कानून के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना था कि यह किसानों के लिए बंधनों से मुक्ति है. सरकार के मुताबिक यह कानून किसानों के लिए अधिक विकल्प खोलेगा, उनकी विपणन यानी बेचने की लागत कम करेगा और अपनी फसल की बेहतर कीमत वसूलने में उनकी मदद करेगा.
कृषि से जुड़ा तीसरा कानून है कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून. इसमें अनुबंध पर खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े प्रावधान हैं. कहा जा रहा है कि इनसे किसानों को व्यापारियों, कंपनियों, प्रसंस्करण इकाइयों और निर्यातकों से सीधे जोड़ने का रास्ता बनेगा. इस विधेयक में कहा गया है कि ‘कोई भी किसान अपनी उपज के सिलसिले में एक लिखित समझौता कर सकता है जिसमें इस उपज की आपूर्ति के लिए शर्तें तय की जा सकती हैं जिनमें आपूर्ति का समय, उसकी गुणवत्ता, ग्रेड, मानक, कीमत और ऐसी दूसरी चीजें शामिल हैं.’ यह समझौता एक फसली सीजन से लेकर अधिकतम पांच साल तक के लिए किया जा सकता है. खेती से जुड़े इन कानूनों में विवाद की स्थिति में निपटारे की व्यवस्था का भी प्रावधान है. इसे लेकर जारी विज्ञप्ति में कहा गया था कि इसके जरिये ‘किसान सीधे विपणन में शामिल होंगे जिससे बिचौलियों का सफाया होगा और किसानों को पूरा मूल्य प्राप्त होगा.’
कुल मिलाकर तीनों विधेयकों से होने वाले बदलाव का जो सार है वह यह है कि किसान अब से बिचौलियों या आढ़तियों पर ही निर्भर नहीं रहेगा जिससे उसे अपनी फसल के ज्यादा दाम मिलेंगे, वह फसल उगाने से पहले ही व्यापारी के साथ समझौता कर सकता है और अनाज, दलहन या तिलहन के भंडारण पर अब कोई प्रतिबंध नहीं है.
यह तो रही मोदी सरकार द्वारा लाए नये कृषि कानूनों की बात. आढ़तियों पर लगने वाले तमाम आरोपों की सच्चाई को समझने के लिए हमें होलसेल मंडी की कार्यप्रणाली को समझना होगा. उसके बाद ही हम ये समझ सकेंगे कि क्या वे उतने ही बड़े खलनायक हैं जितना हमेशा से उन्हें बताया जाता रहा है.
होलसेल मंडी के अंदर का गणित
जैसा कि अब तक स्पष्ट हो ही चुका है कि होलसेल मंडियों में आढ़तियों का काम किसानों के उत्पादों को बिकवाना है. इसके लिए उन्हें फिक्स कमीशन/आढ़त मिलती है. एक सामान्य दुकानदार और आढ़ती में यही अंतर होता है. दुकानदार सामान को होलसेल में खरीदकर उसे ज्यादा पैसे में ग्राहक को बेचता है. आढ़ती कमीशन लेकर किसानों के उत्पाद बिकवाता है. वह किसान और ग्राहक के बीच की कड़ी होता है.
अधिकांश आढ़तियों के पास लाइसेंस होता है और कुछ लोग दूसरों के लाइसेंस के जरिये अपना काम करते हैं. ये लोग मंडी में दुकान किराये पर लेते हैं. पल्लेदार रखते हैं जो किसानों की गाड़ी से सामान आढ़त पर उतारने और उसे ग्राहक की गाड़ी में लादने का काम करते हैं. आढ़ती हिसाब-किताब. जमा-बही, उधारी इत्यादि के लिए मुनीम रखता है. और बिजली-पानी इत्यादि की व्यवस्था भी करता है. जरूरत पड़ने पर आढ़तिए ‘किसानों’ व उसके साथ आए लोगों को अपने यहां ठहराते भी हैं. उनके खाने-पीने का इंतज़ाम करते हैं. अब इसके लिए किसान भवन बन गए हैं लेकिन अभी भी ऐसे किसानों की कमी नहीं जो आढ़तियों के पास ही रुकना पसंद करते हैं. आढ़ती ज्यादातर किसानों को नकद राशि का भुगतान करता है जबकि कई ग्राहक अक्सर उधारी में माल लेकर जाते हैं. ऐसे ग्राहकों से पैसा मिलने से पहले ही आढ़ती को सरकारी मार्केट कमेटी का कमीशन भी देना होता है.
