वर्षारंभ

‘यह अंधेरी रात का कैसा सवेरा है.’ याद नहीं कि किस की पंक्ति है. पिछले वर्ष हमने, सार्वजनिक और निजी दोनों ही स्तरों पर, इतना खोया-गंवाया कि नये वर्ष को लेकर हर बार होने वाला उत्साह मन्द पड़ गया है. इधर अरसे से हर दिन आशंका और भय से शुरू होता है और अक्सर शाम होते किसी बुरी ख़बर से ख़त्म होता है. यह इतना लगातार होता रहा है कि एक साफ़-सुथरे दिन की कल्पना करने से ही मन संकोच करता है. निराशा, लाचारी, निरूपायता हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की अमिट वर्णमाला सी बन गयी हैं. इन भावों से अपने को मुक्त करना सचाई से मुंह मोड़ना होगा. पर सचाई इस क़दर भयावनी हो गयी हो, जितनी कि वह हो गयी है, तो उसे भावात्मक स्तर पर स्थगित करना ज़रूरी और मानवीय एक साथ है.

हमको धीरे-धीरे सही उम्मीद का कोई स्थापत्य, करुणा और सहवेदना, भाईचारा, राहत और मदद करने की इच्छा, राज्य की बढ़ती निर्लज्ज निमर्मता और हिंसा के प्रतिरोध, भाषा को घृणा और झूठ से प्रदूषित करने की चालाकी की पहचान आदि को तिनका-तिनका बटोरकर रचने की कोशिश करते रहना चाहिये. सौभाग्य, इस अभागे समय में भी, यह है कि ऐसा स्थापत्य रचने की चेष्टा करने वाले हर क्षेत्र में हैं. शायद सबसे अधिक वहां जहां आम लोग रोज़मर्रा के कष्टों और ख़तरों के बावजूद पूरी तरह से उम्मीद छोड़ नहीं रहे हैं. देश भर में किसान जो अहिंसक शान्त पर उग्र आन्दोलन कर रहे हैं. वह उम्मीद का नया शास्त्र लिखने के बराबर ही है. इस शास्त्र को बदनाम करने, उसे विफल बनाने की सुनियोजित कोशिश भी लगातार की जा रही है पर अब तक इस शास्त्र ने प्रतिरोध, ज़िद, संकल्प और निर्भयता की जो उजली-दमकती इबारत लिखी है वह धूमिल या शिथिल नहीं पड़ी है. भोंड़ी और अभद्र चकाचौंध में आत्ममुग्ध सत्तारूढ़ शक्तियां अपना तेज और नैतिक आधार खो चुकी हैं, भले उनकी राजनीति अभी तक सशक्त और सशस्त्र है.

घिरे और गाढ़ा होते अंधेरों में कई तरह की सर्जनात्मक और बौद्धिक चेष्टाएं उन मोमबत्तियों की तरह हैं जो सहर होने तक अपने को गला-गलाकर रोशनी बनाये रख रही हैं. हमें धूप चाहिये, अपने निरर्थक न हो जाने की आश्वस्ति चाहिये, मानवीय साहचर्य और सहवेदना चाहिये, लगातार बढ़ते भय से मुक्ति और संघर्ष और सृजन के लिए निर्भयता चाहिये. ये छोटी-छोटी रोशनियां इस लम्बी रात को काटने में हममें उम्मीद भरती हैं. हम उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं कि उन्होंने हमें हर हालत में मानवीय बने रहने के लिए उकसाया है और हम अधिक गरमाहट और धूप भरे सवेरे की प्रतीक्षा कर रहे हैं. उम्मीद का दामन थामे हुए हुए हमारी हाउसिंग सोसायटी में कुछ महिलाएं नया वर्ष मनाने के लिए तरह-तरह के उपक्रम कर रही हैं. हमारे यहां कोरोना के शिकार कई रहवासी हुए हैं पर सभी सौभाग्य से ठीक हो गये हैं. इस प्रकोप से अक्षत निकल आने का कुछ उत्सव मनाना ठीक भी लगता है. साधारणता में खुशी मनाने और उसमें साझा करने के अवसर, उचित ही, बचे हुए हैं.