हरियाणा, गुरुग्राम में खांडसा मंडी में भी अन्य होलसेल की मंडियों की तरह आढ़तियों की एक पूरी सूची है. इसमें लाइसेंसधारी आढ़तियों की संख्या 173 और कुल आढ़तियों की संख्या 300 से ज्यादा है.
खांडसा मंडी के एक आढ़ती राजेन्द्र शर्मा कहते हैं कि’ सरकार हमें किसानों का दुश्मन बनाने पर तुली हुई है. किसान आलू का ट्रक लेकर आता है. ट्रक में 400 कट्टे आलू हैं. ये सारे कट्टे एक किसान के भी हो सकते हैं और 2/3 किसानों का भी माल हो सकता है. मान लीजिये कि आलू का एक कट्टा औसतन 50 किलो का है तो दो रुपये/ प्रति किलो के हिसाब से वो 100 रुपये का हुआ. गाड़ी में कुल कट्टे हैं 400 इनका कुल रेट हुआ 40 हज़ार रुपये. 10 फीसदी हमारा कमीशन मतलब चार हज़ार रुपये हमें मिले. वर्ष 2018 तक मार्केट कमेटी दो फीसदी हमसे ले लेती थी. हमारे पास बचा आठ फीसदी. अभी सरकार एक फीसदी लेती है हमारे पास बचता है नौ फीसदी.’
“अब जरा कल्पना करो. यदि ये आलू चार रुपये/प्रति किलो का बिकेगा तो एक कट्टा हुआ 200 रुपये का और 400 कट्टे हुए 80 हज़ार रुपये के. इसमें हमारा 10 फीसदी कमीशन हुआ आठ हज़ार रुपये. इसमें एक फीसदी (800) सरकार को दिये. अब ये बताइये कि हम किसान के उत्पाद का रेट ज्यादा चाहेंगे या कम?’
कम कीमत पर किसान का माल खरीदकर उसे बाद में ज्यादा कीमत पर बेचने के मामले में राजेन्द्र शर्मा कहते हैं, ‘आप मंडी में आ जाएं और माल कैसे बिकता है वो देखें. किसान अपने उत्पाद के साथ आता है. आढ़त में 90 फीसदी उत्पाद सीधे गाड़ी से बिकता है. गाड़ी से उत्पाद नीचे उतार देते हैं तो ग्राहकों को लगता है कि ये पुराना माल है. ट्रक का डाला खोल दिया जाता है. वहां कांटा रख देते हैं. ग्राहक को सेम्पल के तैर पर एक/दो कट्टों/बोरों को फाड़कर उस उत्पाद को दिखा देते हैं. एक तरफ ग्राहक/खरीददार रहते हैं दूसरी तरफ किसान. कई बार तो तीन-तीन दिन तक माल नहीं बिक पाता क्योंकि ग्राहक और किसान में सहमति नहीं बन पाती. उसके बाद यदि किसान को पसंद न आये तो वो दूसरे आढ़ती या मंडी में जाने के लिए स्वतंत्र हैं.”
उत्तर प्रदेश की एक मंडी के आढ़ती रमेश गुप्ता हमें बताते हैं कि कुछ लोग माल खरीदकर उसका भंडारण करते तो हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. ‘केवल कुछ बड़े आढ़तिये ऐसा करते हैं लेकिन वे इतने कम हैं कि उनकी वजह से फसल के दामों में कोई अंतर नहीं आ सकता. वे ऐसा केवल इस अनुमान के आधार पर करते हैं कि अमुक उत्पाद का दाम बढ़ सकता है. जाहिर सी बात है कि ऐसे आढ़ती किसानों से कम दामों में चीज़ें खरीदने की कोशिश करते हैं. लेकिन किसानों के पास अपनी फसल दूसरों को बेचने का विकल्प तो है ही’ रमेश गुप्ता कहते हैं.
खांडसा मंडी के एक आढ़ती पवन अपनी एक और समस्या के बारे में सत्याग्रह को बताते हैं, ‘हम अपना 90 फ़ीसदी काम उधारी पर करते हैं. किसान तो अपनी रकम लेकर चला जाता है जबकि हमें हमारी रकम कई दिन बाद मिलती है. कुल उधारी का 15-20 फ़ीसदी हिस्सा डूब जाता है. अगर उधार नहीं दें तो काम कैसे चलायेंगे? ऐसा नहीं कि ये केवल गुरुग्राम में है. आप दिल्ली की आजादपुर मंडी, ग़ाज़ियाबाद मंडी या फरीदाबाद सभी जगहों पर ऐसे ही होता है.’
पवन इस बात को थोड़ स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘मान लीजिए हमने प्याज के 200 कट्टे बिकवाए. सभी कट्टे एक गुणवत्ता के नहीं होते उसमें 3/4 केटेगरी बनाई जाती हैं जिसे हम लाट कहते हैं. अब लाट में भी जो कट्टा ग्राहक को दिखाया उसमें प्याज अच्छी थी बाकी में से 20 कट्टे हल्के निकल गए? ऐसे में उधारी पर माल लेने के बाद ग्राहक हमें उन बीस कट्टों की पूरी रकम नहीं देता. किसान तो अपना पैसा लेकर चला जाता है. ये सब बाद में हमें भुगतना पड़ता है.”
पवन हमें बताते हैं कि जब नई फसल मंडी में आती है तो उनका काम दोगुना हो जाता है. उस दौरान आढ़तियों को डबल लेबर रखनी पड़ती है. यदि नया माल दो-तीन दिन नहीं बिका तो उसके बोरों को खोलकर उसे हवा लगाने और उन्हें वापस बोरों में भरने का काम करना पड़ता है. इस बीच अगर वह भीग गई या किसी अन्य कारण से ख़राब हो गई तो उसका भी हिसाब देखना होता है. ‘क्या नये कानून में इसको लेकर कोई बात हैं?’ पवन हमसे पूछते हैं.
सरकार का कहना है कि इन तीन कानूनों के बनने से किसानों की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. ‘किसान अपनी फसल की बुवाई से लेकर अपने बच्चों की शादी यहां तक कि त्योहारों तक के लिए आढ़तियों से पैसे लेता है. आढ़तिये एक तरह से उसका बैंक होते हैं. अधिकांश किसान अपनी फसल की बुवाई पर ही आढ़ती से 50 हज़ार से लेकर एक लाख तक पैसा उधारी पर ले जाते हैं’ आढ़ती यूनियन के अध्यक्ष रह चुके कृष्ण पाल गुर्जर कहते हैं, ‘अगर एक सीजन में भाव नहीं आया तो ये उधारी अगले सीजन तक चलती है. ये किसी एक आढ़ती के साथ नहीं बल्कि सभी आढ़तियों के साथ है. जो जितना बड़ा आढ़ती है उसकी उतनी बड़ी उधारी. और किसानों को ये मदद अपनी जमीन को गिरवी रखकर नहीं मिलती जैसा बैंक करते हैं और न ही ये रकम गांवों के सूदखोरों के जैसे ऊंचे ब्याज पर मिलती है.’
कृषि सुधारों से जुड़े नये कानून में कहा गया है कि खरीदार को किसान को सौदे के दिन ही या फिर अधिकतम तीन दिन के भीतर भुगतान करना होगा. लेकिन इसमें एक व्यावहारिक समस्या भी है. गुरुग्राम की खांडसा मंडी पर मानेसर के अंतर्गत आने वालीं एक हज़ार से ज्यादा छोटी-बड़ी कम्पनियां निर्भर हैं. गुरुग्राम के अंतर्गत आने वाले 82 सेक्टर भी इसी मंडी पर निर्भर हैं. इसके अलावा डीएलएफ व अन्य नजदीक क्षेत्रों की कम्पनियां भी इसी मंडी पर निर्भर हैं.
कम्पनी आढ़ती से माल उधार ले जाती हैं और उसका हिसाब एक महीने बाद करती हैं. इनमें से ज्यादातर कम्पनियों के लिए एडवांस में या नकद खरीद सम्भव नहीं है. यह लेन-देन कम्पनी को भविष्य में पैसा मिलने के चक्र पर टिका होता है. ऐसी स्थिति आगे यह काम कैसे होगा? कंपनियों को एक महीने की उधारी कौन देगा?
सरकार की नीयत पर शक क्यों है?