कुछ सबक

इतिहास में सीखने को बहुत कुछ है पर अक्सर लगता है कि मनुष्य ने कुछ सीखा नहीं है क्योंकि वह वही ग़लतियां दुहराता रहता है जो इतिहास में बहुत सारे दुष्परिणामों के लिए ज़िम्मेदार ठहरती आयी हैं. फिर भी, हमने कोरोना प्रकोप से, जो शायद अब उतार पर है, क्या सबक सीखे इस पर सोचा जा सकता है. कम से कम नया वर्ष शुरू होने पर उनको याद करना समीचीन है, भले हम शायद जल्दी ही उन्हें भूल जायेंगे.

यह अहसास गहरा होना चाहिये कि हमारी अपने और दूसरों के लिए सामूहिक ज़िम्मेदारी है और यह अहसास अगर गहरा और टिकाऊ हो तो ऐसी ज़िम्मेदारी नयी सामूहिक नैतिकता का आधार बन सकती है. हमें यह भी समझ में आया है, बहुत त्रासद ढंग से, कि हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से अटूट जुड़ी है; ज़रा सी कोताही बहुतों को विचलित-प्रभावित कर सकती है. इस दुश्चक्र के प्रति भी हम सचेत हुए हैं कि कैसे भौतिक दूरी बनाये रखने की बाध्यता को सामाजिक दूरी में बदल दिया गया है जबकि हमारे पास नयी तकनालजी के रहते सामाजिक दूरी न बरतने की सुविधा मौजूद है और हममें से अनेक ने उसका सदुपयोग सामाजिक संवाद बनाये रखने के लिए किया है. चूंकि हम, फिर भी, लाचारी में, अकेले पड़ गये हैं तो हममें से कइयों को अकेलेपन का महत्व और ज़रूरत समझ में आये. मानवीय स्पर्श भले भौतिक रूप से ख़तरनाक तक, इस बीच, हो गया हो उसकी चाहत और कोशिश हम अन्य तरह से करते रहे हैं: स्पर्श के कारण ही हम संग-साथ और मेलजोल की सम्भावना जिलाये रख पाये हैं.

नयी तकनालजी ने यह सम्भव किया है कि हमने सामुदायिक संवाद के नये मंच तलाशे, विकसित किये और सक्रिय किये. इस अनुभव से बचना हमारे लिए लगभग असम्भव हो गया है कि यकायक, हमारे चाहे और जाने बिना, सब कुछ आकस्मिक हो उठा है: कभी भी कुछ भी, सर्वथा अकल्पनीय और अप्रत्याशित हो सकता है. एक तरह से हमारे इस कुसमय में सब कुछ आकस्मिकता की ज़द में गया है. हम तर्क, बुद्धि, ज्ञान और विज्ञान के सीमान्त पर पहुंच गये हैं: जो हो रहा है वह अप्रत्याशित है, जो होगा वह भी उतना ही अप्रत्याशित है.

इस दौरान लोकतांत्रिक सत्ता ने जो निमर्मता और नीचता दिखायी है, उसका एक सबक यह है कि हमें बहुत चौकन्ना होने की ज़रूरत है क्योंकि राजनीति नीचता और अभद्रता की सभी हदें सत्ता के लिए पार कर सकती है. वह हमें लगातार डर, हिंसा, अन्याय में ढकेलती रह सकती है. हमें, इस दौर में, सत्ता की जवाबदेही बनाये रखने के लिए प्रश्नवाचक और आत्मालोचक एक साथ होना और बने रहना ज़रूरी है. आखि़री सबक यह कि सारी विषमताओं के बावजूद मनुष्य बने रहना, अपने अन्तःकरण, साहस, विकल्प की खोज न छोड़ने की ज़िद और सहवेदना के साथ, फिर भी, सम्भव है. पर यह मनुष्यता तभी बचेगी जब वह पर्यावरण, प्रकृति और अन्य प्राणियों के प्रति संवेदनशील होगी और उनके प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाती रहेगी जिसमें वह पहले भारी कोताही करती रही है.