किसानों की समस्या मिनिमम सपोर्ट प्राइज को लेकर है. कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा अपने एक एक लेख में कहते हैं, ‘नए प्रावधानों के बाद सब बोल रहे हैं कि किसानों को अच्छा दाम मिलेगा. अच्छा दाम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही होना चाहिए, तो फिर समर्थन मूल्य को पूरे देश में वैध क्यों न कर दिया जाए?’
यहां सवाल यह है कि अगर किसान की फसल की गुणवत्ता कम है तो वह एमएसपी पर कैसे बिकेगी? तब जाहिर सी बात है कि उसे अपनी फसल बेचने के लिए उसकी कीमत कम करनी ही पड़ेगी. लेकिन यहां एक सवाल यह भी उठता है कि उसके इस नुकसान की भरपाई बीमा कम्पनियां क्यों नहीं करती? अगर किसान अच्छी गुणवत्ता का बीज डाले, मिट्टी की गुणवत्ता के अनुरूप उसमें खाद डाले फिर भी अच्छी फसल नहीं आए तो इसकी भरपाई किसे करनी चाहिए?
खांडसा मंडी के एक आढ़तिये मनोज कुमार कहते हैं ‘मंडी में जो अनाज की बोली लगाई जाती है. उस बोली लगाने वाले पर तरह-तरह के नियम-कानून लादने या नये-नये नियम लाने से अच्छा है कि किसान के अनाज को एमएसपी पर सरकार खरीदे या मंडी को बाध्य करे कि बोली इससे ऊपर ही लगेगी. अगर माल कम में बिकता है तो उसकी भरपाई बीमा कम्पनी को करनी चाहिए.’
अगर हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में खेती-किसानी को देखेंगे तो पायेंगे कि यहां 90 फीसदी से ज्यादा जोतें बहुत छोटी हैं. इसका एक कारण चकबंदी है तो दूसरा कारण यहां के परिवारों में खेती का विभाजन है. इन छोटी जोतों में पैदावार भी बहुत सीमित हो पाती है. अधिकांश उत्पादन या तो घर में उपयोग हेतु रहता है या फिर नजदीक के लोग खरीदकर ले जाते हैं जो सामान्यतया मार्किट रेट से कम पर ही बिकती है. यदि फिर भी कुछ हिस्सा बच जाता है तो यहां के स्थानीय व्यापारी उसे खरीद लेते हैं. यह खरीद एमएसपी से थोड़ी कम (पांच से 10 फीसदी) कीमत पर होती है. किसान आम तौर पर इससे खुश रहता है क्योंकि उसे अपनी फसल को बाजार तक ले जाने का खर्चा नहीं करना पड़ता है. लेकिन अगर एसएसपी या मंडियां ही नहीं हों तो किसान को अपनी फसल के सही दाम का अंदाज़ा कैसे लगेगा!
मुंबई स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेन्ट रिसर्च की कृषि अर्थशास्त्री सुधा नारायणन कहती हैं, ‘तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे जिन राज्यों में मंडियां उतनी अहम नहीं हैं और जहां रिलायंस जैसी कंपनियां सीधे किसानों से खरीद करती हैं वहां इसके लिए मंडी की कीमत को ही आधार बनाया जाता है. लेकिन अगर मंडियां ही नहीं रहती हैं तो कीमत कैसे तय होगी?’
सुधा नारायणन का मानना है कि सरकार भले ही आश्वासन दे रही हो कि मंडियों की व्यवस्था भी जारी रहेगी, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता. वे कहती हैं, ‘अगर आप मंडी में टैक्स ले रहे हैं और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं लग रहा है तो क्या होगा? लोग बाहर ही व्यापार करना पसंद करेंगे. आढ़तिये और व्यापारी मंडी में क्यों बैठेंगे जब वहां उन्हें शुल्क देना पड़ेगा? वे अपना स्टॉल बाहर लगाएंगे. व्यापार बाहर होने लगेगा तो मंडियां धीरे-धीरे अपने आप खत्म हो जाएंगी.’
सुधा जो कह रही हैं उसका एक मतलब यह भी लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में मंडियां तो खत्म हो जाएंगी लेकिन शायद आढ़तिये खत्म न हों. वे या तो दूसरे रूप में मौजूद रह सकते हैं या उनकी जगह दूसरे और दूसरी तरह के कमीशन एजेंट ले सकते हैं.
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