याद करने में दुख

बीते वर्ष में सबसे अधिक याद आता है अचानक घोषित लॉकडाउन के कारण लाखों प्रवासी लोगों के, जिनमें स्त्रियां और बच्चे तक शामिल थे, सैकड़ों कोस दूर अपने घर-गांव जाने के दारुण दृश्य जिन्होंने हममें से अनेक की घरबन्द सुरक्षा पर सवालिया निशान लगा दिया था. हम अगर सत्तारूढ़ राजनीति की तरह उनको भूलते हैं तो यह एक दुखद साक्ष्य होगा कि प्रकोप और सत्ता ने मिलकर हमारी मानवीयता में कटौती करने में सफलता पायी है. यह उम्मीद करना चाहिये कि ऐसी कटौती नहीं हो पायी है.

पिछला वर्ष भारतीय संस्कृति जगत् के लिए आकस्मिक रूप से बेहद क्षतिदायक रहा है. याद नहीं आता कि इससे पहले किसी एक वर्ष में इतने मूर्धन्य दिवंगत हुए हों. इस शताब्दी के आरम्भ से सांस्कृतिक मूर्धन्यता का छिनना शुरू हुआ और इस वर्ष वह अपने चरम पर पहुंच गया. हमने अनेक मूर्धन्य खोये - साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद, मलयालम कवयित्री सुगता कुमारी, उर्दू की अज़ीम हस्ती शमसुर रहमान फ़ारूकी, कलाकार सतीश गुजराल, ज़रीना हाशमी, रंगकर्मी और कलाविद् इब्राहीम अलकाज़ी, उद्भट विद्वान् और कला-रसिक कपिला वात्स्यायन और मुकुन्द लाठ, संगीतकार पण्डित जसराज, सिने अभिनेता सौमित्र चटर्जी और इरफ़ान खान, आधुनिक भारतीय नृत्य के स्थापति अस्ताद देबू. अनेक परिचित और महत्वपूर्ण व्यक्ति कवि मंगलेश डबराल और विष्णु चन्द्र श,र्मा युवा चित्रकार अंजुम सिंह, नृत्यविद् सुनील कोठारी, रंगकर्मी उषा गांगुली, गायक उस्ताद अहमद खां, नृत्यकार योग सुन्दर, फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी, अनुवादक चन्द्र किरण राठी, वास्तुकार विक्रम लाल, कथाकार गिरिराज किशोर, आलोचक नंदकिशोर नवल, इतिहासकार वी पी दत्त.

यह सूची लिखते हुए दिल बैठ सा जाता है. बीता वर्ष बहुत क्रूर और निर्मम रहा है. सिर्फ़ कहने को नहीं ऊपर की दुखद सूची में ऐसे लोग शामिल हैं जिनका कोई स्थानापन्न दूर-दूर तक नज़र नहीं आता. उनके न रहने से जो जगहें ख़ाली हुई हैं वे अरसे तक, दुर्भाग्य से, ख़ाली ही रहने को अभिशप्त हैं. कुल एक वर्ष में अद्वितीयता का ऐसा लोप पहले कभी हुआ हो ऐसा याद करना मुश्किल है. जब कोरोना महामारी और काल ने हमसे इस दौरान कितना छीना है इसका हिसाब लेने बैठेंगे तो आम आकलनों में इस दौरान हुई भयावह क्षति का शायद ही ज़िक्र हो. सामाजिक आकलनों में भले उसे जगह न मिले पर हम भूल नहीं पायेंगे कि इस दौरान हमने संस्कृति और ज्ञान के क्षेत्र में कितना खोया है.

यों तो अपने स्वभाव से और अन्य निजी और सामाजिक कारणों से संस्कृति के क्षेत्र में कई बदलाव आना लाजिमी है. पर इस बार इस बदलाव का एक आवश्यक सन्दर्भ हमारी यह क्षति भी होगी. मही तो रहेगी पर, इस बार, वह कुछ अधिक वीरविहीन हो गयी है. नयी तकनालजी के कारण सार्वजनिक स्तर पर दिवंगत हस्तियों को व्यापक रूप से याद किया गया और उनसे जुड़े अनेक निजी प्रसंग साझा हुए. कुछ कृतज्ञता का भाव भी व्यक्त हुआ.